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विजय प्रकाश श्रीवास्तव: यदि किसी छोटे, अल्पविकसित देश के विद्यार्थी अपने देश में उच्च शिक्षा की सुविधा की कमी के कारण दूसरे देशों का रुख करें तो बात समझ में आती है, किंतु भारतीय विद्यार्थियों का पढ़ाई के लिए और वह भी इतनी बड़ी संख्या में, बाहर जाना कई मायनों में गले नहीं उतरता। देश में मेडिकल की सीटें पर्याप्त संख्या में होतीं तो हमारे बच्चों को बाहर नहीं जाना पड़ता और देश के पास अच्छी संख्या में काबिल डाक्टर भी होते।
भारत में शिक्षा की जो स्थिति है, उसे लेकर बार-बार चिंता व्यक्त की जाती रही है। चाहे स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, दोनों में आदर्श स्थिति से हम अभी दूर हैं। यूक्रेन में भारतीय विद्यार्थियों के फंसने की लगातार खबरें आने के बाद यह सवाल बहुतों के जेहन में उठा कि आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश के विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए हजारों की संख्या में साढ़े चार करोड़ की आबादी के यूक्रेन जैसे छोटे देश में क्यों जाया करते हैं? इस सवाल का उत्तर भी लोगों को मिल गया है कि इसलिए कि वहां पढ़ाई भारत की तुलना में काफी सस्ती है।
स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष पूरे होने के मौके पर हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। हमने इस विशाल अवधि में बहुत-सी उपलब्धियां हासिल की हैं, पर हम अभी भी यह सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं कि देश का हर बच्चा स्कूल जाने लगे। एक तरफ महंगे और आधुनिक सुविधाओं से संपन्न स्कूलों की संख्या में वृद्धि हो रही है, तो दूसरी तरफ गांव-देहात में ऐसे सरकारी स्कूल हैं जिनमें छत तक नहीं है या बुनियादी सुविधाएं नहीं है या शिक्षकों की भारी कमी है। उच्च शिक्षा को लें, तो पिछले दो दशकों में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, पर समग्र रूप से उच्च शिक्षा की स्थिति क्या बेहतर हुई है,यह विचारणीय प्रश्न है।
इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि पढ़ने की लगन रखने वाले प्रत्येक प्रतिभावान विद्यार्थी को अपनी पसंद के विषय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध होना चाहिए और इस पर आने वाली लागत एक आम व्यक्ति की पहुंच के भीतर होनी चाहिए। पर दुर्भाग्य से हम दोनों ही मोर्चों पर विफल रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा को ही लें। इसमें कोई संदेह नहीं कि चिकित्सा विज्ञान जैसे पाठ्यक्रमों में आंख मूद कर प्रवेश नहीं दिया जा सकता, पर ऐसा भी तो नहीं होना चाहिए कि सीट की कमी के कारण उन विद्यार्थियों को भी निराश होना पड़े जो अन्य सभी प्रकार से इस शिक्षा के योग्य हैं।
आज आलम यह है कि देश में एमबीबीएस के लिए नीट नामक परीक्षा में बहुत ऊंची रैंक रखने वालों को ही प्रवेश मिल पाता है, पर रैंक अच्छी न भी हो और पैसा भरपूर हो तो कुछ विद्यार्थी प्रबंधन कोटे से प्रवेश हासिल कर लेते हैं। निजी मेडिकल कालेजों में दान (डोनेशन) का रिवाज भी खूब है। ऐसे में सीमित आय वाला वर्ग अपने बच्चों को डाक्टर बनाने के लिए अन्य रास्तों की तलाश करता है। इन्हीं में से एक रास्ता पढ़ाई के लिए उन्हें चीन, रूस और यूक्रेन आदि देशों में भेजने का है।
भारत दुनिया के उन देशों में से है जहां से सबसे अधिक विद्यार्थी पढ़ने के लिए बाहर जाते हैं। यदि किसी छोटे, अल्पविकसित देश के विद्यार्थी उनके अपने देश में उच्च शिक्षा की सुविधा की कमी के कारण दूसरे देखों का रुख करें तो बात समझ में आती है, किंतु भारतीय विद्यार्थियों का पढ़ाई के लिए और वह भी इतनी बड़ी संख्या में, बाहर जाना कई मायनों में गले नहीं उतरता। देश में मेडिकल की सीटें पर्याप्त संख्या में होतीं तो हमारे बच्चों को बाहर नहीं जाना पड़ता और देश के पास अच्छी संख्या में काबिल डाक्टर भी होते।
