सम्पादकीय

Sedition Law : ब्रिटिश राज का बोझ है राजद्रोह कानून जिसे सरकार उतार फेंकना नहीं चाहती

Rani Sahu
12 May 2022 8:57 AM GMT
Sedition Law : ब्रिटिश राज का बोझ है राजद्रोह कानून जिसे सरकार उतार फेंकना नहीं चाहती
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1860 का भारतीय दंड संहिता ब्रिटिश भारत के दौर के आपराधिक कानून को परिभाषित करता है

अंशी ब्योहर– 1860 का भारतीय दंड संहिता ब्रिटिश भारत के दौर के आपराधिक कानून को परिभाषित करता है. उस समय के कई कानूनों का ध्यान सिर्फ इस पर केंद्रित था कि किस तरह असंतोष या असहमति को अपराध के श्रेणी में रखा जाए और फिर दंडित भी किया जाए. उस समय मुख्य रूप से अंग्रेजों (British Rule) के खिलाफ काम करने वाले लोग शासन से असहमत होते थे, जैसे स्वतंत्रता सेनानी, बुद्धिजीवी और मीडिया. उपनिवेशवाद (Colonialism) के खिलाफ भारत के लंबे संघर्ष और आजादी के 75 साल बाद भी कुछ ऐसे कानून हमारी कानूनी व्यवस्था का हिस्सा बने हुए हैं.

