सम्पादकीय

मुख्यमंत्री के पैर छूने वाले 'चरण चुंबक' के बहाने नेहरू, इंदिरा और महावीर त्यागी की कहानी

Gulabi
27 Jun 2021 5:47 AM GMT
मुख्यमंत्री के पैर छूने वाले चरण चुंबक के बहाने नेहरू, इंदिरा और महावीर त्यागी की कहानी
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चापलूसी एक अरसे से व्यक्तिगत और संस्थागत स्वभाव बन चुकी है

पिछले दिनों जब सिद्दीपेट के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (Telangana Cm K. Chandrashekar Rao) के पैर छू लिए तो इस पर काफी विवाद हुआ. खुद कलेक्टर वेंकटराम रेड्डी (Collector venkat reddy) ने कहा कि 'इसमें गलत क्या है, मुख्यमंत्री पिता के समान हैं'. ट्विटर पर किसी ने टिप्पणी की 'कलेक्टर वेंकटराम रेड्डी के हौसले की दाद देनी होगी.' वाकई भरी सभा में जब आप कोई ऐसा आचरण करते हैं जो उम्मीद से परे हो तो ये बिना दुस्साहस के संभव नहीं है.


भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के मुताबिक जब एक आईएएस अधिकारी 'निष्ठा की शपथ' लेता है तो उसे कहना पड़ता है- 'मैं शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं कि भारत और विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और सच्ची निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा तथा मैं अपने पद के कर्तव्यों का राजभक्ति, ईमानदारी और निष्पक्षता से पालन करूंगा.'
चापलूसी एक अरसे से व्यक्तिगत और संस्थागत स्वभाव बन चुकी है
हालांकि, सिद्दीपेट के कलेक्टर ने संविधान के बदले मुख्यमंत्री के प्रति 'श्रद्धा और सच्ची निष्ठा' का आचरण प्रदर्शित किया, इसे लेकर दो तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है. पहली ये कि ऐसे अफसर 'कर्तव्यों का ईमानदारी और निष्पक्षता से पालन' करेंगे, इसे लेकर समाज को संदेह होगा. दूसरी प्रतिक्रिया ये कि ऐसी आदतों को 'न्यू नॉर्मल' मानकर स्वीकार कर लिया जाए. आए दिन ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जिनमें देखा जाता है कि मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों और बड़े नेताओं के आगे पीठ झुकाने को लोग तत्पर दिखाई देते हैं.

इनमें राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं से लेकर फिल्म स्टार, कलाकार और साहित्यकार तक शामिल हैं. वर्ष 2015 में एक बड़े साहित्यकार यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (CM Akhilesh Yadav) के हाथों सम्मान लेने गए तो उल्टे माननीय मुख्यमंत्री को ही सम्मानित करते हुए उनके आगे धनुषाकार हो गए. ये तो सिर्फ एक उदाहरण है. आपको हर देश-काल में 'खैनी बनाते' और 'चप्पल उठाते' ऐसे कई किरदार मिल जाएंगे. सीधी और सरल बात ये है कि चापलूसी एक अरसे से व्यक्तिगत और संस्थागत स्वभाव का रूप ले चुकी है. कोई इसे ज़रूरी मनता है तो कोई मजबूरी.

जब नेहरू से कहा गया, दरबारियों से संभलिए
मुमकिन है चापलूसों को अलग-अलग देशकाल में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हो. इसी संदर्भ में एक शब्द 'चरण चुंबक' भी है. वर्ष 2013 के जुलाई महीने में इतिहासकार माधवन पालत के संपादन में नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लायब्रेरी में रखे कुछ दस्तावेज़ों से जो 'सेलेक्टेड वर्क्स' सामने आए, वो काफी रोचक हैं. इन दस्तावेज़ों में ऐसी कई चिट्ठियां भी शामिल हैं, जिनका जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) और तब के मंत्रियों या दूसरे राजनेताओं के बीच आदान-प्रदान हुआ. ऐसी ही एक चिट्ठी 1959 की है, जो देहरादून के सांसद महावीर त्यागी (MP Mahavir Tyagi) ने पंडित नेहरू को लिखी थी. (महावीर त्यागी यानि वही कांग्रेस लीडर (Congress Leader) जिन्होंने 5 दिसंबर, 1961 को अक्साई चीन के मसले पर संसद की एक डिबेट में नेहरू के सामने कहा था कि 'मेरे सिर पर भी बाल नहीं हैं, तो क्या इसकी कोई कीमत नहीं है.' त्यागी ने नेहरू के उस बयान का जवाब दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अक्साई चीन के इलाके में तो पेड़ भी नहीं उगते) 2 फरवरी, 1959 को इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) चुने जाने से ठीक पहले त्यागी ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर कहा कि अपने आसपास मौजूद 'चरण चुंबकों से सावधान रहें'.

