सम्पादकीय

सर रोनाल्ड रॉस: मलेरिया और मच्छरों के बीच का कनेक्शन ढूंढ़ने वाला वैज्ञानिक

Rani Sahu
13 May 2022 3:43 PM GMT
सर रोनाल्ड रॉस: मलेरिया और मच्छरों के बीच का कनेक्शन ढूंढ़ने वाला वैज्ञानिक
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मलेरिया और मच्छरों के बीच का कनेक्शन ढूंढ़ने वाला वैज्ञानिक

प्रदीप

हम विशालकाय खतरनाक और खूंखार जानवरों से डरते हैं लेकिन हमारे लिए ये विशालकाय जानवर इतने खतरनाक नहीं होते हैं जितने कि छोटे से दिखने वाले मच्छर हैं. जी, हाँ आपने एकदम सही पढ़ा है. मच्छर धरती पर मौजूद सबसे खतरनाक और जानलेवा जीव हैं.
मच्छरों के काटने से हर साल दुनिया भर में 10 लाख से ज्यादा मौतें होती हैं. इनमें से आधे से ज्यादा मौतें (लगभग 6.25 लाख) अकेले मलेरिया की वजह से होती है. मलेरिया संक्रमित मादा एनाफिलीज मच्छरों के काटने से होता है. मच्छर ही मलेरिया के वाहक हैं और मच्छरों पर काबू पाकर इस रोग के फैलाव को भी रोका जा सकता है, यह पता लगाने वाले दुनिया के पहले शख्स थे – सर रोनाल्ड रॉस. रॉस ने न केवल मलेरिया बीमारी की जड़ खोजी थी, बल्कि इसका इलाज ढूंढने में भी अहम योगदान दिया था. आज 13 मई को इन्हीं रोनाल्ड रॉस का जन्मदिन है.
रोनाल्ड रॉस का जन्म आज ही के दिन 1857 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कुमाऊँ क्षेत्र में हुआ था. उस समय भारत में अंग्रेजी राज के खिलाफ पहला जनव्यापी विद्रोह चल रहा था, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है. इस दौरान भारत में रहने वाले कई ब्रिटिश मूल के लोग अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए मैदानी इलाकों से कुमांऊँ की पहाड़ियों की ओर चले गए थे. इन्हीं परिवारों में से रोनाल्ड रॉस का भी परिवार था. रोनाल्ड रॉस के पिता सर कैम्पबैल क्लेब्रान्ट रॉस, जो कि रॉयल इंडियन आर्मी के स्‍कॉटिश ऑफिसर थे, अपनी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरटन के साथ अल्मोड़ा पहुंचे. इसी प्रवास के दौरान 13 मई, 1857 को थॉमसन हाउस में रोनाल्ड रॉस का जन्म हुआ. रॉस अपने माता-पिता के दस बच्चों में सबसे बड़े थे.
रॉस का बचपन भारत में बीता और फिर जब वे आठ साल के हुए तो उन्हें चाचा-चाची के साथ इंग्लैंड भेज दिया गया. रॉस की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई इंग्लैंड के आइल ऑफ वाइट में हुई. उसके बाद उनकी माध्यमिक शिक्षा इंग्लैंड के साउथैम्पटन शहर के नजदीक एक बोर्डिंग स्कूल में हुई. रॉस को बचपन से ही कविता-कहानी, संगीत, कला, साहित्य और गणित में गहरी दिलचस्पी थी. 16 साल की उम्र में उन्होने गणित और चित्रकला की अनेक प्रतियोगिताओं व परीक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया था.
