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लंबे समय तक विश्व की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा रूस और यूक्रेन का युद्ध
संजय गुप्त।
कोरोना संकट से उबर रही विश्व अर्थव्यवस्था यूक्रेन पर रूस के हमले के कारण फिर से गंभीर संकट से घिर गई है। इस हमले के कारण जहां यूक्रेन से होने वाला निर्यात ठप पड़ गया है, वहीं रूस से होने वाली आपूर्ति भी बाधित हो गई है। अमेरिका और उसके सहयोगी देश जैसे-जैसे रूस पर प्रतिबंध लगाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे वहां से आयात करने वाले देशों के सामने कठिनाई बढ़ती जा रही है। इसके अलावा एक ओर जहां रूस से कच्चे तेल की आपूर्ति प्रभावित हो रही है, वहीं सऊदी अरब जैसे देश तेल का उत्पादन बढ़ाने से इन्कार कर रहे हैं। इसी कारण कच्चे तेल के दाम भी बढ़ते जा रहे हैं। इससे अन्य देशों की तरह भारत भी प्रभावित हो रहा है। बीते दिनों संसद में महंगाई के सवाल पर इसी बात का उल्लेख वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने किया।
चूंकि भारत को अपनी जरूरत के 80 प्रतिशत से अधिक पेट्रोलियम उत्पाद आयात करने पड़ते हैं, इसलिए जब उनके दाम बढ़ते हैं तो देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है, जैसा कि इन दिनों पड़ रहा है। कच्चे तेल के दामों में वृद्धि का सिलसिला बढ़ने के साथ ही मुनाफाखोर भी सक्रिय हो जाते हैं और उसके चलते भी कई वस्तुओं के दाम बढ़ने लगते हैं। यूक्रेन संकट के कारण वर्तमान में कच्चे तेल के दाम 105 डालर प्रति बैरल के आसपास चल रहे हैं। इसके चलते देश के तमाम शहरों में पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये प्रति लीटर के आंकड़े को पार कर गई हैं। डीजल की स्थिति भी अलग नहीं। इसके साथ जेट ईंधन और गैस के दाम भी बढ़ रहे हैं। इसका असर आवाजाही की लागत पर पड़ने के साथ ही तमाम आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के रूप में भी दिख रहा है। अपने देश में पेट्रोलियम की खपत बढ़ने का एक कारण अधिकांश क्षेत्रों में सुगम यातायात न होना भी है। यह सही है कि राज्य सरकारें यातायात व्यवस्था को रातों रात ठीक नहीं कर सकतीं, लेकिन वे इस व्यवस्था को सुधारने की दिशा में ठोस कदम तो उठा ही सकती हैं। यातायात को व्यवस्थित करने के साथ आम लोगों को पेट्रोलियम पदार्थों की बचत के लिए भी प्रेरित करना होगा। ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का इस्तेमाल बढ़ाने के बावजूद भारत अभी उस स्थिति से दूर है, जहां वह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से स्वयं को बचा सके। नि:संदेह आयातित पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता घटाने के प्रयासों को गति देना वक्त की जरूरत है, क्योंकि अभी जो प्रयास किए गए हैं, वे ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं।
हालांकि पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के लिए अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम जिम्मेदार हैं, किंतु विपक्ष केवल भारत सरकार को कोसने में लगा हुआ है। इसमें राहुल गांधी सबसे आगे हैं। विपक्ष को यह अच्छे से पता है कि पेट्रोलियम उत्पादों के दाम क्यों बढ़ रहे हैं, फिर भी वह नारेबाजी वाली राजनीति करना पसंद कर रहा है। वह पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि पर शोर तो मचा रहा है, लेकिन इस समस्या से निपटने के लिए कोई वैकल्पिक विचार सामने नहीं रख रहा है। इस सबके बीच यह देखना सुखद है कि भारत रूस से कच्चा तेल आयात करने के अपने फैसले पर इसके बावजूद अडिग है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश उस पर ऐसा न करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। इनमें से कई देश ऐसे भी हैं, जो खुद रूस से तेल और गैस ले रहे हैं। ऐसे में भारत के लिए यही उचित है कि यूक्रेन के मामले में तटस्थता की अपनी नीति कायम रहते हुए अपने हितों को पहली प्राथमिकता दे। आखिर अन्य अनेक देश भी यही करने में लगे हुए हैं। इसी के साथ भारत को यह भी देखना चाहिए कि क्या वह रूस-यूक्रेन के बीच कोई समझौता करा सकता है? यदि भारत ऐसा करने में सक्षम होता है तो उसका अंतरराष्ट्रीय कद और बढे़गा।
यदि रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध शीघ्र समाप्त हो जाता है, तो भी अर्थव्यवस्था उसके बुरे असर से तत्काल मुक्त होने वाली नहीं है। रूस पर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की ओर से जो प्रतिबंध लगाए गए हैं, उनका असर समाप्त होने में समय लगेगा। ऐसे में यह आवश्यक है कि देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाए रखने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर काम करें। वोकल फार लोकल अभियान के तहत स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की नीति न केवल इस आवश्यकता की पूर्ति करने वाली है, बल्कि वह आत्मनिर्भरता का आधार भी है। एक जिला-एक उत्पाद और मेक इन इंडिया जैसी योजनाएं अर्थव्यवस्था का मूल मंत्र बननी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े उद्योगों के साथ छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करने की नीति पर जिस तरह जोर दिया है, वह समय की मांग है, लेकिन यह नीति फलदायी तब सिद्ध होगी, जब उद्योग जगत भी चुनौतियों का सामना करने के लिए संकल्पबद्ध होगा। उसे उत्पादकता बढ़ाने के साथ अपने उत्पादों की गुणवत्ता को भी विश्वस्तरीय बनाना होगा। लागत कम करने के लिए गुणवत्ता से समझौता करने की प्रवृत्ति ठीक नहीं। विश्व में शक्ति के समीकरण जिस तेजी से बदल रहे हैं और उसके चलते कूटनीति समेत कई मोर्चों पर जो चुनौतियां उभर रही हैं, उन्हें देखते हुए आवश्यक यही है कि भारत भी अपनी आर्थिक मजबूती के लिए कोई कसर न छोड़े। यह तभी संभव है जब सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर चुनौतियों का सामना करने के लिए आगे आएंगे।
भारत को निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का जो संकल्प व्यक्त किया गया है, उसे हर हाल में पूरा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह ठीक है कि भारत ने वस्तु निर्यात के मामले में 400 अरब डालर के लक्ष्य को हासिल किया है, पर केवल इतना ही पर्याप्त नहीं। भारत को अपने निर्यात के जरिये अर्थव्यवस्था को बल देने के लिए न केवल चीनी आयात पर निर्भरता घटानी होगी, बल्कि उन तमाम वस्तुओं का निर्माण खुद करना होगा, जो अभी चीन से आयात की जाती हैं। इसके लिए हमारे उद्योगपतियों को आगे आना होगा और विश्व बाजार में चीन का जो आधिपत्य है, उसे कम करना होगा। इन्हीं उपायों से जीडीपी बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा। इस दिशा में एमएसएमई को प्रोत्साहित करने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं, उन्हें जमीन पर उतारने के लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे उपायों से ही बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं और अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है।
Rani Sahu
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