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लोकसभा चुनाव अभी तीन बरस दूर हैं, मगर सियासी चौसर पर महारथियों ने पासे जमाने शुरू कर दिए हैं
लोकसभा चुनाव अभी तीन बरस दूर हैं, मगर सियासी चौसर पर महारथियों ने पासे जमाने शुरू कर दिए हैं। अगर भरोसा न हो, तो आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की ताजातरीन पंजाब यात्रा और पिछली 22 जून को शरद पवार के घर हुई बैठक और उसके बाद के घटनाक्रमों को जोड़ देखिए, आपको सब कुछ समझ में आ जाएगा।
सबसे पहले अरविंद केजरीवाल की बात। वह शुरू से 'वैकल्पिक राजनीति'की बात करते आए हैं। दिल्ली विधानसभा के गत दो चुनावों में उनका यह नारा खासा सफल रहा है। इतना सफल कि कांग्रेस, जिसने 15 साल मुसलसल हुकूमत की, उसका आज राष्ट्रीय राजधानी की विधानसभा में एक भी सदस्य नहीं है। अपने तूफानी अंदाज में लोकसभा के रास्ते में आने वाले तमाम अवरोधों को हवा में उड़ा देने वाली भाजपा भी यहां कुल आठ नुमाइंदों की मामूली गिनती पर अटकी हुई है। यही वजह है कि आयकर अधिकारी से जनसेवक बने केजरीवाल महत्वाकांक्षी हो उठे हैं।
पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में 'आप'सिर्फ एक रणनीतिक भूल की वजह से चुनाव जीतते-जीतते रह गई थी। हुआ यह था कि मालवा रैली में उमड़ी भीड़ के बाद पार्टी ने अति उत्साह में केजरीवाल को पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर दिया। हरियाणा का रहने वाला कोई गैर-सिख इस सूबे का मुख्यमंत्री बने, यह यहां की ताकतवर जट लॉबी को मंजूर नहीं था, पर अब अरविंद ने वह चूक सुधार ली है। उन्होंने घोषणा की है कि पांच नदियों से बने इस सूबे का चुनाव अगर हमने जीता, तो मुख्यमंत्री सिख ही होगा। उन्होंने चंडीगढ़ में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दिल्ली की तर्ज पर मुफ्त बिजली और बेहतर स्कूली शिक्षा देने का वायदा भी किया। बिना बोले वह यहां 'दिल्ली मॉडल'की हिमायत करते दिखाई दिए। आप चाहें, तो यहां 'गुजरात मॉडल'के वायदे को याद कर सकते हैं।
आम आदमी पार्टी गुजरात, गोवा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी चुनावी करतब दिखाना चाहती है। देखना है कि महारथियों की इस लड़ाई में वैकल्पिक राजनीति का सुर कितना बुलंद साबित हो सकेगा। यकीनन आप, बसपा अथवा असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम की शैली में, इन प्रदेशों में धीमे-धीमे ही सही, पर अपना दखल बढ़ाना चाहती है।
अब 22 जून के जमावड़े पर आते हैं। शरद पवार का शुमार देश की बड़ी राजनीतिक हस्तियों में होता है। उनके घर इस तरह की बैठक हो, तो चटपटी चर्चाओं के बगूले उठने लाजिमी थे, लेकिन नतीजा क्या निकला? उमर अब्दुल्ला को छोड़कर किसी अन्य की उपस्थिति राजनीतिक उत्तेजना पैदा करने की हैसियत में नहीं थी। कुछ वकील, शायर, बुद्धिजीवी जरूर थे, पर सियासत में उनकी भूमिका भला है कितनी? यही वजह है कि मीटिंग शुरू होने से पहले की समूची सनसनाहट उसके खात्मे से पहले खत्म हो चुकी थी। रही सही कसर 25 जून को पवार के मुंबई में दिए गए बयान से पूरी हो गई। उन्होंने कहा, 'अगर देश में कोई वैकल्पिक ताकत तैयार होगी, तो वह कांग्रेस पार्टी के बिना संभव नहीं है।'तेजस्वी यादव भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए बोले, 'कांग्रेस के बिना विकल्प की कल्पना नहीं की जा सकती, उसे आधार बनाना ही पड़ेगा... हां मैं इतना जरूर कहूंगा कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां ड्राइविंग सीट पर उन्हें ही रखा जाना चाहिए।'तो क्या यह मान लें कि पवार साहब ने अपना आवास सिर्फ बौद्धिक विलास के लिए उपलब्ध करा दिया था? उनकी राजनीतिक कार्यशैली गवाह है कि वह बिना मकसद कोई काम नहीं करते। सवाल उठता है, क्या यह कदम तीसरे मोर्चे के विचार की गहराई मापने के लिए उठाया गया था?
