सम्पादकीय

काले कछुए की सकुशल वापसी

Rani Sahu
12 Sep 2023 6:56 PM GMT
काले कछुए की सकुशल वापसी
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गांव के सूखे पोखर में गांव के बच्चे तैर रहे थे कि अचानक उनको काले रंग का कछुआ दिखा। काले रंग के कछुए को देखकर वे चिल्लाए, ‘काला कछुआ! काला कछुआ!’ उनकी आवाज सुन सूखे की मार झेलते खेत में काम करता गोबर दौड़ा दौड़ा आया। उसने देखा, सच्ची को काला कछुआ गांव में आया है। कछुआ हौलदार, पटवारी से भी धीमे चल रहा था। जरूर उनसे भी खास पद का होगा। अब किस विभाग का होगा? गोबर तय नहीं कर पा रहा था। क्योंकि इनके सिवाय दूसरे विभागों के कछुओं से उसका वास्ता न पड़ा था। गोबर ने काले कछुए को प्रणाम कर उसे अपनी गोद में उठाया और गांव में ले आया। जिसने भी काले कछुए को देखा वह दंग रह गया। आखिर होरी ने सरकारी नौकर भक्ति का परिचय देते गोबर से कहा, ‘रे गोबर! चल इसे वन विभाग को सौंप दें। यह वनचर है।’ ‘पर बाबा, यह वनचर नहीं, जलचर है।
कायदे से इसे मछली विभाग को देना चाहिए।’ ‘नहीं, आजकल आदमी को छोडक़र मगरमच्छ, कछुए, गैंडे, दरियाई घोड़े, पंछी सब वनचरों के अंडर ही आते हैं।’ आखिर मोबाइल से वनचर विभाग से संपर्क साधा गया। चार दिन बाद कछुए की चाल चलती वनचर विभाग की टीम गोबर के गांव पहुंची। ‘कहां है हमारी जात का कछुआ? इसे कौन यहां पर बहला फुसला कर लाया? जो भी इसे यहां बहला फुसला कर लाया हो वह इसी वक्त अपना जुर्म कबूल करे, वर्ना…।’ वनचर हेड ने गीदड़ की तरह गुर्राते कहा। ‘आकप कसम जनाब! कोई नहीं। जनाब! गांव के लोगों के बहला फुसला कर लाने से आज तक गांव में सरकारी सांप तक नहीं आया तो ये तो कछुआ है जनाब! आ गया हो होगा सरकारी कालोनी के गंदे हवा-पानी से तंग आकर यहां हवा-पानी बदलने’, कह होरी ने विनम्र निवेदन करते कहा और उस ओर इशारा किया जहां काले रंग का कछुआ खा पीकर आराम फरमा रहा था। ‘आखिर खरगोशों के गांव में यह काला कछुआ आया कहां से? पर्सनल असिस्टेंट! सभी विभागों को फोन लगाकर पता कराओ कि किसके विभाग से कछुआ अबसेंट है?’ ‘जी साहबजी! पर साहबजी! जहां तक मेरी नॉलिज है, इस रंग का कछुआ मैंने आज तक किसी भी विभाग में नहीं देखा।’ ‘तो इसका मतलब है कि…।’ ‘जनाब! कछुआपन माफ! तो इसका सीधा सा मतलब है कि यह कछुआ कहीं और से किसी सरकारी विभाग में नया नया ट्रांसफर होकर आया होगा। तभी इसका रंग हमारे रंग सेे अलग है।
हमारे यहां के किसी भी विभाग का होता तो हमसा रंगदार दिखता। हो सकता है यहां नया नया होने पर अपने दफ्तर जाते जाते दफ्तर का रास्ता भूल गया हो और…।’ ‘उठाओ अपनी जात बिरादरी के को! इसका रंग काला हुआ तो क्या हुआ? मन दिमाग तो हमारे जैसा है। रंग भेद है तो क्या हुआ! है तो अपना ही बिरादर न! सरकारी कछुए भाई भाई!’ आगे कुछ कहने के बदले वनचर टीम ने काला कछुआ अपनी गाड़ी में बिठाया और अपने रास्ते हो लिए तो गांव ने चैन की सांस ली। पहली बार अबके गांव में सरकारी टीम के लिए खाने पीने का प्रोग्रााम नहीं हुआ था। यह देख होरी भी परेशान था। सारे रास्ते में वनचरिए काले रंग के कछुए को गाड़ी में सबसे आगे बिठाए इस बात पर मंथन करते रहे कि आखिर हमारा भाई गांव में गया तो क्यों? गांव जाने से तो बड़े से बड़ा बीमार से बीमार अफसर डरता है। उसका वहां तबादला हो जाए तो वह बीमार से बीमारतम् हो जाता है। फिर अनुमान लगाया गया, हो सकता है, बाहर के राज्य का कोई गुंडा हमारे कछुए भाई को अगुआ कर इस गंदे गांव के आसपास छोड़ गया हो। बाद में कछुआ भाई मुफ्त का खिलाने पिलाने वालों को ढूंढता ढूंढता गांव पहुंच गया हो। एक सुखद सूचना! आज के अखबार से पता चला है कि काले कछुए से पूछकर उसे उसके विभाग में सुरक्षित पहुंचा दिया गया है। परंतु इस अप्रत्याशित घटना के बाद हर विभाग ने अपने अपने रंग बिरंगे कछुओं को खास हिदायत जारी कर दी है कि बिना अपने बॉस को बताए कोई भी कछुआ कहीं न जाए। जाएगा तो वह अपनी सुरक्षा का खुद जिम्मेदार होगा। जनता अब लामबंद हो रही है।
अशोक गौतम

By: divyahimachal

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