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लाख धमकियों के बाद भी अमेरिका भारत पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता
सुतानु गुरू
जब बात भू-राजनीति, विदेश नीति और राष्ट्रीय हितों की होती है तब न कोई स्थायी दोस्त होता है न ही स्थायी दुश्मन. यह पूरी तरह सटीक कोट तो नहीं है लेकिन यहां जानबूझ कर इस्तेमाल की गयी है. 3 मार्च, 2022 की सुबह, समाचार एजेंसी ANI ने वाशिंगटन से एक खबर चलायी जिसमें यह कहा गया कि रूस को "मौन" और "निहित" समर्थन देने के कारण और संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) में रूस (Russia) के खिलाफ यूक्रेन (Ukraine) पर आक्रमण करने के लिए लाये गए निंदा प्रस्ताव से अनुपस्थित रहने के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका भारत पर प्रतिबंध लगाने का विचार कर सकता है.
यह खबर अमेरिकी राजनयिक रिचर्ड लियू के हवाले से दी गई था जिनका कहना था कि भारत द्वारा रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली खरीदने के कारण प्रतिबन्ध लगाने पर विचार चल रहा है. इसी मिसाइल सिस्टम को खरीदने की वजह से अमेरिका ने तूर्की पर प्रतिबन्ध लगाया है, जबकि इस मामले में उसने भारत के खिलाफ इसलिए कोई कदम नहीं उठाया क्योंकि चीन को नियंत्रित करने के लिए भारत एक रणनीतिक साझेदार, सहयोगी और महत्वपूर्ण देश है.
भारत के साथ 34 और देश वोटिंग से दूर रहे
लियू के अनुसार, अमेरिका भारत को एक महत्वपूर्ण सुरक्षा भागीदार मानता है, लेकिन बड़ी संख्या में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन सांसदों ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के रुख के लिए उसकी आलोचना की है और बाइडेन प्रशासन ने अभी भारत पर प्रतिबंध लगाने के सम्बन्ध में कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया है. आप सभी जानते हैं कि यह केवल दिखावे के तेवर हो सकते हैं जिसे राजनयिकों का एक पसंदीदा गतिविधि माना जाता है और जो बिना किसी अर्थ के बहुत कुछ कहते हैं. अमेरिका उन सभी 34 अन्य देशों से स्पष्ट रूप से नाखुश है जो कि भारत के साथ रूस की निंदा करने वाले प्रस्ताव पर वोटिंग से दूर रहे.
हालांकि यह असंभव और दूर की कौड़ी लगता है, लेकिन सोचने वाली बात है कि तब क्या होगा जब यह दिखावे के तेवर न हों और अंकल सैम वास्तव में प्रतिबंधों को लगा देते हैं? व्यावहारिक और वास्तविकताओं के आधार पर भारत को दो चीज़ों का ध्यान रखना चाहिए. पहला यह है कि बिना किसी गंभीर प्रभाव के भारत का "प्रतिबंधों" के साथ रहने का इतिहास रहा है. दूसरा यह है कि चीन-शैली के आक्रामक कूटनीति का सहारा लिए बिना संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों को विनम्रतापूर्वक उनके ऐतिहासिक दोहरे मापदंडों के बारे में याद दिलाया जाए.
भारत प्रतिबंधों के डर से कभी नहीं रुका
सबसे पहले प्रतिबंधों के बारे में बात करते हैं. 1998 में एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालने के तुरंत बाद, अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ी ही शांति से दुनिया के सामने यह घोषणा की कि भारत ने परमाणु परीक्षण किया है और आधिकारिक तौर पर परमाणु शक्तियों के चुनिंदा क्लब में शामिल हो गया है. पाकिस्तान ने भी तुरंत अपने परमाणु हथियारों का परीक्षण करने का फैसला किया.
पलक झपकते ही भारत पर प्रतिबंधों की बाढ़ आ गयी. न सिर्फ अमेरिका बल्कि जापान, ऑस्ट्रेलिया और यहां तक की यूक्रेन जैसे देशों ने भी तुरंत कड़े प्रतिबन्ध लगा दिए. 13 मई 1998 को CNN की एक खबर के अनुसार तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा, "वे स्पष्ट रूप से अपने क्षेत्र में एक खतरनाक नई अस्थिरता पैदा करते हैं और इसके परिणामस्वरूप, अमेरिकी कानून के अनुसार, मैंने भारत के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है. जब एक अघोषित परमाणु राज्य परमाणु परीक्षण करता है तब अमेरिकी कानून के तहत प्रतिबंध अनिवार्य हैं."
उसके बाद क्या हुआ? ज्यादा नहीं संभवतः एक साल के भीतर ही वरिष्ठ अमेरिकी राजनयिक स्ट्रोब टैलबोट और भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह बातचीत के टेबल पर थे और उसकी परिणति अंततः भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के रूप में हुई. टैलबोट ने 'इंगेजिंग इंडिया: डिप्लोमेसी, डेमोक्रेसी एंड द बॉम्ब' शीर्षक से इस मुद्दे पर एक आकर्षक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने टिप्पणी की है कि कैसे पाकिस्तान अपने ही सिर पर बंदूक रखकर आपको परिणाम भुगतने की धमकी देता है! यह एक राजनयिक द्वारा लिखी गई एक दुर्लभ पुस्तक है जो वास्तव में दिलचस्प होने के साथ-साथ हास्य से भरपूर है.
