सम्पादकीय

बीच युद्ध में फंस गए हैं जो छात्र

Rani Sahu
8 March 2022 5:02 PM GMT
बीच युद्ध में फंस गए हैं जो छात्र
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किसी युद्धग्रस्त इलाके में फंसे आम लोगों को बाहर निकालना कतई आसान नहीं होता

सुशांत सरीन,

किसी युद्धग्रस्त इलाके में फंसे आम लोगों को बाहर निकालना कतई आसान नहीं होता। एक तरीका यह है कि लोग वहां से पलायन करें और नजदीकी सुरक्षित स्थानों पर पहुंचे, जहां से उनके बचाव का रास्ता खोजा जाए। हम भारतीयों के लिए 1991 का खाड़ी युद्ध इसका एक बड़ा उदाहरण है, जिसमें कुवैत में फंसे तकरीबन एक लाख से अधिक भारतीयों को हवाई जहाज से वापस लाया गया था। हालांकि, इसमें कूटनीति की भी बड़ी अहम भूमिका थी, क्योंकि इराक के शासक सद्दाम हुसैन के भारत के साथ अच्छे संबंध थे। यमन युद्ध में भी, जो बेशक गृह युद्ध था, कमोबेश ऐसा ही हुआ था। मगर तब और आज के हालात में एक बड़ा फर्क यह है कि उस समय जंग शुरू नहीं हुई थी। युद्ध शुरू होने से पहले ही भारत ने अपने नागरिकों को निकाल लिया था।
साफ है, आज कूटनीतिक पेचीदगियां काफी ज्यादा हैं। पिछले दिनों जब यूक्रेन पर हमला बोला गया, तो बहुत सारे भारतीय उन इलाकों में फंस गए, जो रूस के सीधे निशाने पर थे। इसमें बेहतर उपाय तो यही था कि भारत सरकार की एडवाइजरी का संजीदगी से संज्ञान लिया गया होता। मगर इसमें भारतीयों, खासकर विद्यार्थियों के सामने तीन मुश्किलें आ खड़ी हुईं। पहली, यूक्रेन के लोगों को, यहां तक कि वहां की सरकार को भी यह आशंका नहीं थी कि उन पर हमला होगा। दूसरी समस्या, विश्वविद्यालयों ने छात्रों को यह आगाह किया गया था कि अगर वे अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर वापस भारत लौटे, तो उनका पूरा सेमेस्टर बरबाद हो सकता है और यह भी संभव है कि उनका दाखिला खारिज हो जाए। और तीसरी समस्या थी, हवाई टिकट के ऊंचे दाम।
बहरहाल, 'ऑपरेशन गंगा' के बावजूद अब भी कई छात्र युद्धग्रस्त इलाकों में फंसे हुए हैं। चिंता की बात यह है कि अब हमारे पास बहुत ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं। युद्ध के बीच में यह उम्मीद करना बेमानी है कि कोई काफिला उनकी सुरक्षा के लिए बम-गोलाबारी के बीच जाएगा और उनको सुरक्षित बाहर निकाल लाएगा। आखिर युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जाने का खतरा कौन मोल लेगा? यूक्रेन के कई इलाकों में तो आलम यह है कि सड़कों पर टैंक दौड़ रहे हैं और अनवरत हवाई हमले हो रहे हैं, जिसमें जान-माल का नुकसान हो रहा है। हालांकि, कूटनीतिक तरीके से रास्ता निकालने की कोशिशें भी हो रही हैं। इसके लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूतावास के अधिकारीगण तत्पर हैं।
रूस और यूक्रेन से बातचीत करके यह कोशिश हो रही है कि ऐसा कोई रास्ता निकाला जाए अथवा एक वक्त मुकर्रर किया जाए, जब संघर्ष-विराम हो और भारतीय छात्रों की वतन-वापसी की सुरक्षित राह तैयार हो सके। इस बात पर दोनों देशों से रजामंदी भी मिल चुकी है। मगर पिछले दो-तीन दिनों में यह भी दिखने में आ रहा है कि भारतीयों का ऐसा कोई काफिला ज्यों ही बाहर निकलने को तैयार होता है, गोलाबारी शुरू हो जाती है और सायरन बजने लगती हैं। नतीजतन, छात्रों को वापस बंकर में जाना पड़ता है।
