सम्पादकीय

शिक्षक तैयार करने की चुनौतियां

Subhi
8 April 2022 3:59 AM GMT
शिक्षक तैयार करने की चुनौतियां
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संजय कुमार मिश्र; किसी भी देश की शिक्षा नीति की सफलता अध्यापकों की योग्यता, क्षमता और प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। नई शिक्षा नीति में अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की बात की गई है

संजय कुमार मिश्र; किसी भी देश की शिक्षा नीति की सफलता अध्यापकों की योग्यता, क्षमता और प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। नई शिक्षा नीति में अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की बात की गई है, पर असली सवाल है कि हिंदी प्रदेश की सरकारें कब शिक्षा को अपनी प्राथमिकता में शामिल करेंगी और बच्चों के अनुपात में प्रशिक्षित शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति तथा स्कूल में मूलभूत सुविधाओं की कमी को दूर करेगी।

जब-तब रोंगटे खड़े कर देने वाली हिंसा के समाचारों के बीच उत्तर प्रदेश में रामपुर स्वार क्षेत्र के पसियापुरा स्कूल की यह घटना सामान्य-सी लग सकती है। पर गहराई से विवेचन-विश्लेषण करने पर आसानी से समझा जा सकता है कि निरंतर हिंसक होते समाज की मूलाधार ऐसी ही घटनाएं हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में रामपुर, सैदनगर विकास खंड स्वार क्षेत्र के गांव पसियापुरा के स्कूल में बच्चों की परीक्षा करवाने प्रधानाध्यापक सुबह स्कूल पहुंचे तो उस समय तक सहायक अध्यापिका स्कूल नहीं पहुंची थी।

नियत समय के पांच मिनट बाद शिक्षिका स्कूल आई तो प्रधानाध्यापक भड़क गए। इस दौरान दोनों के बीच जम कर कहा-सुनी, गाली-गलौच और हाथापाई तक हो गई। बात यहीं नहीं रुकी, आगे बढ़ कर प्रधानाध्यापक ने शिक्षिका को थप्पड़ मार दिया। स्कूल में दोनों के बीच इस जूतमपैजार को सारे छात्र और गांव के लोग भी, दिल थाम कर देखते रहे।

मारपीट का यह मामला पुलिस तक पहुंचता, उसके पहले ही शिक्षा विभाग सक्रिय हो गया। स्वार से कई शिक्षक समझौता कराने के लिए स्कूल में पहुंचे। स्कूल में पंचायत हुई। पंचायत में शिक्षक, ग्राम प्रधान और दर्जनों ग्रामीणों ने हिस्सा लिया। समझौते में तय हुआ कि प्रधानाध्यापक भरी पंचायत में शिक्षिका के पैर पकड़ कर माफी मांगेंगे। फरमान को पूरा करते हुए प्रधानाध्यापक शिक्षिका के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगे।

पर शिक्षिका माफ करने को तैयार नहीं थी और वह तभी मानी जब उसे दो थप्पड़ के बदले, दो जूते मारने की इजाजत मिली। शिक्षिका ने खुद को पड़े थप्पड़ का बदला जूता मार कर लिया। किसी की सूचना पर पुलिस ने गांव पहुंच कर छानबीन की, लेकिन पंचायत ने समझौते की बात कह कर पुलिस को लौटा दिया।

इस झगड़े के पीछे के कारणों की गहराई में जाएं तो पता चलेगा कि यह सिर्फ दो शिक्षकों के बीच का सामान्य झगड़ा नहीं, बल्कि सरकार की शिक्षा व्यवस्था संबंधी नीतियों और खामियों का प्रत्यक्ष प्रतिफल है। हिंदी प्रदेश, खासकर यूपी, बिहार, झारखंड के ज्यादातर प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालयों में एक दो ही शिक्षक मिलेंगे। उन पर पूरे स्कूल के पठन-पाठन से लेकर बच्चों के मध्याह्न भोजन की व्यवस्था और वितरण, बच्चों की किताब, पोशाक, उनसे जुड़ी अनुदान योजनाओं के वितरण के अलावा सरकार द्वारा थोपे गए मतदाता सूची, चुनाव, पशुगणना से लेकर जनगणना तक कुल मिलाकर तेरह तरह के सरकारी कार्यों की लंबी सूची है, जो उन पर थोपे गए हैं। इन्हें उन्हें हर हाल में मुश्किल से मिली नौकरी को बचाने के लिए निभाना है।

यूनेस्को ने 'भारत में शिक्षा की स्थिति 2021- न शिक्षक, न कक्षा', शीर्षक रिपोर्ट में भारत में पढ़ाई-लिखाई के मोर्चे पर काफी चिंताजनक तस्वीर पेश की है। इसके अनुसार, देश के स्कूलों में दस लाख शिक्षकों की कमी है। यही नहीं, अभी जितने शिक्षक हैं, उनमें से तीस फीसद अगले पंद्रह साल में रिटायर हो जाएंगे। भारत में ग्यारह लाख स्कूल ऐसे हैं, जहां सिर्फ एक अध्यापक है। देश के स्कूलों में शिक्षकों के उन्नीस प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। इनकी संख्या 11.16 लाख है। ग्रामीण इलाकों में तो हाल और भी बुरा है, जहां उनहत्तर फीसद तक पद खाली हैं।

यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि देश के हिंदी क्षेत्र में सबसे कम शिक्षक हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश जैसे राज्य हैं। यहां शिक्षकों की सर्वाधिक रिक्तियां हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में एक लाख से ज्यादा रिक्तियां हैं, जो देश में सबसे ज्यादा है। ग्रामीण इलाकों में साठ फीसद जगहें खाली हैं। इस मामले में यूपी सबसे ऊपर है। हिंदी प्रदेशों में शिक्षकों की स्थिति देखें, तो ज्यादातर प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में संविदा या ठेके के शिक्षक मिलेंगे।

हमारी राज्य सरकारें चुनावों के समय एक तरफ अपने कर्मचारियों को खुश करने के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर देती हैं और दूसरी तरफ नए शिक्षकों की भर्ती ही नहीं करतीं। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह ने कई अभिनव प्रयोग किए, पर एक प्रयोग जिसे सभी सरकारों ने हाथोंहाथ लिया, वह था शिक्षा मित्रों या ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति। इन शिक्षकों को न तो नियुक्ति से पहले कई सालों से पढ़ाई-लिखाई से कुछ खास लेना-देना था और न ही इनके उचित प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था।

सरकारों ने अपने नौनिहालों को भाग्य भरोसे इन ठेके के दस-पंद्रह हजार के वेतन पर नियुक्त अध्यापकों के हाथों सौंप दिया और सरकारों नें शिक्षकों के वेतन पर होने वाले खर्च से निजात पा ली। नतीजा यह हुआ कि हर कस्बे-शहर से लेकर महानगरों तक निजी स्कूल खुल गए और जो अपने बच्चों को इनमें भेजने लायक थे वे इनकी शरण में आ गए। गरीब कुपोषित बच्चे खिचड़ी-दलिया से भूख मिटाने और साक्षरता के आंकड़े बढ़ाने भर के लिए सरकारी स्कूल जा रहे हैं।

नई शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक बनने के लिए बीएड के चार वर्षीय पाठ्यक्रम की संस्तुति है। अभी तक यह दो वर्ष का पाठ्यक्रम होता था। अब कक्षा बारह के बाद चार साल का पाठ्यक्रम होगा। दूसरे, अध्यापक जिस स्कूल में शिक्षा देते हैं उन्हें वहां के सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल से परिचित होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों से शिक्षकों की कमी खत्म करने और गांवों के शिक्षित युवाओं को आसपास ही रोजगार मुहैया कराने के लिए गांवों के प्रतिभाशाली छात्रों को शिक्षक बनने की ओर आकर्षित किया जाएगा। उन्हें बारहवीं के बाद चार साल का बीएड कोर्स करने के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाएगी। नई शिक्षा नीति में अध्यापकों को समय-समय पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की बात की गई है।

किसी भी देश की शिक्षा नीति की सफलता अध्यापकों की योग्यता, क्षमता और प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। नई शिक्षा नीति में अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की बात की गई है, पर असली सवाल है कि हिंदी प्रदेश की सरकारें कब शिक्षा को अपनी प्राथमिकता में शामिल करेंगी और बच्चों के अनुपात में प्रशिक्षित शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति तथा स्कूल में मूलभूत सुविधाओं की कमी को दूर करेगी। आज सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का काम के दबाव और तनाव में आकर हिंसक आचरण करना गलत होते हुए भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। हिंदी प्रदेश के ज्यादातर सरकारी स्कूल शिक्षा नहीं, सिर्फ साक्षरता दर बढ़ाने में लगे हैं। इस तरह की शिक्षा से गुणवत्तापूर्ण मूल्यपरक शिक्षा की आशा कैसे की जा सकती है।

एक योग्य या आदर्श शिक्षक अपने प्रयासों से बच्चों में ऐसी रचनात्मक ऊर्जा का संचार करता है, जिससे वे उन्नत और प्रगतिशील बनते हैं। उस समाज का भविष्य क्या होगा, जिसमें स्कूल का प्रधानाध्यापक और शिक्षिका विद्यार्थियों के सामने एक दूसरे को थप्पड़ और जूतों से वार और प्रतिवार करें और सरेआम माफी मांगनी पड़े? इन हिंसक घटनाओं का मासूम बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर क्या असर होगा? आखिर वे शिक्षक किस मुंह से बच्चों को अहिंसा का पाठ पढ़ाएंगे? अगर वे तोतारटंत करवा भी देंगे, तो क्या उसका कुछ भी असर उन बच्चों पर पड़ेगा? आज जब हम हर तरफ हिंसा का नग्न प्रदर्शन देख रहे हैं, उसमें शिक्षकों के ऐसे हिंसक और अशोभन व्यवहारों का भी बहुत बड़ा हाथ है। सरकारों को अब राशन और मध्याह्न भोजन के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण और मूल्यपरक शिक्षा के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए, ताकि प्रर्याप्त योग्य, शिक्षित, प्रशिक्षित और मेधावी ही शिक्षक बनें, जिससे हमारे नवांकुरों के साथ-साथ देश और समाज का भी भविष्य संवर सके।


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