- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- Sri Lanka Crisis :...
सम्पादकीय
Sri Lanka Crisis : श्रीलंका की मौजूदा स्थिति में भारत इस क्षेत्र में अपनी खोई शक्ति दोबारा हासिल कर सकता है
Gulabi Jagat
12 May 2022 8:41 AM GMT
x
श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे बुधवार को सत्तारूढ़ पार्टी के असंतुष्टों
जी प्रमोद कुमार |
श्रीलंका (Sri Lanka Crisis) के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) बुधवार को सत्तारूढ़ पार्टी के असंतुष्टों और मुख्य विपक्षी एसजेबी के साथ प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapaksa) के इस्तीफे के बाद राजनीतिक गतिरोध को खत्म करने के लिए बातचीत करेंगे. करीब दो दिन के राजनीतिक गतिरोध के बाद श्रीलंका के लोग महिंदा राजपक्षे के उत्तराधिकारी की खोज और नियुक्ति करने के लिए लंबी बातचीत में लगे हुए हैं. 76 साल के महिंदा ने देश में अभूतपूर्व आर्थिक उथल-पुथल के बीच सोमवार को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उनके समर्थकों के सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के कुछ घंटे बाद अधिकारियों को देश भर में कर्फ्यू लगाना पड़ा और राजधानी में सेना के जवानों को तैनात करना पड़ा.
इस हमले के कारण राजपक्षे समर्थक राजनेताओं के खिलाफ व्यापक हिंसा शुरू हो गई. महिंदा राजपक्षे के श्रीलंका के पीएम पद से हटने के एक दिन बाद वहां पर अफवाह फैली कि 76 साल के महिंदा अपने परिवार वालों के साथ भारत आ गए हैं. हालांकि भारतीय उच्चायोग ने इन खबरों का खंडन किया है. श्रीलंका के प्रधानमंत्री के रूप में महिंदा राजपक्षे के पद छोड़ने के एक दिन बाद ऐसी खबरें आई हैं कि वे अपने परिवार के सदस्यों के साथ भारत भाग गए हैं. हालांकि, श्रीलंका में भारतीय उच्चायोग ने मंगलवार (10 मई, 2022) को स्थानीय सोशल मीडिया की अटकलों को "फर्जी और स्पष्ट रूप से गलत" करार दिया कि शक्तिशाली राजपक्षे परिवार भारत में हैं.
श्रीलंका एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट से गुजर रहा है
"उच्चायोग ने हाल ही में मीडिया और सोशल मीडिया में फैल रही अफवाहों को देखा है जिसमें कुछ राजनीतिक व्यक्ति और उनके परिवार वालों के भारत आने की बात है. ये फर्जी और स्पष्ट रूप से झूठी रिपोर्ट है जिसमें कोई सच्चाई या सार नहीं है. उच्चायोग दृढ़ता से उनका खंडन करता है," श्रीलंका में भारतीय उच्चायोग ने बयान जारी किया. भारतीय उच्चायोग ने बुधवार को नई दिल्ली के कोलंबो में अपने सैनिकों को भेजने के कयास को लेकर मीडिया रिपोर्टों का भी स्पष्ट रूप से खंडन किया और कहा कि भारत श्रीलंका के लोकतंत्र, स्थिरता और आर्थिक सुधार का पूरा समर्थन करता है.
"उच्चायोग मीडिया और सोशल मीडिया में श्रीलंका में अपनी सेना भेजने के बारे में कयास लगाती हुई रिपोर्टों का, भारत स्पष्ट रूप से खंडन करना चाहेगा. ये रिपोर्ट और इस तरह के विचार भी भारत सरकार के स्टैंड के मुताबिक नहीं हैं," भारतीय उच्चायोग ने ट्विटर पर कहा. आज जब श्रीलंका एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट से गुजर रहा है जिससे राजनीतिक संकट के साथ अशांति फैल गई है और जिसके लंबे समय तक चलने की आशंका है, भारत के लिए बड़ा सवाल यह है कि क्या वह श्रीलंका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोई खतरा है और पड़ोसी देश की स्थिति को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए उसके पास क्या विकल्प हैं.