इस चिट्ठी में उन्होंने नेहरू को आगाह करते हुए कहा कि 'मुगल काल में दरबारी लोग राजकुमारों को राजा के विरुद्ध षडयंत्र का मोहरा बनाते थे.' उन्होंने आगे लिखा कि, 'आपके चहेतों ने कांग्रेस अध्यक्ष के लिए भोली-भाली इंदु का नाम प्रस्तावित कर दिया और आपने बिना पलक झपकाए इसे स्वीकार भी कर लिया, इस गलतफ़हमी में मत रहिएगा कि इंदु को ये समर्थन उनके व्यक्तित्व की वजह से मिला है, ये शत प्रतिशत आपको खुश करने के लिए किया गया है.' इसके जवाब में नेहरू ने जो चिट्ठी लिखी, वो स्वाभाविक है- 'आपका ये कहना सही नहीं है कि मैं दरबारियों से घिरा हुआ हूं, ना तो मेरा कोई दरबार है और ना ही मैं ऐसी चीजें पसंद करता हूं'. खैर, ये चिट्ठियां 'चरण-चुंबकत्व' के बोझ तले दबी रह गईं. 2 फरवरी 1959 को कांग्रेस के दिल्ली सम्मेलन में एस निजलिंगप्पा ने अध्यक्ष पद की रेस से अपना नाम पास ले लिया, कुंभाराम का नामांकन अवैध घोषित कर दिया गया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष चुन ली गईं.

कुछ लोगों का 'प्रभामंडल' ही ऐसा होता है?
ये राजनीतिक घटना इस बात का उदाहरण है कि चापलूसी का वायरस एक ज़माने से हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में मौजूद है. परिस्थितियों के मुताबिक ये म्यूटेट भी करता रहता है और इसके कई वेरिेएंट भी बन चुके हैं. कहने का मतलब ये कि जो 'चरण-चुंबकत्व' सिद्दीपेट के कलेक्टर ने मुख्यमंत्री के पैरों में गिरकर दिखाई उसके प्रदर्शन के कई दूसरे तरीके भी ईजाद किए जाते रहे हैं. महावीर त्यागी ने जो बात नेहरू से कही, वही बात त्रेता युग में विभीषण ने भी लंका के राजा को समझाते हुए कही थी. तुलसीदास 500 वर्ष पहले ही लिख गए हैं 'सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास.' यानि मंत्री, वैद्य और गुरु अगर राजा की चापलूसी करने लगेंगे तो राज्य, शरीर और धर्म तीनों का शीघ्र नाश हो जाएगा.

'सीकरी' को ठुकराने का नैतिक बल आप में है?
बात फिर एक बार सिद्दीपेट के कलेक्टर की. कुछ लोग कहते हैं कि अगर आपको कोई इतना ही पितृवत लगता है तो उसके घर जाकर या निजी तौर पर आशीर्वाद ले लेने में कोई हर्ज़ नहीं है. लेकिन, कई बार ये तर्क भी दिया जाता है कि कुछ लोगों का 'औरा' (प्रभामंडल) ही ऐसा होता है कि वो आपको खींचने लगते हैं, आप उनके सामने झुके बिना नहीं रह सकते. लेकिन, यहीं पर ये सवाल भी खड़ा होता है कि अगर ऐसा चमत्कारी प्रभामंडल सिर्फ 'बड़े' लोगों के ही इर्दगिर्द बन रहा होता तो नानक, कबीर, दादू, रैदास, चैतन्य महाप्रभु कब के भुला दिए गए होते. फटी हुई पगड़ी और पैरों में बिवाई लेकर अकबर के दरबार में फतेहपुर सीकरी पहुंचे उस कुंभनदास को भी भला बार-बार क्यों याद किया जाता, जिन्होंने अकबर के सामने खड़े होकर कह दिया था- 'संतन को कहा सीकरी सो काम'. इसलिए आप अगर 'चरण चुंबकत्व' में पारंगत नहीं हैं तो भी निराश होने की कतई ज़रूरत नहीं है. बस इतना याद रखिए 'सीकरी' को ठुकराने का नैतिक बल आपके अंदर होना चाहिए.
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