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4 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने रमजान के मौके पर एक ट्वीट किया
बॉबी नकवी
4 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने रमजान के मौके पर एक ट्वीट किया, इस्लामिक कैलेंडर में यह वह पवित्र महीना होता है जब दुनिया भर के मुसलमान रोजा रखते हैं. यह मैसेज कई कारणों से असामान्य था. पहला, मोदी का ट्वीट केवल एक सामान्य बधाई नहीं था, उन्होंने कैपिटल लेटर सहित विभिन्न फॉन्ट और साइज में एक विस्तृत और आकर्षक संदेश के साथ एक इमेज ट्वीट किया और वह भी आठ पंक्तियों में. 2014 में चुनाव के बाद से प्रधानमंत्री का यह सबसे लंबा रमजान संदेश था. इस मैसेज को 82 हजार से अधिक लाइक मिले, 10.8 हजार बार इस रिट्वीट किया गया और 4 हजार से ज्यादा कमेंट मिले. यह ट्वीट इस प्रकार था. "रमजान के पवित्र महीने की शुरुआत पर शुभकामनाएं. यह पवित्र महीना लोगों को गरीबों की सेवा करने के लिए प्रेरित करे. यह हमारे समाज में शांति, सद्भाव और करुणा की भावना को और भी बढ़ाए." इस मैसेज में मुस्लिम या इस्लाम जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया, यह स्पष्ट रूप से भारतीय मुस्लिमों के लिए था. इस संदेश में रमदान (Ramadan) शब्द नहीं लिया गया, जिसे पूरी दुनिया में उपयोग किया जाता है, बल्कि उन्होंने रमजान ( Ramzan) शब्द का इस्तेमाल किया, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप का मुस्लिम वर्ग इस्तेमाल करता है.
पीएम का मेसेज सही समय पर आया
यह संदेश बीजेपी की यूपी में उस जबरदस्त जीत के कुछ हफ्तों के बाद आया, जहां 90 फीसदी मुसलमानों ने बीजेपी की प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी के लिए वोट किया. साथ ही, यह ऐसे वक्त में आया है जब भारतीय मुसलमानों पर आरएसएस से जुड़े लोगों, सरकारों और विधायकों द्वारा लगातार हमले बढ़ रहे हैं. न्यूज चैनलों, वेबसाइटों और समाचार पत्रों सहित मुख्यधारा की मीडिया के एक शक्तिशाली और बड़े वर्ग द्वारा भी इस समुदाय को व्यवस्थित रूप से बदनाम किया जाता है. मीडिया के इस वर्ग को मोदी सरकार से बड़ी वित्तीय सहायता मिलती है, जो विज्ञापनों के रूप में उनकी कमाई का लगभग एक तिहाई हिस्सा होता है. मोदी का यह रमजान मैसेज उस वक्त आया है जब भारतीय मुसलमान अपने घरों और पूजास्थलों पर हो रहे हमलों से पीड़ित हैं और उन्हें अपनी जीविका हासिल करने की आजादी नहीं दी जा रही है. हिंदू त्योहार नवरात्रि, इसी दौरान रमजान भी पड़ रहा है, के दौरान कई राज्यों में मांस के कारोबार में पाबंदी है. देश की राजधानी नई दिल्ली में भी ऐसा हो रहा है.
ऐसे में यह विश्वास करना कठिन होगा कि मोदी को इन घटनाओं और विवादों, जिनकी वजह से मुसलमानों को मानसिक प्रताड़ना और असुरक्षा की भावना से गुजरना पड़ रहा है, के बारे में जानकारी नहीं होगी. बीते दशकों में मुसलमानों के खिलाफ ऐसा ट्रेंड नहीं देखने को मिला था. इसलिए, मुसलमानों के लिए मोदी का रमजान संदेश घाव पर नमक छिड़कने के बराबर है. ऐसे में मुस्लिम समुदाय को यह मानने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि रमजान की बधाई एक ऐसा स्पष्ट संदेश है जिसे मोदी का वैचारिक और राजनीतिक तंत्र इस समुदाय के साथ अपने एजेंडे के हिसाब से व्यवहार कर सकता है. प्रधानमंत्री भले ही रमजान की बधाई एक सामान्य प्रथा हो या इस जरिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मैसेज देने का प्रयास किया गया हो) इस्लाम के सबसे पवित्र महीने पर सद्भाव और शांति का मैसेज दे रहे हैं, जबकि उनका राजनीतिक और वैचारिक परिवार मुसलमानों को नुकसान पहुंचाने और उन्हें बदनाम करने को ठीक समझता है.
