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शिंजो एबी सबसे लंबे समय तक जापान के प्रधानमंत्री रहे। शुक्रवार को एक राजनीतिक रैली को संबोधित करने के दौरान प्राणघातक हमले में उनका निधन हो गया
सोर्स- जागरण
हर्ष वी पंत।
शिंजो एबी सबसे लंबे समय तक जापान के प्रधानमंत्री रहे। शुक्रवार को एक राजनीतिक रैली को संबोधित करने के दौरान प्राणघातक हमले में उनका निधन हो गया। भारत भी उनके निधन से मर्माहत है। असल में भारत-जापान संबंधों को प्रगाढ़ बनाने में एबी ने अहम भूमिका निभाई। उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी ने एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया। एबी ने 28 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देते समय जापानी जनता से क्षमा मांगी थी कि वह अपने कार्यकाल का एक साल शेष रहते हुए पद छोड़ रहे हैं, जबकि अभी कई योजनाएं अमल में आने की प्रक्रिया में हैं।
इसके बाद उन्होंने स्वयं को सार्वजनिक जीवन में सीमित कर लिया। इससे पहले जापानी राजनीति में एबी की वापसी असाधारण रही। 2007 में पहली बार प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बाद उन्हें दिसंबर 2012 में दुर्लभ उदाहरण के रूप में दूसरे कार्यकाल के लिए चुना गया। फिर 2014 और 2017 में उन्हें पुन: चुना गया। इससे जापान को वह स्थिरता और स्थायित्व मिला, जिसकी उसे सख्त आवश्यकता थी।
अपने शासनकाल में एबी ने कई बड़े लक्ष्य तय किए। जैसे कि दशकों पहले उत्तर कोरिया द्वारा अगवा किए गए जापानी नागरिकों की रिहाई के लिए प्योंययोंग से वार्ता, रूस के साथ सीमा विवाद को सुलझाना और युद्ध के बाद बने संविधान में संशोधन कर सेना को अधिक शक्तियां प्रदान करना। हालांकि ऐसे बड़े लक्ष्यों की पूर्ति करने में सफलता न मिलने के बावजूद उन्हें देश का कायाकल्प करने में जरूर कामयाबी मिली और वह घरेलू और विदेशी मोर्चे पर शानदार विरासत छोड़ गए।
मामूली बदलाव करने वाले देश के रूप में पहचान बना चुके जापान में एबी आरंभ से ही यथास्थितिवाद से मुक्ति पाना चाहते थे। उन्होंने 'एबीनामिक्स' की संकल्पना सामने रखी। यह अवधारणा नरम ब्याज दरों, सरकारी खर्च और ढांचागत सुधारों पर आधारित थी। इसने स्थिरता की शिकार अर्थव्यवस्था को नई गति प्रदान की। कम से कम आरंभ में इसका बहुत असर दिखा। कोविड महामारी से पहले एबी के दौर में ही जापानी अर्थव्यवस्था ने तेजी का सबसे लंबा दौर देखा।
शिंजो एबी ने घरेलू और बाहरी मोर्चे पर ऐसे अनेक प्रयास किए, जिन्हें करने का साहस उनके पहले किसी जापानी नेता ने नहीं दिखाया। उन्होंने विस्थापन और लैंगिक नीतियों से जुड़े मामलों में बदलाव करके जापान की सिकुड़ती श्रम शक्ति के मुद्दे का समाधान तलाशने का प्रयास किया। कामकाजी वर्ग में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए उन्होंने 'वूमेनिक्स' जैसी पहल की। इसके अंतर्गत कुछ विशेष सरकारी अनुबंध किए गए, जिन्हें प्राप्त करने के लिए कंपनियों को अधिक महिला कर्मियों को भर्ती करना पड़ा। इसने रोजगार परिदृश्य पर महिलाओं की तस्वीर भले ही पूरी तरह न बदली हो, लेकिन इसने जापानी कारपोरेट सेक्टर में गहराई से समाए पूर्वाग्रहों पर आघात जरूर किया।
जापान की सुरक्षा नीति पर भी एबी की छाप उतनी ही महत्वपूर्ण रहेगी। उन्होंने धीरे-धीरे ही सही, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर जापानी नजरिये को 'सामान्य' बनाया। जापान की क्षेत्रीय और वैश्विक सामरिक भूमिका को लेकर उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था। उन्होंने रक्षा व्यय बढ़ाया और सामरिक शक्ति के रूप में जापान के उभार को लेकर उनके मन में कोई संकोच या हिचक नहीं थी। उनकी सरकार ने संविधान की नए सिरे से व्याख्या करते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार जापानी सैन्य बलों को बाहर युद्ध करने की अनुमति का प्रविधान किया। इस अहम बदलाव ने जापान को क्षेत्रीय एवं वैश्विक स्तर अधिक सक्रियता प्रदान की। अपने सहयोगियों के प्रति ट्रंप प्रशासन के चुनौतीपूर्ण रवैये के बावजूद एबी अमेरिका के साथ जापान के रिश्तों में संतुलन बनाए रखने में सफल रहे।
क्षेत्रीय स्तर पर बात करें तो 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने ही पहली बार हिंद-प्रशांत विजन का खाका सामने रखा था। यह एक ऐसा सामरिक दृष्टिकोण था, जिसके माध्यम से उनकी विदेश नीति ने भारत और आस्ट्रेलिया जैसी बड़ी क्षेत्रीय शक्तियों संग संबंध प्रगाढ़ बनाने के साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ रक्षा साझेदारी को आगे बढ़ाया।
भारतीयों के लिए एबी हमेशा खास नेता बने रहेंगे। भारत के प्रति उनका लगाव और भारत-जापान रिश्तों के लिए उनका नजरिया उनकी हिंद-प्रशांत नीति के मूल में था। पहले कार्यकाल में ही भारत का दौरा करने के बाद से उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री तीन बार भारत का दौरा करके द्विपक्षीय संबंधों को नया क्षितिज प्रदान किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ उनकी नजदीकी और समान वैश्विक दृष्टिकोण के चलते हाल के वर्षों में भारत-जापान संबंध नई ऊंचाई पर पहुंच गए। एबी के नेतृत्व में जापान ने भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता देने में अपनी हिचक तोड़ते हुए 2016 में नागरिक परमाणु समझौता किया।
दोनों देश चीनी आक्रामकता से चिंतित रहे। यह पहलू भी द्विपक्षीय संबंधों को नए आयाम पर ले जाने में सहायक रहा। इससे दक्षिण एशिया में साझा विकास परियोजनाओं से लेकर 2017 में क्वाड के कायाकल्प और एशिया-अफ्रीका ग्र्रोथ कारिडोर जैसी परियोजनाओं पर बात आगे बढ़ पाई। पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारतीय विस्तार को हमेशा जापान से समर्थन मिला। चीन के साथ सीमा विवाद में भी जापान नई दिल्ली के साथ खुलकर खड़ा रहा। इसमें एबी के नेतृत्व के बाद बने माहौल की अहम भूमिका रही। दुर्लभ जापानी राजनेताओं की पांत का हिस्सा रहे एबी एक ऐसी समृद्ध विरासत छोड़ गए हैं, जिसने न केवल घरेलू स्तर पर, बल्कि वैश्विक परिदृश्य में भी जापान को सशक्त किया। एक स्व-घोषित कंजरवेटिव नेता के लिए वास्तव में यह एक बड़ी उपलब्धि है।
Rani Sahu
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