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- अक्ल बड़ी या भांग
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सरकार वही जो भाँग खाकर निर्णय ले और पूछे कि अक्ल बड़ी या भाँग। फिर माननीय और अधिकारी समवेत स्वर में कहें कि ‘भाँग’। हिमाचल सरकार पर्यटन राजधानी में आयोजित एक उच्च स्तरीय बैठक में भाँग की खेती को क़ानून सम्मत बनाने पर उतना ही गहन विचार-विमर्श कर चुकी है, जितना डंकेश ने नोटबंदी की घोषणा करने से पूर्व लिया था। सरकार ने भांग की वैध और वैज्ञानिक खेती पर अध्ययन के लिए बाग़वानी मंत्री की अध्यक्षता में बाक़ायदा कमेटी गठित करने के बाद कथित हितधारकों और जनप्रतिनिधियों से चर्चाएं आरम्भ कर दी हैं। सालों पहले सोडे का एक विज्ञापन आया था, ‘ख़ूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे चार यार।’ पर अक्सर चार यारों यानी सरकार, प्रशासन, हितधारकों और जनप्रतिनिधियों का मिलना ‘जस मतंग तस पादन घोड़ी, बिधना भली मिलाई जोड़ी’ ही साबित होता आया है। बाबा जी की बूटी को लेकर देवभूमि में पहले ही कई लोक भजन प्रचलित हैं। भाँग खेती को लीगल बनाए जाने के बाद बाबा जी के मन्दिरों के भीतर और बाहर उनके भक्त चौबीसों घंटे ‘भाँग साधना’ में लीन नजऱ आएंगे।
उनके कण्ठ से नए-नए भजन फूटेंगे और प्रदेश में साहित्य और संगीत की नई धारा प्रस्फुटित होगी। भाँग की खेती को लीगल किए जाने के बाद राज्य में भूंजी भाँग की किल्लत नहीं होगी। सरकार छाती ठोक कर दावा कर सकेगी कि उसने ‘घर में भुनी भाँग नहीं और नगर निमंत्रण’ कहावत को झुठला दिया है। सुगन्ध से वशीभूत देशी-विदेशी भक्त भँवरों की तरह ख़ुद ही खिंचे चले आएंगे। औषधीय गुणों से सराबोर प्रदेश का वातावरण, भले शेष औषधीय पौधों के विकास के लिए उपयुक्त हो या न हो, पर भांग के उत्पादन के लिए मुफीद है। यहां उगने वाली भांग औषधीय और औद्योगिक दोनों शोबों में काम लाई जा सकती है। लोगों की आम समस्याओं पर सोई रहने वाली सरकार भाँग पर जनता-जनार्दन से खुली चर्चा कर रही है ताकि उसकी शंकाएं दूर की जा सकें। उस पर सरकार का दावा कि ऐसी खुली चर्चाओं से वर्तमान सरकार पुरानी रिवायतों को मीलों पीछे छोड़, राज्य के आर्थिक विकास के लिए नए विचारों पर काम कर रही है। इससे लोगों की आर्थिकी सुदृढ़ करने के अलावा युवाओं सहित सभी बेरोजग़ारों को रोजग़ार मिलेगा। पर शायद सरकार को मालूम नहीं कि कई कर्मठ युवा पहले ही भाँग के सफल कारोबार में सलंग्न है। भाँग की खेती को लीगल किए जाने के बाद ये युवा चैन की साँस लेंगे और ख़ाकी के सिर का बोझ कम होने से उसे पहले की अपेक्षा बेहतर ढंग से ऊँघने में मदद मिलेगी।
इस तरह सरकार प्रदेश में ‘कुएँ में भाँग पडऩा’ लोकोक्ति को अक्षरश: जीने में मदद करेगी। सरकार को पता है कि ‘भांग भखन तो सुगम है, लहर कठिन कैंह होय’ अर्थात् भांग खाना आसान है पर भांग की तरंग झेलना मुश्किल है। इसलिए सरकार रैन बसेरों की तजऱ् पर भाँग बसेरे बनाएगी जिनके निर्माण से ठेकेदारों और मज़दूरों को समय-समय पर आंशिक रोजग़ार मिलने के अलावा भाँग बसेरों की देखभाल में जुटे लोगों को स्थाई रोजग़ार प्राप्त हो सकेगा। भाँग से निर्मित औषधि की जीआई टैगिंग करने से विश्वगुरू की तरह हिमाचल का डंका समूचे जगत् में बजने लगेगा जिससे प्रदेश की आर्थिकी में दिन दोगुनी, रात चौगुनी बढ़ोतरी होगी। दरअसल सरकार भाँग के पाँच प्रतिशत दुष्प्रभावों की वजह से इसके 95 प्रतिशत गुणों को इग्नोर करने के मूड में नहीं है, क्योंकि जिन गम्भीर रोगों के इलाज में यह रामबाण साबित होगी, उनमें प्रदेश की आर्थिकी सबसे ऊपर है। निरन्तर उधार का घी खाने से प्रदेश की रीढ़विहीन हो चुकी आर्थिकी को मजबूत बनाने में भाँग की खेती टाटा स्टील का काम करेगी। कैंसर जैसी घातक बीमारी के दर्द से लडऩे की ताक़त रखने वाली भाँग क्या लचर आर्थिकी से नहीं लड़ सकती। इसके अलावा भाँग के पौधे के रेशे से निर्मित कपड़े नग्न लोगों के जि़स्म को ढकने में मदद करेंगे। पर राजस्थानी कहावत ‘अकल भाँग खाणी’ को चरितार्थ करते हुए प्रदेश को ‘भंग के भाड़े में भेजने’ को जुटी सरकारों और समाज को भाँग के रेशे से बने कपड़े भी शायद कम पड़ें।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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