भारत के 1.3 अरब लोगों में से 14 फीसदी से अधिक इस समुदाय की जनसंख्या है और आज यह सामाजिक और राजनीतिक रूप से अलग-थलग महसूस करता है, यह मानता है कि उनकी सुरक्षा राज्य की दया पर आश्रित है और उनकी आजीविका के स्रोत राज्य द्वारा संरक्षित तत्वों और सत्तारूढ़ पार्टी की इच्छा पर निर्भर हैं. उनकी निराशा और ज्यादा तब बढ़ जाती है जब उन्हें विपक्षी पार्टियों, सिविल सोसाइटी या तथाकथित सेक्युलर मीडिया का समर्थन नहीं मिल पाता. ऐसे राज्यों में जहां गैर-बीजेपी पार्टियों की सरकारें हैं, वे भी मुस्लिमों को सुरक्षा देने में या दक्षिणपंथी लोगों से रक्षा कर पाने में असफल रही हैं.
लिबरल क्लास सांप्रदायिक आवाजों का विरोध करने में विफल रहा है
लिबरल क्लास, जो खुद को भारत के उदारवादी मूल्यों का संरक्षक मानता है, इस कट्टरता का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने या हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने और मुसलमानों को बदनाम करने की कोशिश करने वाली सांप्रदायिक आवाजों का विरोध करने में विफल रहा है. कुछ साहसी लोगों को छोड़कर, कई प्रमुख उदारवादी लेखक या तो खामोश हो गए हैं या केवल खानापूर्ति के लिए मुसलमानों से जुड़ी घटनाओं पर टिप्पणी कर देते हैं. मसलन, भारत के इस लिबरल क्लास के एक प्रमुख सदस्य वीर सांघवी ने हाल ही में केवल 1,500 शब्दों का एक लेख लिखा कि नफरत फैलाने वाले दक्षिणपंथियों के वास्तविक लक्ष्य हिंदू हैं, न कि मुस्लिम. उनके समकालीन, जिनमें इंदिरा गांधी के दौर में सत्ता से लड़ने का दावा करने वाले लोग भी शामिल हैं, आज अपनी आवाज और ताकत खो चुके हैं.
इस बीच, न्यायपालिका मुसलमानों से जुड़े मुद्दों को उठाने या निर्णय लेने में सलेक्टिव रही है. उदाहरण के लिए, हाल ही में हिजाब विवाद पर एक अदालत का फैसला मुसलमानों के गले नहीं उतरा क्योंकि कोर्ट इस मुद्दे को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में देखने में विफल रहा. साथ ही, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मुसलमानों को यह आश्वस्त करने के लिए कुछ भी नहीं किया है कि उनके अधिकार, जीवन और आजीविका के स्रोत की रक्षा की जाएगी.
मुसलमानों को मोदी पर भरोसा है
इसलिए, इन मौजूदा हालातों में मुसलमान ऐसा विश्वास करना शुरू कर सकते हैं कि उनके पास उस व्यक्ति पर भरोसा करने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है जो इन दक्षिणपंथी ताकतों और मीडिया को नियंत्रित करने की शक्ति रखता है. कुछ लोग जो बीजेपी, आरएसएस के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और कुछ अन्य संस्थाएं का हिस्सा हैं, यह जरूर भरोसा करते हैं कि मोदी मुसलमानों की मदद कर सकते हैं और कई चुनावों में इन लोगों ने बीजेपी के लिए वोट किया है. हाल के वर्षों में कुछ मुस्लिम ऐसे रहे हैं जो संघ की सीढ़ी चढ़कर राज्यसभा की सीट, राज्यपाल का पद और कुछ अन्य पद प्राप्त करने में सफल रहे हैं. लेकिन, त्रासदी यह है कि इनमें से किसी ने इस समुदाय को प्रभावित करने वाले मसलों पर कुछ नहीं कहा. हाल ही में, बीजेपी के मुस्लिम चेहरे आरिफ मोहम्मद खान ने अल्पसंख्यक आयोगों, वैधानिक निकाय जो मुसलमानों सहित गैर-हिंदू समुदायों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी हैं, को भंग करने का सुझाव दिया.