देशद्रोह (Sedition Law) आज भी एक ऐसा औपनिवेशिक बोझ है जिससे हम जूझ रहे हैं. देशद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है जिसका भारी दुरुपयोग जारी है. कानून लागू करने वाली एजेंसियां और अधिकारी इसका इस्तेमाल ऐसे नागरिकों के खिलाफ करते हैं जो भाषण और विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करते हैं. 5 मई, 2022 को भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हेमा कोहली की पीठ ने देशद्रोह की संवैधानिकता पर प्रारंभिक दलीलें सुनीं थी. वर्षों से देशद्रोह के मामलों की बढ़ती संख्या और कानून के दुरुपयोग से पीठ चिंतित थी. बेंच एक बड़ी पीठ के रेफरेंस पर विचार कर रही थी क्योंकि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में 5-न्यायाधीशों की पीठ ने इस धारा को बरकरार रखा था. मामले की सुनवाई 10 मई 2022 को सूचीबद्ध की गई थी.
राजद्रोह की परिभाषा अस्पष्ट है
आश्चर्यजनक तरीके से केंद्र सरकार ने 9 मई, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और एक नया हलफनामा दायर किया. यह 10 मई, 2022 की लिस्टिंग से ठीक एक दिन पहले हुआ था. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में अपना समय बर्बाद नहीं करने का आग्रह किया. सरकार ने कहा कि प्रधानमंत्री ने 'आजादी का अमृत महोत्सव' (स्वतंत्रता के 75 वर्ष) के दौरान औपनिवेशिक युग के कानूनों के बोझ के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए हैं. 10 मई को आवेदन प्राप्त करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि क्या केंद्र सरकार द्वारा इस प्रावधान की दोबारा जांच पूरी होने तक देशद्रोह कानून, भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए, के तहत कार्रवाई को रोका जा सकता है. अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि राजद्रोह कानून की इस तरह की पुनरावलोकन के लिए एक निश्चित समयबद्ध प्रक्रिया होनी चाहिए.
इस बीच राज्यों को लंबित और चल रहे मामलों से निपटने के लिए एक निर्देश जारी किया जा सकता है. बेंच ने नागरिक स्वतंत्रता को बचाए रखने पर प्रधान मंत्री के विचारों से भी सहमति व्यक्त की और केंद्र से धारा 124 ए के तहत पहले से ही गिरफ्तार लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए राज्यों को दिशानिर्देश जारी करने पर विचार करने को कहा. याचिकाकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी तर्क दिया कि जब तक सरकार कानून की दोबारा जांच नहीं कर लेती तब तक कोई गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. जब सोलिसिटर जेनरल (एसजी) ने समय मांगा तो उन्हें सवालों का जवाब देने के लिए 24 घंटे का समय दिया गया.
राजद्रोह की परिभाषा अस्पष्ट है. इसकी न तो आम नागरिक और न ही कानून लागू करने वाली एजेंसियां ही सटीक मूल्यांकन कर सकी हैं और अक्सर ही ये राजद्रोह की कोई ठोस परिभाषा देने में विफल रही हैं. उचित रोक के बिना 'अवमानना', 'घृणा' और 'असंतोष' जैसे शब्दों का उदार उपयोग आग में ईंधन ही डालता है. हाल के वर्षों में राजद्रोह के कई मामले दर्ज किए गए हैं जहां आरोप न्यायिक जांच के बाद ठहर नहीं पाए और बाद में हटा दिए गए. कई ऐसी मिसाल हैं जब अदालतों ने इस कानून के अनावश्यक इस्तेमाल पर सवाल उठाया है और राज्य को इस कानून का इस्तेमाल करने को लेकर हतोत्साहित किया है, लेकिन पुलिस फिर भी नहीं रुकी है. मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं होने के बावजूद अक्सर कार्यवाही शुरू हो जाती है और गिरफ्तारी भी की जाती है. नतीजतन इस तरह के मामलों में इजाफा ही होता है.
राजनेताओं और सरकारों की आलोचना पर भी दर्ज होता था देशद्रोह का मामला
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए भारत में अपराध 2020 के आंकड़े बताते हैं कि साल 2020 में देशद्रोह के 73 मामले दर्ज किए गए थे. अगर पिछले वर्षों के लंबित मामलों को जोड़ दिया जाए तो पुलिस वर्तमान में 230 मामलों से निपट रही है. हालांकि, कुल मामलों में केवल 23 में ही चार्जशीट दायर की गई थी. इसे 57.5 प्रतिशत की चार्जिंग दर ही माना जाएगा जो कि सभी आईपीसी और विशेष और स्थानीय कानूनों (एसएलएल) के तहत मामलों में कुल चार्जशीटिंग दर 82.5 प्रतिशत से काफी कम है.
दूसरी ओर देशद्रोह के मामलों में पुलिस के लिए लंबित मामलों का प्रतिशत 82.8 है, जो पुलिस के लिए कुल (आईपीसी और एसएलएल) मामलों की लंबित रहने की दर, 33.9 प्रतिशत, से बहुत अधिक है. राजद्रोह के मामलों में दोष सिद्धि की दर महज 33.3 प्रतिशत है जो कि कुल (आईपीसी औरर एसएलएल) मामलों के कंविक्शन रेट 73.4 प्रतिशत से काफी कम है. इस तरह अपराध के ये आंकड़े दिखाते हैं कि देशद्रोह के मामलों में देरी तो होती ही है, साथ-साथ जांच भी अपर्याप्त और अनुचित होती है.
हालांकि ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि 2014 से आईपीसी की धारा 124-ए के तहत दर्ज किए गए देशद्रोह के मामलों पर कोई रुझान नहीं बनाया जा सकता है. लेकिन इतना तो जरूर है कि मामलों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है. Article -14 ने पिछले साल एक राजद्रोह डेटाबेस लॉन्च किया और पाया कि 2010-2021 के बीच 816 राजद्रोह के मामलों में लगभग 11,000 व्यक्तियों में से 65 प्रतिशत को 2014 के बाद फंसाया गया था. 2010-2021 के बीच दर्ज किए गए देशद्रोह के 96 प्रतिशत मामलों में 405 भारतीयों के खिलाफ राजद्रोह के मामले सिर्फ इसलिए दर्ज किए गए थे क्योंकि उन्होंने राजनेताओं और सरकारों की आलोचना की थी.