भारत 1970 के दशक से लंबे समय से श्रीलंका में राजनीतिक या जातीय-राजनीतिक मुद्दों में फंसा रहा है, जब उसने कथित तौर पर सिंहली राष्ट्रीय आधिपत्य का विरोध करने वाले जातीय तमिल समूहों का समर्थन करना शुरू कर दिया. 1987 के श्रीलंका समझौते और आईपीकेएफ की असफलता के बावजूद भारत अब भी किसी न किसी तरह से द्वीप राष्ट्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है.
भारत फिर से श्रीलंका के लोगों का पसंदीदा बन गया
1950 के दशक के उत्तरार्ध से चीन की श्रीलंका में की गई गहरी पैठ के कारण भू-राजनीतिक रूप से भारत अपने पड़ोसी देश की इस त्रासदी से खुद को दूर नहीं रख सकता. 2000 के दशक के अंत में लिट्टे के साथ संघर्ष के अंतिम चरण में श्रीलंका में चीनी मौजूदगी काफी ज्यादा हो गई, जब चीन ने श्रीलंका की सेना को हथियार और गोल-बारूद से मदद की. संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय मंचों पर भी चीन ने श्रीलंका के हितों की रक्षा की. राजपक्षे के आने के बाद से श्रीलंका चीन की बेल्ट एंड रोड का हिस्सा बना और बुनियादी ढांचे के लिए चीन श्रीलंका को ऋण देने वाला एक प्रमुख देश बन गया.
असल में, आर्थिक संकट के सामने आने तक चीन के साथ श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंध अपने चरम पर रहे. श्रीलंका में कुछ बड़े बुनियादी ढांचे और परियोजनाएं चीनी ऋणों से ही बनाई गई हैं. इस वजह से संघर्ष के बाद के पुनर्निर्माण के लिए अपने पूरे समर्थन के बावजूद, भारत को भू-राजनीतिक स्तर पर श्रीलंका में वह महत्व नहीं मिला जिसका वह हकदार था. राजपक्षे के लिए चीनी धन, प्रौद्योगिकी और वैश्विक प्रभाव भारत की तुलना में रणनीतिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण हो गया. मालदीव में भी यही कहानी दोहराई गई जिससे भारत हिंद महासागर को लेकर थोड़ा चिंतित हो गया.
हालांकि, जब ऋण और भुगतान संतुलन संकट श्रीलंका पर पड़ा तो उत्तेजित आम जनता, विपक्ष और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों की टिप्पणियों के लिए हमले का पहला लक्ष्य चीन बन गया. यद्यपि असलियत यह है कि चीन उन कई ऋणदाताओं में से एक था जिसने श्रीलंका को कंगाल बनाया. जापान की तुलना में श्रीलंका पर चीन का कम कर्ज है, मगर चीन को देश के सामने आने वाली हर परेशानी का मुख्य कारण माना गया. एक कारण चीनी सहायता में पारदर्शिता की कमी रही और दूसरा यह कि श्रीलंका का उधार लिया गया ज्यादातर धन व्यर्थ की परियोजनाओं लगाया गया जो किसी के लिए कोई मायने नहीं रखतीं. जब चीन ने अपने कर्ज का पुनर्गठन करने और संकट से निपटने के लिए तत्काल सहायता करने से इनकार कर दिया तो भारत फिर से श्रीलंका के लोगों का पसंदीदा बन गया.
भारत श्रीलंका की सहायता के लिए आगे आया
श्रीलंका में यह बात आज आम है कि भारत को बुलाकर श्रीलंका को बचाओ, हालांकि द्वीप देश के संकट का पैमाना इतना बड़ा है कि उसे संभालना आसान नहीं है. फिर भी भारत श्रीलंका की सहायता के लिए आगे आया और जरूरी चीजों के आयात के लिए मदद के तौर पर स्वैप पेमेंट के रूप में तुरंत एक बिलियन अमेरिकी डॉलर ऋण की सहायता की पेशकश की. अप्रैल में भारत ने पांच सौ मीलियन अमेरिकी डॉलर भी दिए. जब भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने द्वीप का दौरा किया तो वहां उन्हें एक अकेला तारणहार माना जाता था. श्रीलंका की सिविल सोसाइटी – अर्जुन रणतुंगा जैसे राजनेताओं और जयसूर्या जैसे क्रिकेटर – एकमत थी कि वे मदद के लिए भारत की ओर देख रहे हैं. जाहिर है, जनता की आवाज चीनियों की जगह भारत के हस्तक्षेप के पक्ष में रही.
