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नवनीत शर्मा: राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 'विकास' और 'प्रगति' के साथ स्त्रियों के प्रति अपराध में सात फीसद से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। यहां भी विशेषण महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, दलित स्त्रियों से बलात्कार के मामलों में केवल दो फीसद अपराधियों को दंड मिलता है, जबकि अन्य में यह
पच्चीस फीसद है।
विशेषण संज्ञा पर हावी हो चले हैं। दलित, अल्पसंख्यक, अश्वेत, पढ़ी-लिखी, कटे बालों वाली या हमजिंसी जैसे शब्द स्त्री और स्त्री विमर्श को परिभाषित करने लगे हैं। ये तमाम विभाजनकारी और गैर-बराबरी के विशेषण पुरुषों द्वारा पुरुषों की दुनिया के लिए रचे गए, परंतु स्त्री और स्त्री जीवन की सीमाओं को गढ़ने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। स्त्रियां इन दमनकारी पाटों में सबसे ज्यादा पीसी जाती हैं। स्त्री सशक्तिकरण की मुहिम भी स्त्री के लिए न होकर राष्ट्र या समाज की प्रगति के लिए ज्यादा चिंतित हो जाती है।
स्त्री के पढ़ने को परिवार, समाज और देश के लिए आवश्यक करार दिया जाता है। शायद परिवार या देश की चिंता न हो तो स्त्री का पढ़ना अभी भी किरकिरी का ही मामला है। स्वतंत्र स्त्री या भिन्न सोचने वाली स्त्री अभी भी हमारे समाज में नाभिकीय अस्त्र के मुकाबले अधिक खतरनाक मानी जाती है। सिमोन दा बुवार का यह कथन कि 'स्त्रियां पैदा नहीं होतीं, बल्कि गढ़ी जाती हैं', उस विद्रूप को इंगित करता है जहां जनाना क्या है, यह तय करने का विशेषाधिकार पुरुष के पास है।
स्त्रियों के प्रति हिंसा अब सांख्यिकी के दस्तावेज बन कर रह गई है। प्रतिक्षण कोई न कोई स्त्री हिंसा का शिकार होती है, चाहे वह गर्भ में हो, गोद में हो, घर में, दफ्तर में, अस्पताल में, वयोवृद्ध हो, कामगार या फिर गृहणी। मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा से अभिशप्त स्त्री अभी भी किसी आंबेडकर की बाट जोह रही है। आधे आसामान और आधी धरती के मालिकान का हक और सपना उस हकीकत से लांछित है जहां दुनिया भर में तीन में से एक स्त्री यौन हिंसा का शिकार है। भारतीय स्त्री की दशा और भी दयनीय है जहां हर घंटे औसतन चार स्त्रियां बलात्कार का शिकार हो रही हैं।
इनमें अगर दहेज, मानसिक प्रताड़ना, घरेलू हिंसा और कन्या भ्रूण हत्या के मामले जोड़ दिए जाएं, तो बासठ प्रतिशत स्त्रियां सांस्थानिक पितृसत्ता के चलते त्रस्त हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 'विकास' और 'प्रगति' के साथ स्त्रियों के प्रति अपराध में सात प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। यहां भी विशेषण महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, दलित स्त्रियों से बलात्कार के मामलों में केवल दो प्रतिशत अपराधियों को दंड मिलता है, जबकि अन्य में यह पच्चीस प्रतिशत है।
यह उन आंकड़ों का हवाला है जो रिकार्ड हुए, अन्यथा यह लिंग आधारित हिंसा की उस विकराल समस्या के संकेतक मात्र है, जिसमें लोक-लाज के कारण माना जाता है कि निन्यानवे प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं होते। यह हिंसा केवल पुरुष और स्त्री के जैविक स्तर पर भिन्न होने का द्वंद्व न होकर एक सांस्कृतिक विरंचना है, जिसके अनुसार स्त्रियां आंगन में और गाय खूंटे में ही सुरक्षित है। यह सार्वजनिक 'देशकाल' में स्त्री की स्वतंत्रता को हस्तक्षेप मानने जैसा है। स्त्री को आ िर्थक रूप से उत्पादनशील न समझना और न बनने देने का प्रयास है।
स्वतंत्र और सशक्त स्त्री पुरुषों की दुनिया में दखल मात्र है, सहनीय नहीं है, इसलिए दंडनीय है ताकि उसे अपना स्थान पता रहे। धर्मगत विषयों में भी स्त्री को कोई निर्णय करने संबंधी अधिकार नहीं है। हालांकि सारे धार्मिक मूल्यों की संवाहक स्त्री ही है। सारे व्रत, तीज, त्योहार, रस्मो-रिवाज उसे ही निभाने हैं, परंतु धर्म स्थलों में प्रवेश और अंतिम संस्कार को लेकर वर्जनाएं हैं। दुनिया के प्रत्येक धर्म में स्त्री को दोयम दर्जे का ही माना गया है।
