सम्पादकीय

तालिबान का राज: अफगानिस्तान की पहेली और भारत

Rani Sahu
21 Aug 2021 6:14 AM GMT
तालिबान का राज: अफगानिस्तान की पहेली और भारत
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ऐसा क्यों लगता है कि अफगानिस्तान में तालिबान ने जिस तेजी के साथ कब्जा किया, वह भारत सरकार की समझ और सोच से परे निकला?

प्रशांत दीक्षित । ऐसा क्यों लगता है कि अफगानिस्तान में तालिबान ने जिस तेजी के साथ कब्जा किया, वह भारत सरकार की समझ और सोच से परे निकला? अब पूरे देश के लोग अमेरिका के बाइडन प्रशासन पर उंगलियां उठा रहे हैं। दरअसल भारत के लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि बाइडन प्रशासन को अपने सैनिकों को वापस बुलाने की इतनी जल्दी क्या थी। लगातार बीस वर्षों तक अफगानिस्तान में इतने संसाधन और पैसे खर्च करने के बावजूद बिना कुछ हासिल किए वे उस युद्ध जर्जर देश को तालिबान की मनमानी सहने के लिए क्यों छोड़ गए।

अमेरिका के पिछले दो प्रशासन (बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप) बार-बार यह बताते रहे कि वे अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने की योजनाओं के क्रियान्वयन में लगे हैं, लेकिन ओबामा या ट्रंप इस योजना में सफल नहीं हो सके। लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने सैनिकों को आनन-फानन में वापस बुला लिया। पहले उन्होंने कहा था कि हम अफगानिस्तान से सभी अमेरिकियों की सुरक्षित वापसी के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन अमेरिकी सैनिक जिस तरह से वापस लौटे, उसे दुनिया भर ने देखा। इसी कारण दुनिया भर में जो बाइडन की आलोचना हो रही है।
हालांकि राष्ट्रपति बाइडन ने सफाई पेश करते हुए कहा कि अगर अफगानिस्तान के तीन लाख सैनिकों वाली सेना, जिसे अमेरिकी शासन ने पिछले दो दशक से पाल-पोसकर प्रशिक्षित किया और तालिबान से मुकाबला करने के लिए तैयार किया, अपने देश की रक्षा नहीं करना चाहती, तो इसके लिए अमेरिकी प्रशासन अपने सैनिकों का जीवन दांव पर नहीं लगा सकता। इस संदर्भ में आंकड़े बताते हैं कि दस खरब डॉलर खर्च करके एक आधुनिक अफगान सेना (अफगान नेशनल डिफेंस ऐंड सिक्योरिटी फोर्सेज) खड़ी की गई।
अफगानिस्तान से अपनी वापसी से पहले जून में अमेरिका ने अफगानी सेना को छह लाइट एटैक हैलीकॉप्टर्स, 174 बख्तरबंद गाड़ियां, दस हजार 2.75 इंच के रॉकेट्स, इकसठ हजार 40 मिमी हाई एक्सप्लोसिव गोलियां, नौ लाख 0.50 कैलिबर गोलियां और बीस लाख 7.62 मिमी की गोलियां दीं। संक्षेप में कहें, तो अफगान एयर फोर्स के पास 45 ब्लैकहॉक हैलीकॉप्टर्स , 56 मि 17 और कई सी-130 ट्रांसपोर्ट जहाज हैं। संभव है कि ये सब हथियार तालिबान के हाथ लग गए हों। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन इसके लिए अशरफ गनी को जिम्मेदार ठहराते हैं, जो काबुल में तालिबान के प्रवेश करने से पहले ही देश छोड़कर भाग गए।
यह स्वाभाविक ही नहीं, बल्कि यथार्थ भी है। अशरफ गनी के पलायन के कारण ही मजबूत स्थिति में होने के बावजूद अफगान सेना ने एक तरह से अपने हथियार डाल दिए। जब नेतृत्व दुम दबाकर भागता है, तो ऐसा ही होता है। स्वाभाविक है कि अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने के बाद भारत एक भारी अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। पिछले बीस वर्षों में भारत सरकार ने वहां तीन अरब डॉलर की लागत से सड़क, पुल, इमारतें और यहां तक कि संसद भवन बनवाया है। भारत के लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या तालिबान भारतीय निवेश से बने बुनियादी ढांचे को नष्ट कर देगा। क्या अफगानिस्तान की सरकार और वहां की जनता भारत के उस योगदान को भूल जाएगी, जिसकी बदौलत वहां बांध, राजमार्ग, व्यापारिक आधारभूत संरचनाएं खड़ी की गईं? ऐसे में भारत की तल्खी और चिंता स्वाभाविक है।