दुर्भाग्य से भारत केवल अल्पकालिक और अंशकालिक राहत प्रदान कर सकता है, क्योंकि श्रीलंका का विदेशी ऋण लगभग 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है और उसकी विदेशी मुद्रा भंडार सूख गई है. हालांकि श्रीलंका ने अपनी तरफ से ऋणों की अदायगी नहीं करने का फैसला किया है (लगभग 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर इस साल देय है). ऋणों का पुनर्गठन और वस्तुओं और ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार में अब भी बहुत सारे पैसे की आवश्यकता होगी जो केवल एक आईएमएफ के ऋण से संभव है. कथित तौर पर देश ने आईएमएफ के साथ बातचीत शुरू कर दी है लेकिन यह आसान नहीं होने वाला क्योंकि श्रीलंका के पास आईएमएफ के प्रस्तावित संरचनात्मक सुधारों को पचाने की कुब्बत नहीं है.
भारत निश्चित रूप से श्रीलंका की मदद कर सकता है
हालांकि भारत को भी 1991 में भुगतान संतुलन संकट का सामना करना पड़ा और उसे आईएमएफ से सहायता लेनी पड़ी. देश में उस वक्त एफडीआई लाने का पूरा अवसर था और फिर भारत एक बड़ा बाजार भी था. इसकी तुलना में श्रीलंका के लिए विकल्प सीमित हैं. हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि श्रीलंकाई प्रतिनिधि और आईएमएफ किस तरह से बेलआउट पैकेज तैयार करते हैं. वैसे भी श्रीलंका में करों को बढ़ाना होगा, सामाजिक क्षेत्र के खर्च को कम करना होगा और निजी निवेश और उत्पादन को बड़े पैमाने पर बढ़ाना होगा. क्या श्रीलंका की अर्थव्यवस्था और समाज में इसके लिए जगह और लचीलापन है? हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा. भारत निश्चित रूप से श्रीलंका को बुनियादी ढांचे और संरचनात्मक सुधारों में मदद कर सकता है.
भारत को इस वक्त नेकी दिखानी चाहिए और हिंद महासागर में अपने खोए हुए भू-राजनीतिक स्थान को दोबारा हासिल करना चाहिए. जनता के दिमाग में भारत रक्षक है और चीन खलनायक. श्रीलंका में जब भी कोई संकट आया है, भारत ने सबसे पहले मदद की है. हालांकि समय-समय पर रिश्तों में खटास आती रही है. इस बार भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि श्रीलंका अपने केवल "मुसीबत के साथी" वाले रवैये को न दोहराए बल्कि "भारत-प्रथम" वाली प्रतिबद्धता भी दिखाए. श्रीलंका को भारत काफी तकनीकी सहायता भी प्रदान कर सकता है क्योंकि वर्तमान संकट तकनीकी भी है जिसके लिए तकनीकी समाधान की आवश्यकता है.
सैन्य सहायता देने के मामले में भारत को दूर ही रहने की सलाह दी जाएगी क्योंकि श्रीलंका में जो प्रदर्शन कर रहे हैं उनका सरकार के प्रति गुस्सा सच्चा है. उन्हें लगता है कि उनके विश्वास को तोड़ा गया है. इसका एकमात्र समाधान राजनीतिक है जिसे श्रीलंका के वर्तमान शासन को स्वीकार करना होगा. सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों को सरकार-समर्थक भीड़ से टकरा देना और एक शांतिपूर्ण-आंदोलन को हिंसक विद्रोह में बदलना एक भयावह रणनीति है. इसका समर्थन करने से 1987 वाली स्थिति पैदा होगी क्योंकि तब एक औसत श्रीलंकाई इसे अपनी संप्रभुता के हनन के रूप में देखेगा जैसा श्रीलंका समझौते के वक्त हुआ था. इसके अलावा यह हिंद महासागर की भू-राजनीति को और अधिक अस्थिर बना देगा जिससे श्रीलंका में भारत को मिल रहा आम समर्थन विरोध में बदल जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Next Story