लगभग सभी धर्मों में इस दुनिया के बनने के चरणबद्ध क्रम में स्त्री हर कथोपकथा में हमेशा दूसरे नंबर पर है। जैविक विकास के क्रम में पहले पुरुष आया या स्त्री, यह एक बेमानी सवाल है क्योंकि यहां पहले आना बेहतरी का सूचक नहीं है। इस क्रम में मानव जाति का प्रादुर्भाव समझा जाता है कि पुरुष और स्त्री एक ही साथ बने होंगे तो हर संदर्भ और प्रसंग में स्त्री का पिछड़ जाना सामाजिक वर्चस्व और संघर्ष की ही गाथा रही होगी।
स्त्री को प्रत्येक काल खंड में बंधक रखने और बंधन में रहने के लिए धर्म सम्मत शास्त्र रचे गए, परंपराएं बनाई गर्इं और संबंधों के परिमाण में शील और कर्तव्य के दायरे रचे गए। आदर्श स्त्री की परिकल्पना चाहे वैदिक युगीन हो अथवा उत्तर-आधुनिक, हमेशा ही पुरुषवादी समाज के लिए बुनी गई। आधुनिक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों ने भी स्त्रीत्व को देह धरे का दंड ही माना। इसके लिए फिर उसने विश्व सुंदरी प्रतियोगिताएं आयोजित कीं और स्त्री केंद्रित साहित्य और सिनेमा को आलोचकों से अनुशंसा तो दिलाई, पर उसे 'मुख्यधारा' से परे ही रखा। विज्ञापनों की दुनिया में भी स्त्री केंद्र में रही। स्त्री के लिए उपयोगकारी वस्तुओं के विज्ञापनों में भी स्त्री मात्र देह की तरह दर्शायी जाती है।
ऐसे समय में स्त्री की मुक्ति-गाथा और स्त्री विशुद्ध स्त्री बने की परिकल्पना बड़ी जीवटता का मामला है। द्वंद्व स्त्री एकता को लेकर इस समाज को और विखंडित करते हैं। दुनिया भर की स्त्रियां एक हों अथवा स्त्रियों दुनिया को एक करो- जैसे नारे अभी भी बड़ी चतुराई से विभाजित कर दिए जाते हैं। आतंकवादी और सिपाही की मां होने के भिन्न सौंदर्यबोध रचे जाते हैं, पुरुषों की दुनिया की लड़ाई का जिम्मेदार स्त्री को ही बताया जाता है।
दलित, अश्वेत, अल्पसंख्यक स्त्रियों के भिन्न अधिकार और कर्तव्य बुने जाते हैं। इन विभाजनों को भले ही स्त्री ने जन्म न दिया हो, इन्हें पोसने और संरक्षण की जिम्मेदारी भी स्त्री की ही है। स्त्री के वीरांगना होने का प्रमुख प्रमाण उसके द्वारा वीर पुत्रों को जन्म देना ही है। गांधारी और कुंती के चरित्र चित्रण उनके द्वारा जन्मे पुत्रों के आधार पर ही होना तय है। किसकी बेटी, किसकी बहन से लेकर किसकी स्त्री या किसकी मां, यही स्त्री जीवन की समीक्षा की कसौटी है।
इन सब संरचनाओं के विरुद्ध जाकर जिन स्त्रियों ने पुरुषों की दुनिया में दखल दिया, अधिकतर को पुरुषों ने खलनायिका समझा या नजर अंदाज किया या अपवाद ही समझा। इसके बावजूद स्त्री ने अपनी संघर्ष यात्रा को जारी रखा। संयुक्त अरब अमीरात की सरा-अल-अमीरी ऐसी ही मिसाल हैं जो इस मुल्क की उन्नत प्रौद्योगिकी मंत्री भी हैं और जिन्होंने उस पूरी परियोजना का नेतृत्व भी किया जिसने हाल में मंगल ग्रह पर एक उपग्रह को सफलतापूर्वक पहुंचाया था। जिस वैज्ञानिक समूह ने यह सफलता हासिल की, उसमें अस्सी प्रतिशत स्त्रियां ही हैं।
यह समूह अल्पसंख्यक स्त्रियों से संबंधित सभी पूर्वाग्रह खंडित करता हुआ उम्मीद की नई बानगी है। इसी तरह पैट्रिस कुलर्स, एलिसिया गार्जा और ओपल तोमेती केवल स्त्री, अश्वेत और हमजिंसीयत के संदर्भ में ही मुखर नहीं हैं, बल्कि गैर-बराबरी और रंगभेदस जिसकी जड़ें वस्तुत: पितृसत्ता में ही मिलती हैं, को चुनौती देने के लिए 'ब्लैक लाइव्स मैटर' जैसे आंदोलनरूपी संगठन की स्थापना करती है। भारतीय स्त्री ने भी जिजीविषा और सम्मानपूर्वक जीवन के लिए याचना न कर, रण का रास्ता चुना। भंवरी देवी से लेकर निर्भया तक सबने अपनी सांस टूटने तक खुद को टूटने से रोका।
अनगिनत गाथाएं भारतीय मानस पटल से लेकर अखबारों तक अपने स्त्री और स्त्रीत्व के गौरव का बखान करती हैं। कश्मीर की परवीना अहंगर से लेकर केरल की रेहाना फातिमा या गुजरात की जयाबेन देसाई से लेकर नगालैंड की तोखेली कीकोन एक उम्मीद जगाती है कि यह दुनिया जब स्त्री विमर्श के अनुरूप रची जाएगी तो समतामूलक होगी, भेदभाव से मुक्त मानवीय होगी। आठ मार्च का इतिहास फरवरी क्रांति और स्त्रियों का आधी के बरक्स पूरी दुनिया पर उनके दावे की याद तो दिलाता ही है, साथ ही पुरुषों को भी कौरव-पांडव से परे जाकर युयुत्सु होना सिखाता है।