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जीवन में जब कभी कठिनाई आए, समस्याएं आएं, निराशा हो, उदासी हो, चिंता हो, परेशानी हो तो हमें किसी नई दिशा में, किसी नये तरीके से सोचना शुरू करना चाहिए। इसी तरह जब कभी हम अपनी उपलब्धियों पर, अपनी सफलता पर, अपनी कामयाबियों पर फूल कर कुप्पा हो रहे हों और खुद पर बहुत घमंड हो रहा हो तो अपने अहंकार पर काबू पाने के लिए हमें जीवन में छह विशिष्ट अनुभवों से गुजरना होगा। इन अनुभवों से गुजरने के लिए हमें अपने जीवन के छह दिन, छह अलग-अलग जगहों पर गुजारने की जरूरत है, और वे छह जगहें हैं, किंडरगार्टन स्कूल, किसान का खेत, सामान्य अस्पताल, मानसिक अस्पताल, जेल और एकांत। जब हम नन्हे बच्चों के किसी स्कूल में जाएं और अपना पूरा एक दिन स्कूल में गुजारें तो स्कूल के अध्यापकों को बच्चों को पढ़ाते हुए और उनके साथ विभिन्न खेल खेलते हुए देख सकेंगे। गौर से देखेंगे तो हम पायेंगे कि उन अध्यापकों में बहुत अधिक धैर्य है। वे बड़े धीरज से बच्चों की गलतियां और नासमझियां बर्दाश्त करते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करते हैं और उंगली पकडक़र सीधी राह पर चलना सिखाते हैं। यह सच है कि छोटे बच्चों को सिखाना बड़े जीवट और धीरज का काम है। तब हम अपने खुद के विकास पर गौर करें और विश्लेषण करें कि हम कहां से कहां तक आ पहुंचे हैं।
तब हम शायद ज्यादा जिम्मेदार और ज्यादा धैर्यवान हो जाएंगे। जीवन में अक्सर हमें बड़े और परिपक्व लोगों से भी ऐसा व्यवहार करने की आवश्यकता होती है, मानो वे छोटे बच्चे हों। हर हालत में धैर्य बनाये रखना हमारा पहला सबक है। हमारा एक पूरा दिन किसी किसान के साथ गुजरे तो हम देखेंगे कि वे खेत में किस तरह से मेहनत करते हैं। हल जोतना, बीज बोना, फसल को पानी लगाना, कीड़े-मकोड़ों, सुंडियों, पशुओं, खर-पतवार-नदीम आदि से बचाना, फसल को बीमारियों से बचाना, काटना, संभालना और बाजार तक ले जाना, बहुत मेहनत भरे काम हैं। जब हम इस मेहनत को करीब से देखेंगे तो हम अपने भोज्य पदार्थों और भोजन का आदर करना सीखेंगे, पेड़-पौधों का आदर करना सीखेंगे और पर्यावरण का आदर करना सीखेंगे। तब हमें अहसास होगा कि शान-ओ-शौकत वाले शहरों के साथ-साथ पेड़-पौधे और वन ही नहीं, वन्य जीवन भी हमारे ही जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त भोजन शृंखला के जटिल चक्र में हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं और इस संतुलन को बनाए रखने में ही हमारी भलाई है। भोजन और पर्यावरण का आदर करना हमारा दूसरा सबक है। एक पूरा दिन अस्पताल में गुजारने पर हम देखेंगे कि लोगों के जीवन में कितने कष्ट हैं, दुख हैं, बीमारियां हैं, और तब हम अपने जीवन की छोटी से छोटी खुशियों का भी महत्त्व समझ पायेंगे। अस्पताल में लोगों के कष्ट देखने पर हम समझ पायेंगे कि हम कितने भाग्यशाली हैं और तब हम अपने स्वास्थ्य का महत्त्व समझ पायेंगे और स्वस्थ जीवन की आदतें सीखने की ओर ज्यादा ध्यान देंगे। स्वास्थ्य का महत्त्व जानना और जीवन में स्वास्थ्यकर आदतें अपनाना हमारा तीसरा सबक है। हमारा एक पूरा दिन मानसिक रोगियों के अस्पताल में गुजरने पर हम महसूस करते हैं कि मानसिक विक्षिप्तता के क्या मायने हैं? मानसिक रोगी किस तरह से हमारी कोई गलती न होने पर भी हमारा अपमान करते हैं, फिर भी हम उन्हें कुछ नहीं कहते क्योंकि हम जानते हैं कि इसमें उनका कोई दोष नहीं है। हम जानते हैं कि मानसिक विक्षिप्तता की अवस्था में वे इसीलिए पहुंचे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी कल्पना में अपनी एक अलग दुनिया रच ली है और वे असली दुनिया में नहीं, बल्कि उसी कल्पनालोक में जीते हैं। उनके व्यवहार से हम अपमानित महसूस नहीं करते।
