सम्पादकीय

सांप का बयान

Rani Sahu
5 Sep 2023 7:01 PM GMT
सांप का बयान
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हल्के मन से जेब भारी लिए ऑफिस से रोज की तरह गुनगनाता हुआ, पता नहीं क्या गाता हुआ घर की ओर मदहोशी में आ रहा था कि अचानक मुझे अपने पीछे किसी के चलने की आहट सुनाई दी। पहले तो सोचा, होगा कोई कल मुझसे फाइल निकलवाने के लिए मेरा पीछा करने वाला। आम आदमी सरकारी दफ्तरों से अपनी फाइल निकलवाने के लिए क्या क्या नहीं करता! किस किसका पीछा नहीं करता! मित्रो! आजकल नेताजी की अप्रोच लड़वा कर ऐसी मस्त मस्त सीट पर हूं कि पूछो ही मत! बस, भगवान करे मेरी सीट को किसी की नजर न लगे। पर उधर मेरे हितैषी हैं कि मुझे इस सीट से उठाने, हटाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए लगवाए बैठे हैं। किसी का भला आज के दौर में कोई नहीं देख सकता भाई साहब! चाहे अपना कितना ही सगा क्यों न हो। अपनों को जहां हराम की दो रोटी मिलती दिखी फिट पेट वालों के पेट तक में मरोड़ फिरने लग जाते हैं। बड़ा मजा आ रहा है आजकल नौकरी करने का! आजकल जो भी आता है मेरे जेब खोलने से पहले ही दिल खोलकर मेरी जेब में डालने को आतुर रहता है। उन्हें पता है कि उनके काम भगवान के मंदिर में जाकर मन्नत मांगने से पूरे नहीं होंगे। मेरी टेबुल पर धर कर ही पूरे होंगे। इसलिए समझदार प्राणी सीधा मेरी सीट पर आकर ही चैन की सांस लेता है। मैंने तब मुस्कुराते हुए पीछे देखा तो मेरे पीछे सांप चल रहा था।
फिर सोचा, कहीं इच्छाधारी आदमी तो नहीं होगा! जिसने मुझे डराने के लिए सांप का रूप धर लिया हो। आजकल समाज में इच्छाधारी सांप कम तो इच्छाधारी आदमी अधिक हो गए हैं। इच्छाधारी आदमियों का इन दिनों कुछ पता नहीं चलता। वे इस पल गिरगिट हुए जाते हैं तो उस पल सियार। वे इस पल गीदड़ हुए जाते हैं तो उस पल चूहे। आदमी इन दिनों आदमी होने के सिवाय और सब कुछ होने का हुनर रखता है। और मजे की बात! उसकी इच्छा की पूर्ति हो भी रही है। लीलाधारी भी उतने रूप नहीं धरते जितने आजकल उसकी लीला से उत्पन्न हुए धर रहे हैं। मैं तनिक रुका तो वह मेरे सामने आ गया। मैं उसके सामने। मतलब, हम दोनों एक दूसरे के आमने सामने। वह मुझसे डरा तो मैं उससे डरा। मतलब हम दोनों एक दूसरे से डरे। अगर वह आदमी ही होता तो तय था वह मुझसे ही डरता। मैं उससे नहीं डरता। पदासीन आदमी में और नार्मल आदमी में आदमी होने के बाद यही सबसे बड़ा फर्क होता है। जिस तरह सेम जात के होने के बाद भी कमजोर कुत्ता हट्टे कट्टे कुत्ते से डरता है, उसी तरह एक जात का होने के बाद भी कमजोर आदमी कुर्सी पर बैठे गधे तक से डरता है। उसे डरना भी चाहिए जो जिंदा रहना हो तो। लोकतंत्र में कमजोर आदमी ताकतवर गधे से नहीं डरेगा तो फिर किससे डरेगा? ‘डरो मत! मैं इच्छाधारी आदमी नहीं, सांप ही हूं’, पहली बार किसी सांप को इतनी शालीनता से कहते सुनते देखा।
वर्ना यहां तो शरीफ से शरीफ आदमी तक नागों की तरह फुफकार कर अपने कत्र्तव्य का इजहार करते हैं। ‘मतलब?’ ‘मतलब ये कि मैं जरूरी होने पर भी किसी को नहीं काटता। मैं सांप हूं जनाब! आदमी नहीं। आदमी के कोई उसूल हों या न, पर मेरे कुछ उसूल जरूर हैं। मेरे अधिकार क्षेत्र में आता तो नहीं, इसलिए हो सके तो मेरी इस धृष्टता के लिए क्षमा करना कि तुम इतने बरसों से शहर में रहते हुए भी इनसान क्यों नहीं हो पा रहे हो? सब कुछ तो तुम्हारे पास आदमी सा है, फिर आखिर दिक्कत कहां पर है?’ मैं वह आदमी नहीं जो बिना वजह ही अहंकारवश दूसरों पर फुफकारते रहे। बिना वजह भी एक दूसरे को काटता रहे। एक दूसरे को डसते रहे। एक दूसरे को डराते रहे। एक दूसरे को धमकाते रहे। भूख न होने के बाद भी एक दूसरे को खाते रहे। तुम हो या न हो, नए पर मेरा तो जिओ और जीने दो के सिद्धांत में विश्वास अटूट है। मैं आदमियों की तरह विषैला भी नहीं। मेरे काटे का इलाज तो हो जाता है, पर तुम्हारे काटे का इलाज कहीं भी नहीं। क्यों? आखिर ऐसा कैसा विष है तुम्हारा? मैंने जिसे अति होने पर काटा उसका इलाज होने पर वह बच गया। पर तुमने अकारण भी जिसको काटा उसका विष मरने के बाद भी उसके शरीर से न निकला।
अशोक गौतम

By: divyahimachal

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