सम्पादकीय

एक जगह टिका हुआ तो पानी भी सड़ जाता है, फिर संस्‍कृति कैसे शुद्ध रह सकती है

Shiddhant Shriwas
20 Oct 2021 12:06 PM GMT
एक जगह टिका हुआ तो पानी भी सड़ जाता है, फिर संस्‍कृति कैसे शुद्ध रह सकती है
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आप भाषा को लेकर ऐसी शुद्धता बरतेंगे तो अपने दिल का हाल किसे सुनाएंगे, आदमी को क्‍या कहकर बुलाएंगे. सांस लेंगे या नहीं लेंगे, प्‍यार करेंगे या नहीं करेंगे

मनीषा पांडेय

जिन-जिन लोगों को फैब इ‍ंडिया के नए विज्ञापन की टैग लाइन 'जश्‍न-ए-रिवाज' देखने भर से मियादी बुखार ने जकड़ लिया है और जिन-जिन लोगों को इसमें हिंदू संस्‍कृति, हिंदू त्‍योहार, हिंदी भाषा आदि-आदि के खिलाफ किसी साजिश की बू आ रही है, फर्ज करिए कि उनके दिल का अरमान पूरा ही हो जाए. क्षमा कीजिएगा, भाषा में थोड़ा परिवर्तन करके कहती हूं- कल्‍पना करिए कि उनके मन की अभिलाषा पूर्ण हो जाए. एक बड़ी सी झाडू लेकर हिंदी से अरबी-फारसी के सारे शब्‍दों को बुहार दिया जाए. सिर्फ हिंदी के शब्‍द ही लिखे, बोले, उच्‍चारे जाएं, अरबी-फारसी के शब्‍दों का इस्‍तेमाल गुनाह-ए-अजीम (मेरा मतलब है कि महापाप) हो तो क्‍या होगा.
अरबी-फारसी से पीछा छुड़ाएंगे तो किस-किस चीज से पीछा छुड़ाना होगा. चलिए एक नजर डालते हैं उन तमाम शब्‍दों पर.
ये जो बड़ी मोहब्‍बत से समोसा भकोसते हैं न आप, ये शब्‍द फारसी भाषा का है. मिडिल ईस्‍ट से आया है. और जलेबी का क्‍या करेंगे? जलेबी तो शब्‍द हिंदी का है और न ही ओरिजिनल डिश हिंदुस्‍तान की. जलेबी शब्‍द अरबी के जलाबिया से बना है. जानते हैं, सबसे पहले जलाबिया की खोज कहां हुई थी- तुर्की में. वहां से ये लजीज मीठा व्‍यंजन पहुंचा ट्यूनीशिया. ट्यूनीशिया से किर्गिजिस्‍तान, उज्‍बेकिस्‍तान और वहां से अफगानिस्‍तान के रास्‍ते होता हुआ हिंदुस्‍तान तक आया. आज पूरी दुनिया में जलेबी एक जानी-मानी स्‍वीट डिश है. ईरान में जोलबिया के नाम से जानी जाने वाली जलेबी तो हर तीज-त्‍योहार, शादी-ब्‍याह के मुबारक मौके का अनिवार्य मीठा भोज है.
जो जलेबी तुर्की से आई हो, ईरान का मुबारक खाना हो और शब्‍द भी हिंदी नहीं, फारसी भाषा का हो, वो जलेबी अब न जाने इनके गले के नीचे ढंग से उतरे भी या नहीं. खैर, देख लीजिए. नहीं खाएंगे तो अच्‍छा ही है. डायबिटीज नहीं होगी.
जलेबी के बाद अब गुलाब जामुन भी प्‍लेट से निकाल ही दें तो बेहतर है. तौबा-तौबा, शब्‍द तो फारसी भाषा से आया है, डिश भी वहीं फारस से चलकर हिंदुस्‍तान आई थी.
गुलाब शब्‍द अरबी के दो शब्‍दों के मेल से बना है. एक गुल और दूसरा आब. गुल का अर्थ है फूल और आब का अर्थ है पानी. गुलाब मतलब गुलाब के फूल का पानी यानी रोज वॉटर. रोज वॉटर सीरप गुलाब जामुन की रेसिपी का मुख्‍य इंग्रेडिएंट होता है, जहां से इसका नाम पड़ा. जामुन शब्‍द हिंदी का ही है, जो यहां पाए जाने वाले एक बहुत स्‍वादिष्‍ट और बहुत पौष्टिक फल का नाम है. फारसी और हिंदी भाषा के दो शब्‍दों के अनोखे मेल से बने इस मीठे गुलाब जामुन का नाम भले हिंदुस्‍तान में पड़ा हो, लेकिन ओरिजिनली ये आया तो ये ईरान से है.
हालांकि गुलाब जामुन के ओरिजिन को लेकर कई कहानियां हैं. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि मुगल सम्राट शाहजहां के शाही खानसामे ने संयोग से गुलाब जामुन की खोज कर ली. बना तो वो तुलुंबा रहा था, जो ईरान की एक स्‍वीट डिश है और जिसकी रेसिपी गुलाब जामुन से काफी मिलती-जुलती है. लेकिन वो कुछ नया ही बना बैठा, जिसका नाम आगे चलकर गुलाब जामुन पड़ गया.