अमेरिका की कोई भी ऐसी हरकत उसके लिए घातक होगी
1995 में परमाणु परीक्षण नहीं करने के लिए पीवी नरसिम्हा राव सरकार पर दबाव और रूस पर भारत को क्रायोजेनिक इंजन की आपूर्ति नहीं करने के दबाव का भी एक परोक्ष सन्दर्भ है. भारत ने अभी-अभी प्रतिबंधों से किनारा किया था. 1974 में, जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षणों की घोषणा की थी, तब और भी कठिन प्रतिबंध लगाए गए थे और भारत वस्तुतः सभी परमाणु, मिसाइल, कंप्यूटर और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से कट गया था. भारत को परिणाम भुगतना तो पड़ा. लेकिन सच्चाई ये है कि वो "गंभीर" प्रतिबंध भी वैश्विक आईटी और अंतरिक्ष शक्ति के रूप में भारत के उदय को नहीं रोक सके. तब, भारत को अपने अंतरिक्ष उपग्रहों को लॉन्च करने के लिए कोई देश नहीं मिलता था. आज भारत पश्चिम के विकसित देशों के भी उपग्रह प्रक्षेपित करता है.
जब उस वक्त दंडात्मक कार्रवाइयां काम नहीं आईं, तो अब यह सोचना कि वे असंख्य अमेरिकी कंपनियों के लिए एक विशाल बाजार के साथ 3 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था को पंगु बना देंगे, हास्यास्पद ही होगा. दूसरा मुद्दा अमेरिका और उसके सहयोगियों को उनके दोहरेपन और दोहरे मानकों का विनम्र तरीके से याद दिलाने का है. 1985 में, कनाडा से उड़ान भरने के बाद एयर इंडिया कनिष्क विमान को खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा आयरलैंड के ऊपर हवा में ही उड़ा दिया गया था.
दशकों की टाल-मटोल के बाद सिर्फ एक आतंकी इंद्रजीत सिंह रेयात को उम्रकैद की सजा मिली. उसे भी दो दशक जेल में रखने के बाद मानवीय आधार पर रिहा कर दिया गया. पूरे 1990 के दशक के दौरान, भारत पाकिस्तान द्वारा पाले और प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों और सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तानी जेहाद से बचे हुए आतंकवादी, जिन्होंने जम्मू और कश्मीर में आतंक का एक क्रूर अभियान शुरू किया, के खिलाफ भारत अमेरिका से सीधी कार्यवाही तो नहीं बल्कि सहयोग का अनुरोध करता रहा.
अमेरिका के लिए उसका राष्ट्र हित सबसे पहले आता है
डेमोक्रेट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के तहत अमेरिका ने न केवल भारतीय अनुरोधों को नजरअंदाज किया, बल्कि रॉबिन राफेल नामकी एक अमेरिकी राजनयिक (जिनका राजनयिक पति एक रहस्यमय विमान दुर्घटना में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक के साथ मारा गया था) ने भारत को लगातार लेक्चर दिया. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि जम्मू और कश्मीर संप्रभु भारत का अभिन्न अंग नहीं है. अमेरिकी राजनयिक भी राफेल के इस बेशर्मी भरे अराजनयिक व्यवहार के प्रदर्शन से शर्मिंदा थे. बाद में एफबीआई द्वारा तालिबान और आईएसआई के साथ संदिग्ध संबंधों के लिए उस महिला की जांच की गई और उन्हें विदेश विभाग से "सेवानिवृत्त" किया गया.
केवल 9/11 की घटना के बाद ही अमेरिका और उसके सहयोगियों ने आतंकवाद को गंभीरता से लेना शुरू किया और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध की घोषणा की. वास्तव में, अमेरिकी सरकार ने वाजपेयी सरकार को इराक पर आक्रमण करने पर अमेरिकी सहयोगियों के रूप में भारतीय सैनिकों को भेजने के लिए सुझाव देने का साहस किया था. अमेरिका के लिए उसका राष्ट्र हित सबसे पहले आता है. यही कारण है कि बाइडे प्रशासन ने भारत से कोई परामर्श किए बिना शर्मनाक तरीके से अफ़ग़ानिस्तान से वापसी कर ली और उस देश को उसके अपने हाल पर छोड़ दिया.
भारत को कोई द्वेष नहीं रखना चाहिए क्योंकि यही भू-राजनीति की हकीकत है. न ही उसे चीन की तरह आक्रामक होना चाहिए और अमेरिका पर एक दिखावटी लोकतंत्र होने का आरोप लगाना चाहिए जो दुनिया को बेवजह व्याख्यान देता है. ऐसे में अमेरिका के कानों में कुछ विनम्र रिमाइंडर ही पर्याप्त होंगे. जेफ बेजोस, सत्या नडेला, मार्क जुकरबर्ग और सुंदर पिचाई से किसी भारतीय पत्रकार द्वारा यह पूछना कितना दिलचस्प होगा कि भारत पर प्रतिबन्ध लगाने की दशा में उनकी कंपनियां क्या बाइडेन प्रशासन का सहयोग करेंगी?
Rani Sahu
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