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- शिमला रैली के
काफी अपना सा था काफिला, मगर उसके कदमों ने हमारी जगह नहीं दी। मोदी सरकार के आठ सालों की शहनाइयां जिस शिमला की गूंज के साथ ताल मिलाती रहीं, उन्हें यह खबर नहीं कि पहाड़ के संगीत में कहां दर्द रहा होगा। जाहिर है समारोह शानदार प्रदर्शन की नीयत से हिमाचल को पर्व का माहौल देता रहा, लेकिन क्या इसी अपेक्षा में प्रदेश की जनता अपने प्रधानमंत्री की प्रतीक्षा करती रही। इसमें दो राय नहीं कि अपने रंग, ढंग और शब्दावली के दम पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी भावनाओं को 'तेरी से मेरी' तक जोड़ा, लेकिन कहीं रिश्तों के सुकून को ऐसा वादा नहीं मिला, जो किस्मत बदल दे। आर्थिक संसाधनों से महरूम और बढ़ते कर्ज बोझ के नीचे हिमाचल की हसरत भरी निगाहें जो ढूंढ रही थीं, वह मुकाम कम से कम शिमला रैली में तो नहीं आया। अमृत महोत्सव का घड़ा यहां आकर छलका नहीं, जबकि उनके प्रशंसक और आलोचक भी मानते हैं कि 'मोदी है तो मुमकिन है' की भूमिका में अगर हिमाचल के रास्ते उत्तराखंड की तरह परवान चढ़ते, तो मंजिलें कुछ और होतीं। प्रधानमंत्री ने एम्स, ड्रोन, वन रैंक वन पेंशन, पर्वतमाला परियोजनाओं और अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे गांवों की 'वाइब्रेंट योजना' का जिक्र करके हिमाचल का कृतज्ञ मन टटोला जरूर, लेकिन हिमाचल की गागर में केंद्र की उदारता का सागर दिखाई नहीं दिया।
सोर्स- divyahimachal