सम्पादकीय

अस्पृश्य समाज के अधिकारों को किया संघर्ष

Rani Sahu
13 April 2022 7:08 PM GMT
अस्पृश्य समाज के अधिकारों को किया संघर्ष
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संसार के महापुरुषों के चरित्रों का अध्ययन करते समय यह बात हमारे ध्यान में अवश्य आती है

संसार के महापुरुषों के चरित्रों का अध्ययन करते समय यह बात हमारे ध्यान में अवश्य आती है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, यह महानता उसे अपने जीवन में त्याग और परिश्रम की भारी पूंजी लगाकर प्राप्त करनी पड़ती है। रूस में स्टालिन और अमेरिका में अब्राहिम लिंकन की भांति भारत में भी बाबा साहब अंबेडकर ने साधारण परिवार में जन्म लेकर अपने ज्ञान बल से सुधारवादी सोच को इस तरह से विकसित किया कि देशवासियों के लिए किया गया उनका उपकार कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। सूबेदार रामजी एवं भीमाबाई के घर 14 अप्रैल 1891 को पुत्र रत्न के रूप में भीम ने जन्म लिया जिसे परिवार वाले भीवा कहकर पुकारते थे। भीवा अपनी कर्म निष्ठा एवं लग्न से भीमराव अंबेडकर बनकर भारतीय पीडि़त समाज एवं सभी वर्गों की महिलाओं के लिए कैसी-कैसी मुसीबतों को सहकर मसीहा बनकर सामने आए, उस समय के समाज को पता ही नहीं चला। अपने अध्ययन काल के समय जब अन्य विद्यार्थी सिनेमा, शराब और सिगरेट पर पैसा बहाते थे, उन दिनों भीमराव पुस्तकें खरीदने के सिवा अन्य कोई खर्चा नहीं करते थे। शराब और सिगरेट को उन्होंने कभी स्पर्श तक नहीं किया। लंदन में अध्ययन के दौरान बाबा साहब को बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं था। उन दिनों उनके कमरे में मुंबई निवासी अस्डोनाकर रहा करते थे। वह जब भी उन्हें सोने के लिए आग्रह करते तो बाबा साहब का जवाब होता, 'मेरे पास न खाने के लिए पैसा है, न सोने के लिए समय। मुझे तो बस अपनी पढ़ाई जल्द से खत्म करनी है।

उन्होंने शेक्सपियर के नाटक की कुछ पंक्तियां उद्धृत करते हुए कहा था कि, 'जीवन में अवसरों का समुद्र लहराता है। यदि वह उन अवसरों का सही उपयोग करे तो उस व्यक्ति को गरिमा प्राप्त होती है।' सामाजिक बुराइयों का रोग निदान करते हुए वे कहते हैं, 'माता-पिता अपनी संतान के केवल जन्मदाता हैं, वे उसके भाग्य दाता नहीं हैं। इस दैवी विधान को हमें तिलांजलि देनी होगी। हमें अपने मन में पक्की गांठ बांध लेनी चाहिए कि संतान का भवितव्य माता-पिता के हाथ में है। बेटों के समान ही अपनी बेटियों को भी लिखाया-पढ़ाया जाए तो हमारा विकास तीव्र गति से हो सकता है, यह निश्चय है।' बड़ौदा नरेश की बड़ी इच्छा थी कि वे अंबेडकर को अपनी रियासत का अर्थशास्त्री बनाएं, ताकि उन्हें अन्य विभागों का प्रशासनिक अनुभव हो सके। इस दृष्टि से उन्होंने अंबेडकर को अपना मिलिट्री सचिव बनाया, किंतु इतने ऊंचे पद पर आसीन अधिकारी को वहां के क्लर्क, मुंशी, यहां तक कि अर्दली भी दूर से फाइल फेंक कर दिया करते थे। दफ्तर में उन्हें पीने के लिए पानी भी नहीं मिलता था, इसलिए खाली समय में वह लाइब्रेरी में जा बैठते और मन को बहलाने की कोशिश करते। इस तरह अपमान का घूंट पीते हुए वे काम करते रहे। उन्हें हर दिन ऐसा अपमान कचोटता रहता। वे निम्न जाति के समाज से संबंध रखने वाले लोगों के बारे में सोचते कि इतनी शिक्षा-दीक्षा एवं पद प्राप्त करने के बाद जब उनका ऐसा अपमान होता है तो आम दलित वर्गों के लोगों के साथ क्या होता होगा। इस सोच से द्रवित हो जाते तथा घंटों सोचते रहते। 21 मार्च 1926 को छत्रपति शाहू जी महाराज ने अस्पृश्यों की एक परिषद की बैठक में बाबा साहब के बारे में कहा था कि, 'आप लोगों को अंबेडकर के रूप में उद्धार करने वाला मिल गया है। वह आप की बेडि़यों को तोड़कर रहेगा।
इस बात का मुझे पूरा भरोसा है। केवल इतना ही नहीं, भारत के महान नेताओं की श्रेणी में इसका विशिष्ट स्थान रहेगा।' बाबा साहब ने दलित समाज के लोगों में आत्म सम्मान जागृत करने के लिए जीवन भर प्रयास किए। 25 दिसंबर 1927 को एक सभा में जहां उन्हें सम्मिलित होना था, वे यह देखकर हैरान हुए कि उनके सम्मान में विशेष पकवान बनाए गए हैं। उन्होंने कहा, 'मुझे आप सब का मन चाहिए, मनपसंद भोजन की यह शानदार तैयारी, ये फूलों के हार सब निरर्थक हैं।' एक जनवरी 1928 को बाबा साहब ने महाड़ की नगर पालिका के अध्यक्ष के साथ 'चवदार' (स्वादिष्ट जल वाले) तालाब का चक्कर लगाया। क्योंकि उन्हें मालूम था कि दलितों के लिए यह पानी सुलभ नहीं है, उन्होंने मन में ठानी और एक सभा में लोगों को संबोधित करते हुए कहा, 'अगर हमने चवदार तालाब का पानी नहीं पिया तो हमारी जान के लाले पड़ जाएंगे, ऐसी कोई बात नहीं है, हम तो यह दिखा देना चाहते हैं कि औरों की तरह हम भी इनसान हैं।' उन्होंने आगे कहा कि 'इनसान जन्म से समान पैदा होते हैं और मरने तक उन्हें समान ही रहना चाहिए।' बाबा साहब ने अस्पृश्यों के लिए स्वतंत्रता से पूर्व ही अनेकों अधिकार दिलवाए थे जिनमें से मताधिकार विशेष महत्त्व रखता है। उन्होंने कहा था, 'यदि मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों को स्वतंत्र मतदार संघ मिल जाने से देश विभक्त नहीं होता है तो अस्पृश्यों को मिल जाने से किस तरह विभक्त हो जाएगा?' फिर उन्होंने यह भी सारगर्भित बात कही, 'इस देश में अनेक महात्मा लोग कल्याण के लिए जन्मे और सिधार गए, मगर अस्पृश्य समाज फिर भी जैसा था वैसा ही है।'
डा. राजन तनवर
एसोसिएट प्रोफेसर


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