युवा रॉस लेखक और कवि बनना चाहते थे. रॉस के पिता उन्हें इंडियन मेडिकल सर्विस का अफसर बनाना चाहते थे क्योंकि वे चाहते थे कि उनका बेटा कोई ऐसा काम करे जिससे ज्यादा से ज्यादा दौलत और नाम कमाया जा सके. रॉस ने न चाहते हुए भी सिर्फ पिता की इच्छापूर्ति के लिए अपना दाखिला लंदन के सेंट बार्थोलोम्यू मेडिकल स्कूल में चिकित्सा विज्ञान के छात्र के रूप में करवाया. चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई पूरी करने के बाद रॉस 1880 में भारत लौटे और इंडियन मेडिकल सर्विस की प्रवेश परीक्षा में बैठे लेकिन असफल रहे. पिता के भारी दबाव के चलते उन्होंने एक बार दोबारा कोशिश की और इस बार उनको कामयाबी मिली.
आर्मी मेडिकल स्कूल में चार महीने के ट्रेंनिग के पश्चात उन्होने इंडियन मेडिकल सर्विस मद्रास प्रेसिडेंसी में ज्वाइन कर ली. यहाँ उनका काम मुख्यत: मलेरिया पीड़ित सैनिकों का उपचार करना था. रॉस ने देखा कि उस समय मलेरिया की रोकथाम के लिए एकमात्र कारगर दवा 'कुनैन' थी, जिसके सेवन के बाद मरीज अक्सर स्वस्थ्य तो हो जाते थे, लेकिन कभी-कभार मलेरिया का प्रकोप इतना ज्यादा होता था कि वह महामारी का रूप अख़्तियार कर लेता था, जिसकी वजह से कई रोगियों को ठीक ढंग से इलाज ही नहीं मिल पाता था और उनकी मृत्यु हो जाती थी.
किसी कारणवश मद्रास में 7 साल काम करने के बाद डॉ. रॉस इंग्लैंड चले गए. वहाँ उन्होंने पब्लिक हेल्थ में डिप्लोमा किया और रॉयल कॉलेज के विख्यात जीवाणु विज्ञानी डॉ. ई. क्लेन के निर्देशन में जीवाणु विज्ञान के क्षेत्र में शोधकार्य किया. डॉ. क्लेन के मार्गदर्शन की बदौलत डॉ. रॉस प्रयोगशाला की तकनीकों और सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) का प्रयोग करने में दक्ष हो गए. रॉस 1889 में पुन: भारत लौट आए और बैंगलोर के एक छोटे से आर्मी हॉस्पिटल में बतौर डॉक्टर अपनी सेवाएँ देने लगे. यहाँ उन्होने हैजा रोगियों का इलाज करने के अलावा पूरे शौक व समर्पण के साथ मलेरिया पर भी गहन अनुसंधान किया. उनके पास मलेरिया का जो भी रोगी आता, वे उसके खून का सैंपल लेकर, घंटों सूक्ष्मदर्शी से जांच-पड़ताल करते थे.
1894 में जब रोनाल्ड रॉस प्रसिद्ध स्कॉटिश डॉक्टर पेट्रिक मैन्सन से मिले तो उन्होंने रॉस को बताया कि 'मुझे लगता है कि शायद मलेरिया मच्छर से फैलता है.' डॉ. मैन्सन के इन शब्दों ने रॉस को इस सवाल कि 'क्या वास्तव में मच्छर ही मलेरिया के वाहक है?', का जवाब ढूंढने के लिए प्रेरित किया. वे मच्छरों को पकड़कर चीड़-फाड़ करते और रोगियों को मच्छरदानी में सुलाकर मच्छर घुसा देते, जिसके वे उनके खून का सैंपल लेकर सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करते थे.
मच्छरों पर शोध करते-करते डॉ. रॉस एक बार खुद ही मलेरिया के चपेट में आ गए. आखिरकार, 20 अगस्त 1897 को डॉ. रोनाल्ड रॉस को मलेरिया बीमारी की जड़ खोजने में कामयाबी मिली. यह काम कितना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण था, इसके बारे में डॉ. रॉस के शब्दों में ही जानिए –