कानून का दुरूपयोग
Common Cause की याचिका में हमने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124A को असंवैधानिक और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(a), और 21 के उल्लंघन के रूप में घोषित करने की मांग की है. यदि कानून असंवैधानिक नहीं पाया जाता है और राजद्रोह के मामले में आरोपी को आरोपमुक्त किया जाता है तो हमने दिशा-निर्देश मांगे हैं कि संबंधित पब्लिक सर्वेंट और शिकायतकर्ता/मुखबिरों के खिलाफ कानून के अनुसार सख्त कार्रवाई की जाए. साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाएं कि कानून का दुरूपयोग न हो.
पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, मेजर-जनरल एसजी वोम्बटकेरे (सेवानिवृत्त), तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, प्रमुख पत्रकार और नागरिक समाज संगठन इस समय शीर्ष अदालत में इस मामले पर नजर रख रहे हैं. इससे पहले केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) ने दंड संहिता, 1860 की धारा 124-ए की संवैधानिकता पर फैसला लिया था. केदार नाथ के अनुसार राजद्रोह का अपराधपूर्ण है यदि : "हिंसा के लिए उकसाना या मौखिक या लिखित शब्दों से सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृति या इरादा हो जिसके तहत कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा फैलाने की प्रवृत्ति या प्रभाव हो."
धारा 124A की कई व्याख्याओं से रू-ब-रू होते हुए अदालत ने संवैधानिकता के सिद्धांत को लागू किया और कानून को बरकरार रखा. उसके बाद नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) और जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2019) में यह माना गया है कि क़ानून की संवैधानिकता की परिकल्पना पूर्व-संवैधानिक कानूनों पर लागू नहीं होनी चाहिए क्योंकि वे विदेशी विधायिका या निकाय द्वारा बनाए गए थे. इसके अतिरिक्त, केदार नाथ अधीक्षक केंद्रीय कारागार बनाम डॉ. राम मनोहर लोहिया (1960) पर ध्यान देने में विफल रहे, जिसमें कहा गया था कि: (ए) केवल 'कानून और व्यवस्था' नहीं बल्कि 'सार्वजनिक व्यवस्था' की गंभीर गड़बड़ी की आशंका होने पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जा सकता है और (बी) उकसाने की प्रक्रिया और सार्वजनिक व्यवस्था के गंभीर व्यवधान के बीच सीधा और निकट संबंध होना चाहिए.
राजद्रोह कानून कई बार आलोचनाओं का शिकार हुआ है
भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अपवाद के तहत आने वाली कानून और व्यवस्था की कमतर गड़बड़ी को शामिल कर केदार नाथ ने धारा 124 ए की व्यापक व्याख्या की है. लेकिन भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को केवल इस आधार पर कम नहीं किया जा सकता है कि इससे नुकसान की संभावना है. एक अन्य Common Cause मामले श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) में यह माना गया कि: "सार्वजनिक व्यवस्था के साथ संबंध अंतरंग, वास्तविक और तर्कसंगत होना चाहिए और सीधे उस प्रदर्शन से उत्पन्न होना चाहिए जिसे प्रतिबंधित करने की मांग की गई है…"
धारा 124-ए बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार और अंतरंग बातचीत के बीच अंतर नहीं बताता है. यह धारा अंतरंग बातचीत को भी अपराध घोषित कर देती है जबकि उससे सार्वजनिक अव्यवस्था की आशंका नहीं है. एक व्यक्ति भाषण सुनने के बाद सरकार से नफरत करना शुरू कर सकता है, या उसके प्रति अरुचि महसूस कर सकता है, या उसकी अवमानना कर सकता है, लेकिन वह सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने के लिए बाध्य नहीं है और ऐसा कुछ भी करने से परहेज कर सकता है. कोई भाषण सिर्फ अपनी सामग्री के आधार पर ही अव्यवस्था का कारण नहीं बन सकता है बल्कि यह श्रोता की प्रकृति, अवसरों और उस समय देश की स्थिति पर भी निर्भर करता है. राजद्रोह की परिभाषा अस्पष्ट है और आम नागरिकों के साथ-साथ कानून लागू करने वाली एजेंसियां भी इसका सटीक मूल्यांकन नहीं कर सकी है और इसे पर्याप्त निश्चितता के साथ अक्सर परिभाषित भी नहीं किया जा सका है. यह धारा उकसावे और सार्वजनिक व्यवस्था की गड़बड़ी के बीच एक निकट संबंध स्थापित करने में भी विफल रहा है.
वास्तव में, अरूप भयन बनाम भारत संघ (2011) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि किसी प्रतिबंधित संगठन की केवल सदस्यता लेने से कोई व्यक्ति अपराधी नहीं बन जाएगा, जब तक कि वह हिंसा का सहारा नहीं लेता या लोगों को हिंसा के लिए उकसाता या हिंसा द्वारा सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा नहीं करता. श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) में शीर्ष अदालत ने फिर से एडवोकेसी (वकालत) और उत्तेजना के बीच अंतर करते हुए कहा कि केवल उत्तेजना फैलने की आशंका के मद्देनज़र ही भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को कम किया जा सकता है. राजद्रोह कानून अपनी उत्पति की वजह से कई बार आलोचनाओं का शिकार हुआ है. बावजूद इसके देशद्रोह कानून को हटाया नहीं गया है. नागरिक समाज और लोकतंत्र के रक्षकों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि शायद राज्य पुनर्विचार के बाद भी कानून को पूरी तरह से नहीं हटा सकता है.
Rani Sahu

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