कुछ आंकड़े इस विचार को पुष्ट करते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में 192 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर हुई थी। इनके अलावा 70 के करीब सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस सबसे बडे़ चुनौतीकर्ता के तौर पर उभरती है। रह बची 280 के आसपास सीटों पर क्षेत्रीय दलों के महागठबंधन की गुंजाइश बनती है। भाजपा की आंधी को रोकने के लिए ये दल किस तरह एक हो सकते हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण बंगाल का चुनाव है। वहां कांग्रेस और वाम-दलों ने ममता बनर्जी की राह के तमाम रोड़े हटाने में आगे बढ़कर मदद की थी। नतीजतन, उनका सूपड़ा साफ हो गया। क्या 2024 में ममता बनर्जी इस एहसान का प्रतिफल चुकाएंगी?
यही वह मुकाम है, जहां कांग्रेस के लिए उम्मीदें बनती हैं। आज भी पश्चिम बंगाल, आंध्र, तेलंगाना, अरुणाचल, मणिपुर, यानी कुल पांच राज्यों में कांग्रेस की कोख से जन्मे या उसकी गोद में पले मुख्यमंत्री हैं। इसके अलावा, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे नए गठबंधन हैं। ये सब यदि कांग्रेस के साथ 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम'के तहत गठजोड़ कर लें, तो वे भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
हालांकि, इसमें एक पेच है। आंध्र या तेलंगाना के मुख्यमंत्री ओडिशा के नवीन पटनायक की राह का अनुसरण करते आए हैं। इन सबने अपने-अपने प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें काटीं और भाजपा को मजबूत होने दिया। वे चाहते हैं कि भाजपा और कांग्रेस की लड़ाई में अपना काम बनाते रहें। यही वजह है कि वे केंद्र सरकार के प्रति ज्यादा हमलावर नहीं होते और समय पड़ने पर उसकी मदद भी कर देते हैं। रिंग के बाहर निर्लिप्तता के स्वांग के साथ बैठे ये लोग सिर्फ यह देख रहे हैं कि भाजपा के खिलाफ चुनावों तक कोई एंटी-इनकंबेन्सी (सत्ता विरोधी लहर) पैदा होती है या नहीं? यदि हवा भाजपा के लिए सर्द होगी, तो वे कांग्रेस का साथ देने में नहीं हिचकिचाएंगे। यदि ऐसा नहीं हो सका, तो 2019 की रणनीति अपनी जगह कायम है ही। सन् 2022 में उत्तर प्रदेश और गुजरात सहित सात राज्यों में चुनाव होने हैं। चुनावी मौसम के इस बैरोमीटर पर इन क्षेत्राधिपतियों की नजरें अभी से जमी हैं।
यही वह बिंदु है, जो कांग्रेस को अवसर और चुनौती एक साथ मुहैया कराता है। कांग्रेस अपने घर के झगड़े निपटाने में रह-रहकर नाकाम साबित होती रही है। इसके अलावा, सन 1989 से उसका वोट बैंक लगातार दरकता आया है, पर प्रमुखतम विपक्षी पार्टी होने के नाते उसका हक तो बनता ही है।
गौरतलब है कि राहुल गांधी वर्ष 2004 में लोकसभा पहुंचे थे। तब से अब तक वह किसी न किसी रूप में पार्टी के अंदर फैसलाकुन किरदार निभाते आए हैं। 17 साल के इस लंबे कालखंड में वह मतदाताओं की नजर में अपने पिता या दादी की तरह कदापि लुभावने साबित नहीं हुए हैं। पिछले सात साल से उनके सामने हर तरह के सियासी तरकश से लैस नरेंद्र मोदी हैं और अब तक बाजी मोदी के हाथ रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि राहुल बदलती परिस्थितियों में खुद को ढाल पाते हैं या नहीं?
Twitter Handle: @shekharkahin
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