"उस समय मलेरिया से काफी मौतें होती थीं. यह बीमारी ज्यादा बारिश और दलदल वाले क्षेत्रों में पाई जाती थी. कई लोगों का मानना था कि गंदगी में कुछ जहरीली गैसें होती होंगी, जिससे यह रोग फैलता है. एक डॉक्टर ने मलेरिया के रोगी के खून में सूक्ष्मदर्शी से बेहद सूक्ष्म जीवाणु देखे थे. लेकिन यह पता नहीं चल पा रहा था कि ये जीवाणु खून में कैसे पहुँचते होंगे.मेरे विज्ञान के गुरु (प्रो. पेट्रिक मैन्सन) ने अंदाजा लगाया और कहा कि मुझे लगता है कि शायद मलेरिया मच्छर से फैलता है. इसकी जाँच करने के लिए मैं दिन-रात मच्छरों के पीछे ही पड़ गया! हम एक-एक मच्छर के पीछे बोतल लेकर दौड़ते. फिर मलेरिया के रोगियों को मच्छरदानी में बिठाकर उन मच्छरों को दावत देते. एक मच्छर को अपना खून चुसाने के लिए मरीज को एक आना मिलता. मुझे सिकंदराबाद के अस्पताल के वे दिन सदैव याद रहेंगे! मच्छर को काटकर खोलना और उसके पेट के भीतर ताक-झाँक. एक बार मैं भी मलेरिया का शिकार हो गया. सूक्ष्मदर्शी पर झुककर बारीकियाँ देखते-देखते शाम तक मेरी आँखें जैसे धुँधला-सी जाती थीं. गर्दन अलग अकड़ जाती. इतनी गर्मी थी, फिर भी पंखा नहीं झल सकते थे, क्योंकि हवा से मच्छर उड़ जाते. सूक्ष्मदर्शी के जरिए यह सब करने के बावजूद कुछ हाथ नहीं लगा. एक दिन किस्मत मेहरबान हो ही गई. हमने कुछ मच्छर पकड़े, जो देखने में थोड़े अलग थे. इनका रंग भूरा था और पंख छींटेदार थे.उनमें से एक मादा मच्छर के पेट में देखते-देखते कुछ काला-काला-सा दिखा. ध्यान से देखने पर पता चला कि वे छोटे-छोटे जीवाणु हूबहू वैसे ही थे, जैसे हमने मलेरिया के मरीजों के खून में देखे थे. उसी से हमें यह सबूत मिल पाया कि मच्छर (मादा एनाफिलीज) से ही मलेरिया फैलता है."
रॉस एक अद्भुत कवि और लेखक भी थे. उन्होने अपनी इसी खोज के एक दिन बाद एक कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ यूं हैं –
''आंसुओं और हांफती सांसें
मैंने तेरे धूर्तता भरे ही बीजों को पा लिया है,
लाखों की हत्या करने वाली हे मौत.
असंख्य लोग बचेंगे.
हे मृत्यु, कहां हैं तेरा दंश? तेरी विजय, हे कब्र.''
अपनी इसी खोज के लिए डॉ. रोनाल्ड रॉस को 1902 में चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इंडियन मेडिकल सर्विस में 25 साल काम करने के बाद रॉस ने इस्तीफा देकर इंगलैंड के लिवरपूल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में काम किया तथा पनामा, मिस्र, मोरिसस और यूनान जैसे कई देशों में मलेरिया नियंत्रण से संबंधित कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया. 16 दिसंबर 1932 को 75 साल की उम्र में सर रोनाल्ड रॉस का निधन हो गया. कहा जाता है कि मृत्यु के ठीक पहले भी वे कह रहे थे: 'कुछ ढूंढ लूँगा, कुछ नया ढूंढ लूँगा.' डॉ. रॉस जैसे विज्ञान के अनन्य साधकों के प्रति मानवता हमेशा ऋणी रहेगी. अस्तु!
Rani Sahu

Rani Sahu

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