लेकिन इस दौरान सबसे ज्यादा जरूरी है, अफगानिस्तान में फंसे हुए भारतीयों को तेजी से और सुरक्षित अपने देश में वापस लौटाना। इसकी अनदेखी किसी भी हालत में नहीं की जा सकती और उम्मीद है कि केंद्र सरकार तत्परता से सभी भारतीयों की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करेगी। इन दिनों अफगानिस्तान के घटनाक्रम की काफी चर्चा है। लोगों के निशाने पर सिर्फ अमेरिकी प्रशासन ही नहीं, बल्कि भारतीय शासन भी है। वर्षों पुरानी अमेरिका विरोधी चीत्कार फिर से सुनाई देने लगी। एक फोरम में सुनने को मिला कि 'अमेरिकी न तो पहले विश्वासपात्र थे, न आने वाले वर्षों में होंगे।'
वहीं एक भारतीय राजनयिक ने टिप्पणी की कि 'अमेरिकी हमेशा अपना उल्लू सीधा करके निकल जाते हैं और उनके द्वारा फैलाई गंदगी किसी और को साफ करनी पड़ती है।' कुछ लोग भारतीय खुफिया विभाग को खुले शब्दों में निकम्मा घोषित कर रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तान की इस साजिश को हम पकड़ नहीं पाए। हमें पाकिस्तान और अफगानिस्तान से जुड़े इतिहास की पूरी जानकारी है। सोवियत सेनाओं को असहाय बनाने का श्रेय भी पाकिस्तान को ही मिला था, जहां अमेरिकी सीआईए ने पाकिस्तान की आईएसआई के सहयोग से मुजाहिदीन सेना तैयार कर उसे धीरे-धीरे अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने के लिए भेज दिया था। यह इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है।
यह भी संभव है कि पाकिस्तान अपनी आतंकी पैदावार को तालिबान के नाम पर अफगानिस्तान भेज रहा हो। तालिबान नेताओं और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच गहरा दोस्ताना रिश्ता साफ दिख रहा है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान ने अपने अनुभव और अपनी संस्थाओं का पूरा उपयोग किया है। लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले वर्षों में पाकिस्तान और अफगान तालिबान के समागम से एक नया राक्षस जन्म लेगा, जो पाकिस्तान को बंटवारे की ओर ले जाएगा, क्योंकि रिश्ते दूरदृष्टि से पनपते हैं, चतुराई से नहीं। यह सच है कि फिलहाल अफगानिस्तान एक ऐसी पहेली बन गया है, जिसे भारत सरकार को अपनी कुशल कूटनीति और विवेक से सुलझाना पड़ेगा।
हमारे जेहन में तालिबान के खिलाफ जो नफरत का भाव वर्षों से पनपता रहा है, वह एक ठोस कदम उठाने में हमारी रुकावट बन सकता है। लेकिन समझदार देश अपने और अपने अवाम के हित में कोई अप्रत्याशित और नया कदम उठाने से नहीं चूकते। इसलिए शायद हमें अपने पड़ोसी देशों से सहायता मांगने की जरूरत पड़ सकती है, जो तालिबान के दरवाजे खोलने में मदद कर सके। चीन तालिबान से रिश्ते बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रख रहा है। इस संदर्भ में तालिबान का रवैया अपने हित से प्रेरित है। यहां तक कि वे चीन के अपने सहयोगी उइघुर मुसलमानों को भी भूल गए हैं। जाहिर है, स्वार्थ परम सर्वोच्च है। भारत को भी अपने राष्ट्रहित को देखते हुए कूटनीतिक कदम उठाना चाहिए।


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