सम्पादकीय

Sri Lanka Crisis : राजपक्षे की मुश्किलें बढ़ने के बाद अब श्रीलंका में चीन का प्रभाव कम होने के संकेत

Rani Sahu
13 April 2022 2:43 PM GMT
Sri Lanka Crisis : राजपक्षे की मुश्किलें बढ़ने के बाद अब श्रीलंका में चीन का प्रभाव कम होने के संकेत
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श्रीलंका (Sri Lanka) का गंभीर आर्थिक संकट (Economic Crisis) अब एक राजनीतिक मोड़ ले रहा है

के वी रमेश

श्रीलंका (Sri Lanka) का गंभीर आर्थिक संकट (Economic Crisis) अब एक राजनीतिक मोड़ ले रहा है. वहीं दो एशियाई दिग्गजों, भारत और चीन (China) के बीच प्रतिद्वंद्विता के साथ एक उलझा हुआ त्रिकोण भी सामने आ रहा है, जिसमें तीसरा कोण श्रीलंका है. मार्च के अंतिम हफ्ते में भारत-श्रीलंका संबंधों में एक बड़ा बदलाव देखा गया. भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मार्च 28 और 29 को दो दिन का श्रीलंका दौरा किया. वहां उन्होंने बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC) में द्वीपक्षीय विदेश मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लिया. अतीत के अनुभव के विपरीत, जब भारत सरकार के अधिकारियों की यात्राओं को मीडिया और राजनीतिक दल दोनों ही संदेह की दृष्टि से देखते थे, इस बार ऐसा लगा कि जयशंकर की श्रीलंका यात्रा को राहत की नजर से देखा गया.
जयशंकर बिम्सटेक में स्टार रहे. अपने समकक्ष के अलावा, राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री महिंदा के साथ बैठकों के दौरान जयशंकर के भारत की तरफ से हर संभव मदद के आश्वासन ने श्रीलंका में कृतज्ञता की भावना पैदा की. भारत ने श्रीलंका को अपने विदेशी मुद्रा संकट से निपटने में मदद करने के अलावा भोजन, दवा और दूसरी आवश्यक वस्तुओं के आयात में मदद करने के लिए 1 बिलियन डॉलर का ऋण दिया. यह पेट्रोलियम उत्पादों के आयात के लिए भुगतान करने में मदद करने के लिए फरवरी में दिए गए 500 मिलियन डॉलर के अतिरिक्त था.
भारत से बढ़ रही हैं नजदीकियां
इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOC) ने श्रीलंका में अराजकता दूर करने के लिए 40,000 टन डीजल कोलंबो भेजा है. भारत जाफना के पास मन्नार की खाड़ी में 12 बिलियन डॉलर की लागत से तीन विशाल पवन चक्की बना रहा है जो श्रीलंका की ऊर्जा जरूरतों को काफी हद तक पूरा करेंगी. श्रीलंका के विदेश मंत्री जी एल पेइरिस ने स्वीकार किया कि भारत की मदद ने उनके देश के संकट को कम करने में काफी मदद की है. पेइरिस और जयशंकर के पुराने संबंधों पर भी हमें नजर डालना चाहिए. 1988-90 के उथल-पुथल भरे दिनों में कोलंबो के भारतीय दूतावास में एस जयशंकर फर्स्ट सेक्रेट्री के रूप में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स के सलाहकार भी थे.
श्रीलंकाई नेताओं को जयशंकर का आश्वासन और साथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये दोहराना कि भारत की विदेश नीति नेबरहुड फर्स्ट यानी पड़ोसी पहले वाली है और भारत श्रीलंका को बुरी स्थिति में जाते हुए नहीं देख सकता, ने श्रीलंका के भारत के प्रति रवैये को नर्म कर दिया है. जो पहले शक और दुश्मनी की नजर से देखा जाता था. भारत के श्रीलंका को सीमित साधनों के बीच हर संभव सहायता करने की पेशकश और उसी वक्त श्रीलंका संकट पर चीन के कड़े रुख को वहां की मीडिया, बुद्धिजीवी और आम लोगों ने भी महसूस किया.