मानसिक रोगियों के अस्पताल में एक दिन गुजारने के बाद शायद हम समझ पायेंगे कि जीवन में बहुत से लोगों ने भी अपने ज्ञान के झूठे अभिमान में अपनी ही दुनिया रच ली है और वे उस दुनिया से बाहर आने को तैयार नहीं हैं, इसीलिए वे दूसरों का अपमान करते रहते हैं। ऐसे लोगों के साथ बातचीत में उनका खोखलापन जानकर भी तब हम नाराज नहीं होंगे और उनकी बातों से अपमानित नहीं होंगे बल्कि ऐसे लोगों की सीमाएं समझ सकेंगे और उन्हें बर्दाश्त कर सकेंगे। यह हमारा चौथा सबक होगा। यदि हम अपने जीवन का एक दिन जेल में गुजारें तो पायेंगे कि अपराधी माना जाने वाला हर व्यक्ति आरंभ से ही अपराधी नहीं था। उसे किसी के अपमान, अनुचित व्यवहार, अन्याय या फिर उसके हालात ने उसे अपराधी बनने पर विवश कर दिया। तब हमें समझ में आता है कि शायद हर अपराधी वास्तव में किसी अन्याय का शिकार रहा है, तब हम शायद उनकी विवशताओं को बेहतर समझ पाते हैं, तब हममें उनके प्रति दया उमडऩे लगती है और हम उन्हें माफ करना सीख सकते हैं। यह हमारा पांचवां सबक है। इसी तरह यदि एक पूरा दिन हम बिल्कुल अकेले गुजारें तो हम पूरी तरह से प्राकृतिक जीवन जिएंगे, तब हम कोई दिखावा नहीं कर रहे होंगे और उस तरह से जीवन जिएंगे, जैसे हम वस्तुत: हैं। जब कोई हमारे साथ होता है तो हम उसे प्रभावित करना चाहते हैं, उसे अपना ज्ञान दिखाना चाहते हैं, शक्ति दिखाना चाहते हैं, या अच्छाई दिखाना चाहते हैं। लेकिन जब कोई अन्य हमारे साथ न हो तो किसी भी दिखावे की आवश्यकता ही नहीं रहती।
तब हम नन्हे बच्चे की तरह हो जाते हैं जो पूरी तरह से प्राकृतिक जीवन जीता है और कोई दिखावा नहीं करता। जब हम दूसरों के बीच रहते हुए भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं, जो हम हैं, जैसे हम हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं तो हमारा अहंकार आड़े नहीं आता। अहंकार से पार पाने का यह सबसे प्रभावी उपाय है। नन्हे बच्चों के स्कूल से धीरज, किसान के खलिहान से भोजन और पर्यावरण का सम्मान, अस्पताल से स्वास्थ्य का महत्त्व, मानसिक अस्पताल से अपमान सहने की क्षमता और कारागार में सजा भुगत रहे अपराधियों से दया की भावना और माफ कर देने की क्षमता का विकास होगा। इसी तरह यदि हम दिखावा न करके प्राकृतिक जीवन जीते हैं तो ‘मैं भी कुछ हूं’ को साबित करने के लिए कुछ कहने या करने की आवश्यकता नहीं रहती। इन छह महत्त्वपूर्ण दिनों से हमारा जीवन बदल सकता है, हम अपनी गलतियों से और अपने अहंकार से पार पा सकते हैं और नाकामियों से बच सकते हैं। तब हमें क्रोध नहीं आयेगा, अहंकार नहीं होगा, झूठा मोह नहीं होगा, किसी को अपमानित करने अथवा छोटा साबित करने की आवश्यकता नहीं होगी और हम एक स्वस्थ, मंगलकारी और परिपूर्ण जीवन जी सकेंगे। आज हमें इसी की आवश्यकता है और इसी की चाहत है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ई-मेल: [email protected]
By: divyahimachal
Rani Sahu
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