सम्पादकीय

सद्बुद्धि हवन, गंगाजल और घाट

Rani Sahu
20 Dec 2021 6:58 PM GMT
सद्बुद्धि हवन, गंगाजल और घाट
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मानुष का जीव हर युग में बेचारा ही साबित हुआ है

मानुष का जीव हर युग में बेचारा ही साबित हुआ है। बेचारे को सृष्टि के आरंभ से ही माया की तरह बुद्धि भी ठगती आ रही है। कहते हैं माया तभी ठगती है जब बुद्धि भ्रष्ट होती है। शायद इसीलिए बेचारा जीव सद्बुद्धि के लिए हमेशा भगवान से प्रार्थना करता नज़र आता है। तभी वेदों, उपनिषदें सहित दुनिया भर के धार्मिक ग्रंथों में सद्बुद्धि के लिए असंख्य प्रार्थनाएं मिलती हैं। मिसाल के लिए गायत्री मंत्र में परमात्मा से बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करने के लिए निवेदन किया गया है। पता नहीं, क्या सोच कर, कबीर बाबा ने माया को ठगिनी मानते हुए 'माया महाठगिनी हम जानी' कहा। उन्हें तो कहना चाहिए था, 'बुद्धि महाठगिनी हम जानी।' उनकी इसी ़गलती का नतीजा है कि जनता को अपने ही नहीं, सार्वजनिक कार्यों तक को भी सूरज की रौशनी दिखाने के लिए भगवान से नेताओं को सन्मति प्रदान करने के लिए सद्बुद्धि हवन तक करवाने पड़ रहे हैं या अपने चहेते नेताओं की सद्बुद्धि के लिए उस गंगाजल से शुद्धि करने की मजबूरी झेलनी पड़ रही है, जो अब नेताओं की बुद्धि की तरह प्रदूषित हो चुका है। इसीलिए बेचारी सद्बुद्धि सत्य की तरह झूठ की परिधि में टक्करें मारती रहती है।

आज के समय में सेवक और प्रधान सेवक कहलाने वाले नेता कभी सूबेदार, सामंत और अमीर या राजा, महाराजा और सम्राट की उपाधियों से विभूषित होते थे। ़फ़र्क है तो बस इतना कि कभी तीन हाथ की देही को रेशम में लपेटने वाले नेता अब रेशमी खादी में सुशोभित होते हैं। लेकिन सद्बुद्धि सत्य की तज़र् पर आज भी नए जन्मे बच्चे की तरह दुनिया भर में नंगा घूमती रहती है, जिसे सभी अपनी स्वार्थानुसार झूठ के रेशम या चीथड़ों में लपेटते हैं। बेचारे नेताओं की सद्बुद्धि तभी जागती है जब मामला उनकी मतलबपरस्ती को ़खुराक देने का हो। यह उनकी सद्बुद्धि का ही कमाल था कि विदेशी आक्रांता भारत को अपना घर समझ कर, यहाँ सदियों से अपना तंबू-डेरा जमाते रहे। यह हमारे नेतृत्व की महानता है कि उसने हमेशा अपनी सद्बुद्धि का परिचय देकर अपने शरीर के साथ देश और जनता को भी नाशवान समझा।
इसीलिए आज़ादी के पहले ही दशक में हमने अपने हाथों से घोटालों के देशी बीज रोप दिए। व़गरना पहले बीज भी विदेशी थे और रोपने वाले भी। हम तो बस खेती संभालते थे। अब हम इतनी तऱक़्की कर चुके हैं कि विकास योजनाओं के ब्लू प्रिंट की चिंदियाँ बनाकर जनता में बाँटते हैं और बेचारी सद्बुद्धि हिमाचल के केन्द्रीय विश्वविद्यालय की तरह डेढ़ दशक बाद भी चिन्दिओं जैसे तीन जगहों पर हवा में लहराती नज़र आती है। मुझे आज तक ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया कि बुद्धि विवेक के साथ सद् होती है या स्वतः सद् होती है। लेकिन प्रायः अनुभव किया है कि हाथ में हल्दी की गाँठ मिलते ही या आँखों पर स्वार्थ की पट्टी चढ़ते ही अ़क्ल घास चरने निकल जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद 'थूक कर चाटना' जैसा मुहावरा भी प्रकाश में नहीं आता। हाल ही में 'अ़क्ल पर परदा पड़ना' या 'अ़क्ल क्या घास चरने गई है' जैसे मुहावरे सद्बुद्धि की तरह नग्न घूमते हुए नज़र आ रहे हैं। किसान आंदोलन के दौरान ये मुहावरे अ़क्सर देश में 'ये कहाँ आ गए हम यूँ ही साथ चलते-चलते' गाते हुए नज़र आते थे। लेकिन चुनावों की गँध मिलते ही सेवकों का सत्ता रूपी विवेक जागने से न किसानों को उनकी सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करनी पड़ी और न ही सद्बुद्धि हवन करवाना पड़ा। बस थूका हुआ चाटते ही सेवकों का विवेक जाग्रत हो गया और देश एक बार फिर तऱक़्की की राह पर चल पड़ा। बस अब किसानों की आय दोगुनी होने का इंतज़ार है।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
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