अमेरिका, ब्रिटेन,आस्ट्रेलिया और कनाडा उन देशों में से हैं जो बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को आकर्षित करते हैं। मेडिकल की पढ़ाई के विशेष संदर्भ से बाहर बात करें तो पढ़ाई के लिए विदेश जाने वालों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में रखा जा सकता है। एक वर्ग उन अमीरों का है जिनके लिए अपने बच्चे को बाहर पढ़ाना प्रतिष्ठा और दिखावे से जुड़ा है। दूसरा वर्ग विशेषज्ञता के उन क्षेत्रों में पढ़ाई करने जाता है जो भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं हैं या जिनमें हम थोड़ा पीछे हैं। एक और वर्ग बाहर पढ़ाई कर, फिर वहीं नौकरी या काम ढूंढ़ कर देश न लौटने के इच्छुक लोगों का है।
भारत में उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले कई बेहतरीन संस्थान हैं जहां से पढ़ाई करने वालों की बाहर खासी मांग है। माइक्रोसाफ्ट हो या नासा, इन सभी में भारतीय प्रतिभाओं का खूब बोलबाला है। हमारे आइआइएम, आइआइटी को दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस को 2021 में विश्व के शीर्षस्थ शोध विश्वविद्यालय का दर्जा मिला है। पर हमारे देश का जो आकार है, उसके अनुपात में ऐसी गुणवत्तापूर्ण संस्थानों की संख्या काफी कम है। यहां तक होता तो ठीक था, व्यापक रूप से उच्च शिक्षा की स्तरहीनता और शिक्षा का व्यवसायीकरण कहीं ज्यादा चिंताजनक है।
सरकार द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में से अधिकांश ने कम से कम अपना औसत स्तर बनाए रखा है, पर बहुत से निजी विश्वविद्यालयों के लिए यह नहीं कहा जा सकता। भले ही ये विश्वविद्यालय भारी-भरकम फीस वसूलते हों, उनके पास शानदार भवन और ढांचा हो, पर उनका जो वास्तविक कार्य है, उसमें वे खरे नहीं उतरते। इसके लिए कई कारण गिनाए जा सकते हैं। शिक्षा की गुणवत्ता के लिए शिक्षकों की गुणवत्ता भी उतनी ही जरूरी है, पर अभी की स्थिति में शिक्षण एक वरीय पेशा नहीं है। ज्यादातर लोग शिक्षक बनने का विकल्प तब चुनते हैं जब उनके सामने कोई और विकल्प नहीं रह जाता।
फिर, शिक्षक वर्ग का शोषण भी भरपूर हो रहा है। सरकारी शिक्षण संस्थानों में नियमित शिक्षक तो ठीक-ठाक वेतन पाते हैं, पर बहुत से निजी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में उन्हें काफी कम वेतन मिलता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में कई निजी महाविद्यालयों में व्याख्याता सात-आठ हजार रुपए महीने पर कार्य कर रहे हैं। शिक्षा जगत में ऐसे उदाहरण भी सुनने को मिलते रहे हैं जिनमें हस्ताक्षर किसी और राशि के लिए कराए जाते हैं, जबकि भुगतान इससे कम राशि का किया जाता है। विद्यार्थियों से अधिक से अधिक शुल्क वसूलना और शिक्षकों को कम से कम भुगतान करना तमाम संस्थानों के लिए लाभ कमाने का एक नया माडल बनाता जा रहा है।
शिक्षा को रोजगार से जोड़ने में कोई हर्ज नहीं है, पर जब यहां पूरी तरह से गणितीय दृष्टिष्टिकोण अपना कर यह हिसाब लगाया जाने लगे कि पढ़ाई पर किया गया खर्च कितने समय में वसूल होगा, तो यह शिक्षार्थियों को उनके वास्तविक उद्देश्य से भटका सकता है। ऐसे मामलों से आपका भी साबका पड़ा होगा जिनमें डाक्टर का असली ध्यान बीमार का अच्छी तरह इलाज करने की बजाय उससे व उसके परिजनों से अधिक से अधिक पैसा वसूलने पर होता है।
विषयों के चयन के मामले में भी उच्च शिक्षा को हमने जकड़नों में बांध रखा रखा है। बदलते समय के साथ इसे और उदार बनाने की जरूरत है। इसी प्रकार पाठ्यक्रमों से अनुपयोगी तथा निरर्थक विषयवस्तु को हटाना होगा ताकि न तो पढ़ने वालों और न ही पढ़ाने वालों की ऊर्जा तथा समय का नुकसान हो।