फिलहाल यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि आखिर इसकी वजह क्या है? मगर यह अंदेशा जताया जा रहा है कि संघर्ष-विराम का आदेश शायद फौज के कमांडेंट स्तर के अधिकारियों तक नहीं पहुंच सका है। एक आशंका यह भी है कि भारतीयों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर कोई सुनियोजित साजिश हो रही हो। तथ्य यह भी है कि युद्ध में कोई पक्ष यह नहीं चाहता कि विपक्ष को किसी तरह का कोई लाभ मिले। उनमें यह डर बना रहता है कि संघर्ष-विराम की आड़ में दुश्मन फौज अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है। यूक्रेन इन्हीं पेचीदगियों से अभी जूझ रहा है।
क्या इसका कोई समाधान है? जंग के बीच में तो शायद नहीं। लेकिन यदि किसी एक पक्ष का संघर्षग्रस्त इलाके पर वर्चस्व हो जाए, तो उससे बातचीत करके बीच का रास्ता निकाला जा सकता है। दिक्कत यह भी है कि बहुत से भारतीय विद्यार्थी रूस की सीमा के नजदीक फंसे हैं। उनको अगर वहां से बाहर निकलना है, तो पूर्वी यूक्रेन से दो-ढाई हजार किलोमीटर का रास्ता तय करके उन्हें मुल्क के पश्चिमी हिस्से में पहुंचना होगा और किसी अन्य देश की सीमा पार करनी होगी। मगर युद्ध के बीच में यह भी आसान काम नहीं।
ऐसे में, एक विकल्प यह हो सकता है कि इन छात्रों को रूस की सरहद पार कराई जाए और वहां से भारत बुलाया जाए। इसके लिए रूस तो राजी है, लेकिन यूक्रेन को आपत्ति है। तीसरा विकल्प यह है कि रूस के पड़ोसी देश बेलारूस होकर भारतीय छात्रों को लाया जाए। पश्चिमी सरहद से लगने वाले हंगरी, पोलैंड और रोमानिया से बच्चे जब निकल सकते हैं, तो बेलारूस की तरफ भी उनको भेजा जा सकता है। मगर इस विकल्प पर ज्यादा काम नहीं किया जा रहा, क्योंकि यह माना जा रहा है कि कीव (यूक्रेन की राजधानी) पर अगला बड़ा हमला बेलारूस की तरफ से हो सकता है। दोनों देशों में तनातनी काफी ज्यादा है।
जाहिर है, हालात काफी चिंतनीय हैं और समाधान की राह काफी मुश्किल। दिक्कत यह भी है कि जेनेवा कन्वेंशन के तहत आम नागरिकों को युद्धग्रस्त माहौल में कई तरह के वैधानिक अधिकार तो मिले हैं, जिसमें उनको निशाने पर लेने पर युद्ध अपराध जैसे प्रावधान भी हैं, लेकिन युद्ध के माहौल में ऐसे प्रावधान आसानी से भुला दिए जाते हैं। कई बार दुश्मन फौज पर हावी होने के लिए असैन्य इलाकों से कार्रवाई की जाती है और आम लोगों की आड़ में छापामार युद्ध लड़े जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप दुश्मन फौज भी असैन्य इलाकों को निशाना बनाती है।
यह समझना होगा कि ऐसा कोई युद्ध नहीं, जिसमें आम लोगों को निशाना न बनाया गया हो। अफसोस, नागरिकों पर हमले को मानवीय चूक बताकर खारिज कर दिया जाता है। फिर, ताकतवर देशों के खिलाफ, जिनका आर्थिक, सैन्य व कूटनीतिक दबदबा होता है और जो विशेषकर सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार रखते हैं, मानवाधिकार के उल्लंघन के आरोप साबित नहीं हो पाते। साफ है, किसी भी युद्ध में सबसे पहले सच्चाई का कत्ल होता है और उसके बाद मानवता है। इसका कोई इलाज किसी देश या संस्था के पास नहीं।


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