बीजेपी और आरएसएस से जुड़े मुस्लिम सदस्यों ने दक्षिणपंथी भाषा अपना ली है, उनका तर्क है कि कांग्रेस के शासनकाल में भी इस समुदाय को सांप्रदायिक दंगों की मार झेलनी पड़ी है. इसके लिए ये हाशिमपुरा नरसंहार और मेरठ व भागलपुर दंगों का उदाहरण देते हैं.
इनका तर्क भी सत्य के करीब है. मुसलमान यह नहीं भूले हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में पीवी नरसिम्हा राव की क्या भूमिका थी. इस समुदाय ने मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस पार्टी को दंडित किया था, हालांकि इससे पहले उसने कांग्रेस सरकारों के अधीन रहना सीख लिया था, जिन्होंने मुस्लिम मौलवियों को लुभाते हुए, मदरसों को आर्थिक मदद देते हुए और तथाकथित हज सब्सिडी सहित छोटे मोटे फायदों की पेशकश करते हुए सांप्रदायिक तत्वों को प्रोत्साहित किया था. राजनीतिक रूप से भी, कांग्रेस में कुछ मुस्लिम नेताओं ने उच्च पदों पर कब्जा करने में कामयाबी हासिल की, क्योंकि पार्टी इस समुदाय को लुभाने के लिए मौलवियों पर निर्भर थी और इसने वास्तविक मुस्लिम नेतृत्व विकसित करने के लिए कुछ खास नहीं किया.
गाय के साथ या इसके बिना भी बीजेपी, कांग्रेस की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली
फिर भी, कांग्रेस सरकारों के समय मुसलमानों को लंबे समय तक निराशा और भय के दौर में नहीं रहना पड़ा था. लेकिन आज यह पार्टी खुद के अस्तित्व के लिए लड़ रही है और उसके पास संगठनात्मक क्षमता, राजनीतिक ताकत या मुसलमानों के लिए लड़ने का इरादा नहीं बचा है.अरुण शौरी ने एक बार कहा था कि बीजेपी, "कांग्रेस+गाय है", उनके मुताबिक, दोनों के शासनकाल में सरकार की नीतियां मोटे तौर पर समान ही रही हैं. मौजूदा हालात में आज उनके इस वाक्य को संशोधित कर सकते हैं कि "गाय के साथ या इसके बिना बीजेपी, कांग्रेस की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली पार्टी है." ध्रुवीकृत मतदाताओं की बदौलत आज की बीजेपी को अब अपने राजनीतिक विस्तार और चुनावी सफलता के लिए गाय की जरूरत नहीं है. न ही उसे कांग्रेस की शासन शैली का अनुकरण करना है और न ही किसी को खुश करने का दिखावा करने की जरूरत है.
हालांकि, मुसलमानों के लिए बड़ा सवाल यह है कि क्या उन्हें मोदी की बीजेपी को नई कांग्रेस मानना शुरू कर देना चाहिए? क्या उन्हें ऐसे नए भारत में रहने और जीवित रहने के तरीके खोजने चाहिए, जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से बहुसंख्यकों की इच्छा वैध और स्वीकार्य मानी जाती है? क्या ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को बीजेपी और आरएसएस के संगठनों में शामिल होना चाहिए और बड़ी संख्या में मोदी की पार्टी को वोट देना चाहिए? क्या इस समुदाय को मोदी और उनकी पार्टी को मुसलमानों का दुश्मन मानना बंद कर देना चाहिए और शांति खरीदने की कोशिश करनी चाहिए? संभव है कि इस समुदाय के भीतर ये कठिन प्रश्न उठेंगे और उन पर चर्चा होगी.
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