चीन से हो रहा है मोहभंग
कोलंबो की अपनी दो दिवसीय यात्रा के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने श्रीलंका को कोई राहत नहीं देने की पेशकश की, जबकी बार-बार श्रीलंका 5 बिलियन डॉलर के कर्ज के पुनर्गठन की मांग करता रहा. इस साल श्रीलंका को 7 बिलियन डॉलर से अधिक का विदेशी ऋण चुकाना है, जिसमें 500 मिलियन डॉलर का सोवरेन सरकारी बॉन्ड ऋण 18 जनवरी से ही लंबित है. इनके अलावा श्रीलंका को जुलाई तक 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण चुकाना है. ऊपर से मुश्किल यह है कि श्रीलंका के पास केवल 15 दिन के आयात के बराबर ही विदेशी मुद्रा भंडार है.
राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने वांग से अनुरोध किया कि बीजिंग श्रीलंका की तरफ से भुगतान का पुनर्गठन करे, ताकि उसे कुछ राहत मिल सके. मगर चीन की तरफ से कोई आश्वासन नहीं मिला. चीनी पर्यटकों को श्रीलंका की यात्रा के लिए प्रोत्साहित करने के साथ श्रीलंका ने चीन से रियायती व्यापार ऋण प्रणाली लाने की मांग की, जिससे तत्काल भुगतान किए बगैर श्रीलंका को जरूरी चीजों की आपूर्ति में आसानी हो. मगर वांग ने तत्काल इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. गोटाबाया के भाई और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे का वांग से मिलने के बाद का ट्वीट महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसमें चीनी पक्ष की ओर से किसी वादे या आश्वासन का उल्लेख नहीं किया गया, केवल कहा गया कि चर्चा चीन के कई मेडिकल कॉलेजों से श्रीलंका के छात्रों की वापसी के आसपास केंद्रित रही." महिंदा के ट्वीट में आगे कहा गया है कि चर्चा पर्यटन, निवेश, कोविड-19 एसएल राहत और कोविड-19 के बाद की तैयारियों पर केंद्रित रही.
वांग की ठंडी प्रतिक्रिया न केवल श्रीलंका की अपनी अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन पर एक सख्ती दर्शाने जैसी थी, बल्कि चीन के कर्ज को जोखिम में डालने की भी थी जो उसे ऋण देने वाला दुनिया का चौथा बड़ा गुट है. अंतरराष्ट्रीय ऋणदाता, एशियन डेवलपमेंट बैंक और जापान से भी श्रीलंका कर्ज लिए हुए है. एक कारण चीनी उर्वरकों की वह बड़ी खेप भी है, जिसे श्रीलंका ने दूषित बता कर वापस कर दिया था.
वांग यी के दौरे का भी नहीं हुआ असर
चीनी कंपनी ने श्रीलंका के पर्यावरणीय मानदंडों का उल्लंघन किया या नहीं यह एक अलग प्रश्न है. यह बात स्पष्ट है कि श्रीलंका के पास 50 मिलियन डॉलर की खेप का भुगतान करने के लिए पैसे नहीं थे और उसने आपदा को अवसर में बदलने का फैसला किया. चीनी फर्म क्विंगदाओ सीविन बायोटेक सिंगापुर में मध्यस्थता के लिए गई जहां उसे 6.7 मिलियन डॉलर का हर्जाना दिया गया. श्रीलंका इसका भुगतान करने के लिए सहमत है. इस घटना से दोनों देशों के संबंधों में खटास आना तय है, हालांकि श्रीलंका चीन जैसे बड़े व्यापार साझीदार का भार वहन करने लायक नहीं है. चीन को श्रीलंका का निर्यात लगभग 25 करोड़ डॉलर का है, जबकि चीन से निर्यात दोगुना हो गया है.