फिलहाल तुर्की बामियाह और ईरान में तुलुंबा के नाम से जानी जाने वाली ये मीठी और दिलों को जीत लेने, जोड़ देने वाली मुहब्‍बत भरी डिश गुलाब जामुन उसी संस्‍कृति, इतिहास, लंबी यात्रा और साझी विरासत की याद दिलाती है, जो हम सब इंसानों की सबसे बड़ी थाती है. हमारे जीवन का सरमाया.
आप भाषा को लेकर ऐसी शुद्धता बरतेंगे तो बिरयानी का क्‍या करेंगे, कबाब को क्‍या कहकर बुलाएंगे. मेज को क्‍या कहेंगे, दुकान जाएंगे या नहीं जाएंगे, अपने दिल का हाल किसे सुनाएंगे, आदमी को क्‍या कहकर बुलाएंगे. सांस लेंगे या नहीं लेंगे, प्‍यार करेंगे या नहीं करेंगे. हक जताएंगे, सुख मनाएंगे, अश्‍क बहाएंगे, इंतजार करेंगे या ये सब करना छोड़ देंगे क्‍योंकि ये सब अरबी-फारसी के शब्‍द हैं, जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे शामिल हैं, जैसे समंदर के पानी में घुला होता है नमक. हमारे हरेक वाक्‍य में चार शब्‍द अरबी-फारसी के होते हैं. हजार-बारह सौ शब्‍दों के इस पूरे आर्टिकल में 400 शब्‍द अरबी-फारसी के हैं. उन शब्‍दों के बगैर इसे कैसे लिखेंगे, कैसे जिएंगे, सांस कैसे लेंगे हुजूर.
बात भाषा और खाने से शुरू हुई थी तो उसी पर खत्‍म करूंगी. अगर आप फूड साइंटिस्‍ट, फूड हिस्‍टॉरियन या फूड एंथ्‍यू नहीं भी हैं तो हमारी थाली में परोसे जाने वाले मुख्‍य भोजन, जैसेकि रोटी, चावल, करी, पुलाव आदि का इतिहास खोजकर देख लीजिए. आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि पूरी दुनिया में हर इंसान की प्‍लेट का प्रमुख भोजन तकरीबन एक जैसा ही है. तुर्की का पिलाफ हमारा पुलाव है, ईरान की बिरयानी है, जर्मनी की एलरेप्‍साइस है, स्‍पेन का पाएला है, अर्जेंटीना का चिमीचुरी है और सऊदी अरब का मोफ्ताह अल दजाज है. सब एक ही है. बनाने का तरीका भी तकरीबन एक जैसा ही है. कुल स्‍थानीय मसाले और हर्ब्‍स अलग हैं, कुछ स्‍वाद और महक अलग है, लेकिन यकीन मानिए आत्‍मा एक ही है.
अपनी सारी विभिन्‍नताओं, अलग देश, अलग भाषा, अलग रूप-रंग, अलग रिवाजों के बावजूद इतना ही समानता और एकरूपता लिए हुए है इंसान. सबकुछ एक-दूसरे में इतना समाया हुआ है कि इतिहास और जड़ें खोजने जाएंगे तो कुछ भी ऐसा नहीं मिलेगा, जिस पर संसार की अन्‍य भाषाओं, संस्‍कृतियों, मुल्‍कों की छाया न हो.
न इंसान, न भाषा, न संस्‍कृति और न इतिहास, कुछ भी एक जगह टिककर रहने वाली चीज नहीं है. वो लगातार एक यात्रा में है. एक जगह से चलकर दूसरी जगह जा रही है. वो नई जगह पर अपना कुछ अपना प्रभाव छोड़ती है, कुछ उसका ग्रहण कर लेती है. इसी लेने और देने के साथ बढ़ती है मनुष्‍यता की यात्रा. इंसान का पिछले दो हजारों का इतिहास एक जगह टिके रहने का इतिहास नहीं है. वो नई यात्राओं, नई खोजों का इतिहास है.
एक जगह टिका हुआ तो पानी भी सड़ जाता है. फिर संस्‍कृति कैसे शुद्ध रह सकती है. इतिहास गवाह है, शुद्धता की चाह रखने वाले इतिहास में बिला गए. वही जिंदा रहा, जिसने लिया और दिया, जो दूसरे में समाहित हुआ, दूसरे को खुद में समाहित किया, जिसने अपनाया और गले लगाया. जिसने प्‍यार किया और बदले में प्‍यार पाया. उसने नहीं, जिसे लगता था कि वही सबसे श्रेष्‍ठ, सबसे शुद्ध है


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