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देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने कहा है कि न्यायपालिका संविधान और सिर्फ संविधान के प्रति जवाबदेह है
सोर्स- divyahimachal
देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने कहा है कि न्यायपालिका संविधान और सिर्फ संविधान के प्रति जवाबदेह है।' यह आदर्श कथन कई बार सामने आ चुका है। राजनीतिक दल न्यायपालिका से क्या अपेक्षा रखते हैं, वह हमारा बुनियादी सरोकार नहीं है। संविधान के मायने हैं कि प्रत्येक नागरिक के मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की जाए। कमोबेश ऐसे संतुलन और न्याय की अपेक्षा हम न्यायपालिका से करते हैं। नागरिक सुरक्षित है, तो संविधान भी लागू किया जा सकता है। यदि देश में सरकलम करने की घटनाएं आम हो जाएं, तो कौन संविधान की दुहाई देगा और किसे न्याय मिलेगा? जीवन जीना तो मौलिक अधिकार है। उसे कोई हत्यारा छीन लेगा और दोषारोपण किसी और पर लगाया जाएगा, तो ऐसे संविधान की सार्थकता ही क्या है? उदयपुर में दो हत्यारों ने जिस तरह सरेआम गला रेत कर हत्या की थी, उसके एक सप्ताह पहले महाराष्ट्र के अमरावती में एक दवा व्यापारी की इसी तर्ज पर हत्या की जा चुकी थी। तो उदयपुर हत्याकांड के बाद ही यह क्यों स्वीकार किया गया कि दवा व्यापारी की भी सरकलम करके हत्या की गई थी? यह संज्ञान पहले लिया जाना चाहिए था। चूंकि महाराष्ट्र में सत्ता-परिवर्तन हुआ है, तो यह स्वीकारोक्ति भी सामने आई है। पुलिस का रुख भी बदल गया है। सिर्फ यही नहीं, टीवी चैनलों पर ऐसे दृश्य प्रसारित किए जा रहे हैं, जिनमें मुसलमानों की एक भीड़ नारा लगा रही है-'गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा।' हम पाषाणकाल में जी रहे हैं अथवा संविधान और न्यायपालिका के राज में…? इन हत्यारी प्रवृत्तियों के खिलाफ संज्ञान कौन लेगा? इन प्रवृत्तियों के लिए नूपुर शर्मा ही 'राष्ट्रीय खलनायक' नहीं हैं। उदयपुर हत्याकांड के हत्यारों की जयपुर अदालत के परिसर में वकीलों के एक हुजूम ने ही जमकर पिटाई की। कपड़े तक फाड़ दिए। फांसी देने का शोर गूंजने लगा।
यह आम नागरिक की प्रतिक्रिया का ही उदाहरण है। सुरक्षाकर्मियों ने हत्यारों को भी बचाते हुए पुलिस वाहन के भीतर डाला। हमारे संविधान और न्याय इतने उदार, व्यापक और निष्पक्ष हैं कि हत्यारे या आतंकवादी की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जाती है। सजायाफ्ता आतंकी को आखिरी न्याय देने के लिए आधी रात में भी अदालत खोल दी जाती है। तो नूपुर शर्मा के सुरक्षा-सरोकारों को न्यायपालिका क्यों नहीं सुनेगी? नूपुर ने टीवी बहस के दौरान जो भी कहा था, उसकी असंख्य बार भर्त्सना की जा चुकी है, लेकिन देश के मौजूदा हिंसक और अराजक माहौल के लिए भी सर्वोच्च अदालत ने नूपुर को ही 'दोषी' करार दिया है। न्यायाधीशों को फटकार लगाने और तल्ख टिप्पणियां करने का अधिकार है, लेकिन न्यायपालिका राजनीतिक मंच भी नहीं है। न्यायाधीशों की टिप्पणियां अक्सर देखने और सुनने को मिलती रही हैं। सर्वोच्च अदालत ने नूपुर पर जो टिप्पणियां की थीं, उन्हें भी देश ने देखा-सुना है। हमारी कोई आपत्ति नहीं है और न ही हम मर्यादा की हद लांघना चाहते हैं। न्यायाधीशों के संज्ञान में भागलपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, भिवंडी से लेकर गोधरा तक असंख्य सांप्रदायिक दंगों को ताज़ा कर देना चाहते हैं। उनमें नरसंहार भी किए गए, यह एक दर्ज सत्य है। अदालतों में मामले चलते रहे हैं। उन दंगों के सूत्रधार, साजि़शकार और भड़काऊ चेहरे कौन थे? कितने 'नूपुर' थे? ये बेहद संवेदनशील सवाल हैं। कानून और संविधान के विशेषज्ञ प्रो. फैजान मुस्तफा कई बार टीवी साक्षात्कार में कह चुके हैं कि आधुनिक मानव समाज और सभ्यता में 'ईश-निंदा' को अब जुर्म नहीं मानना चाहिए। इसे मानहानि तक सीमित रखें और भर्त्सना करें। ईश-निंदा के नाम पर कब तक खून-खराबा होता रहेगा। बहरहाल देश का माहौल कई बार बिगड़ा है। कई बार आग लगाई गई है और उसमें घी डालने के काम भी किए जाते रहे हैं। उनकी दोषी वे प्रवृत्तियां हैं, जो हाथ-पांव काटने, आंखें निकाल कर बाहर फेंक देने और देश के प्रधानमंत्री की हत्या करने की सरेआम धमकियां देती रही हैं। उनमें मौलाना, मौलवी, इमाम आदि भी शामिल रहे हैं।
Rani Sahu
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