बगैर किसी दूरदर्शिता के चीन के निवेश के साथ बनाए गये हंबनटोटा पोर्ट और कोलंबो पोर्ट सिटी जैसे निवेश व्यर्थ गए हैं. चीन ने इन बड़ी परियोजनाओं को बनाने के बाद इनमें कोई निवेश नहीं किया है, मगर वह चाहता है कि श्रीलंक कर्ज का भुगतान करे. यात्रा के दौरान वांग में आत्मीयता की कमी ध्यान देने योग्य लगी. चीनी मीडिया ने वांग के श्रीलंका दौरे का जिक्र नहीं किया और ज्यादा जोर उनके अफ्रीका दौरे पर लगाया. विदेश मंत्री की यात्रा के आखिर में चीनी मीडिया ने यह तथ्य काफी छोटे रूप में उजागर किया कि वो श्रीलंका भी गए थे.
चीन की नाराजगी का एक कारण श्रीलंका के उर्वरक आयात को अस्वीकार करने का प्रकरण हो सकता है. दूसरा बड़ा कारण श्रीलंका का भारत के साथ त्रिंकोमाली में मेगा ऑयल टैंकर पार्क परियोजना के अपग्रेडेशन का काम भी हो सकता है. भारत द्वारा श्रीलंका को तीन उत्तरी द्वीपों पर सौर पार्क बनाने के लिए एक चीनी कंपनी के साथ अनुबंध रद्द करने के लिए मजबूर करना भी एक कारण हो सकता है. लेकिन असलियत में ये सभी कारण चीन के गुस्से का कारण हो सकते हैं. इनके अलावा चीन में एक बार फिर लॉकडाउन के कारण विकास की गति कम हो गई है, जिसके बाद वह अपने खर्चों पर काबू कर रहा है.
पुराने रिश्ते ही हमेशा काम आते हैं
चीन की नाराजगी का एक कारण श्रीलंका में उसके बेवजह के बनाए मेगा परियोजनाओं के कारण आए संकट से आम लोगों में उसके प्रति उपजा गुस्सा भी है. श्रीलंका में सत्ता में बैठे लोग चीन की इस इमेज को बदलने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं. वांग की श्रीलंका यात्रा में साफ-साफ एक अलगाव नजर आया जो ध्यान देने योग्य था. सबसे बड़ी बात है कि एक समय जो लोग चीन का समर्थन करते थे, वह भी अब तटस्थ हो गये हैं.
श्रीलंका में मौजूद भारत के मित्र सराहना कर रहे हैं, यह बात समझ में आती है, मगर आश्चर्य की बात ये है कि भारत का विरोध करने वाले क्रिकेटर अर्जुन रणतुंगा सहित पारंपरिक भारत विरोधी भी दबी आवाज़ से भारत की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं. श्रीलंका के सोशल मीडिया में भी भारत के मानवीय भाव की बहुत सराहना हो रही है. यह राजपक्षे परिवार के लिए नफरत भी दर्शाता है कि वहां के लोगों का विश्वास चीन के ऊपर से उठ गया है.
इस सबका नतीजा यह हुआ है कि चीन जिस तरह से भारत के ईर्द-गिर्द स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स यानी विरोधी देशों की मोतियों की माला गुंथ रहा था उनमें से एक मोती श्रीलंका अब चीन से दूर छिटक गया है और दोनो के संबंध खराब हो चुके हैं. दुख की बात है कि श्रीलंका में एक गंभीर आर्थिक संकट और अभूतपूर्व मानवीय संकट पैदा हो गया है. भारत के साथ श्रीलंका का लंबे समय से सभ्यता का करीबी संबंध रहा है. मौजूदा संकट श्रीलंका को यह समझा रहा है कि पुराने संबंध वाले रिश्ते (भारत) पर आप नए बने सहयोगी (चीन) से ज्यादा भरोसा कर सकते हैं. जरूरत पर पुराने संबंध ही काम आते हैं.
Rani Sahu

Rani Sahu

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