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दो महाशक्तियों की जंग और यूक्रेन पर रूसी दबदबे की दास्तान
अतुल सिन्हा
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में यूक्रेन के प्रतिनिधि के बयान पर ज़रा गौर कीजिए। उसने साफ तौर पर ये आरोप लगा दिया है कि सुरक्षा परिषद पूरी तरह रूस के 'वायरस' का शिकार है और फिलहाल इस 'वायरस' की कोई कारगर 'वैक्सीन' नहीं है। इस बयान के कई मायने हैं। इसके जरिये अब यूक्रेन अमेरिका और यूएन पर दबाव डालना चाहता है कि वह खुलकर यूक्रेन की मदद के लिए आगे आए। साथ ही ये भी कि यूक्रेन को नाटो का सदस्य न बनाए जाने से ये गंभीर स्थिति पैदा हुई है।
दरअसल अमेरिकी प्रभुत्व वाले नाटो के तीस सदस्य देशों में यूक्रेन को शामिल करने को लेकर दो राय रही है और पिछले कई वर्षों से यूक्रेन की कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया है। तीसरे ये कि यूक्रेन अमेरिका को ये खुली चुनौती दे रहा है कि अगर वह रूस से ज्यादा ताकतवर है तो उसके पास इस 'रूसी वायरस' की 'वैक्सीन' होनी चाहिए।
रूस का लगातार ये दावा रहा है कि पूर्वी यूक्रेन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर रूस का हिस्सा रहा है लेकिन सोवियंत संघ के विघटन के बाद से स्वतंत्र हुए यूक्रेन पर अमेरिका अपना वर्चस्व कायम रखने और उसके जरिये रूस के करीब अपना सैन्य बेस बनाने की कोशिश करने की फिराक में है। जाहिर है रूस ऐसा नहीं होने देगा।
वर्चस्व की जंग
दूसरी तरफ रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की लगातार ये कोशिश रही है कि वह अमेरिका की पूरी दुनिया के सामने 'सर्वशक्तिमान' दिखाने वाली छवि को तोड़ें। पिछले करीब छह-सात दशकों से तमाम देश इन दोनों महाशक्तियों के बीच छिड़ी जंग और इसका दुनिया पर असर देख रहे हैं। चाहे वो ईरान का संकट हो, खाड़ी युद्ध हो, अफगानिस्तान का मसला हो या फिर दुनियाभर में फैला आतंकवाद और अलगाववाद का संकट।
इन दोनों ही साम्राज्यवादी ताकतों ने तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों को अपने अपने तरीके से चलाने की कोशिश की है और अपने फायदे के लिए तमाम देशों में आंतरिक संघर्षों और अलगाववादी समूहों के जरिये अशांति बरकरार रखने की रणनीति पर काम करते रहे हैं। दोनों ही महाशक्तियां अपने अपने वर्चस्व की जंग में लगातार शह और मात का खेल खेलती आई हैं और इनकी बिसात पर तीसरी दुनिया के तमाम देश मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। जाहिर है यूक्रेन कोई अपवाद नहीं है।
कोई भी देश अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता को गंवाना नहीं चाहता, अपनी सीमाएं सुरक्षित रखना चाहता है और अपनी सैन्य ताकत को लगातार मजबूत करके दुनिया के सामने अपनी अहमियत का एहसास कराना चाहता है। दुनिया का 46वां सबसे बड़ा देश यूक्रेन भी यही करता आया है।
रूसी राष्ट्रपति का ये दावा है कि रूस ने लंबे समय तक यूक्रेन की हर संभव मदद की है। अब भी रूस का मकसद यूक्रेन पर हमला करना नहीं, बल्कि रूसी भाषा और सांस्कृतिक विरासत वाले डोनबास प्रांत के दो औद्योगिक शहरों डोनेत्स्क और लुहांस्क को यूक्रेन के कब्जे से मुक्त करना भर है।
लेकिन अमेरिका बार-बार ये भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा है कि रूस यूक्रेन पर हमला करना चाहता है और उसे अपने कब्जे में करना चाहता है। यहां पहले से ही सक्रिय अलगाववादी संगठनों ने कब्जा कर रखा है। इन अलगाववादियों और यूक्रेन की सेना के बीच लगातार हमले होते रहे हैं जिसमें अबतक करीब 14 हजार लोग मारे जा चुके हैं। ये जंग यहां पिछले करीब एक दशक से चल रही है।
नाटो पर अटका तार
पड़ोसी देश होने की वजह से और सोवियत संघ के विघटन से पहले तक उसका हिस्सा रहने वाले यूक्रेन को लेकर अगर रूस वहां के नागरिकों की अस्मिता की लड़ाई में उनका साथ देता रहा है तो इसे वह अपना नैतिक दायित्व भी बताता है। लेकिन कूटनीतिक जानकार लगातार ये भी कहते आए हैं कि अमेरिका पूर्वी यूक्रेन में नाटो के सैन्य ठिकाने बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से रूस पर नजर रखना चाहता है जिसे रूस जानता है और इसीलिए वह लगातार नाटो का विरोध करता है और इसकी जरूरत पर सवाल उठाता है।
नाटो का गठन सोवियत संघ के ज़माने में हुआ था, लेकिन रूस का तर्क है कि जब सोवियत संघ ही नहीं रहा तो नाटो की जरूरत क्यों है। इसे भंग कर दिया जाना चाहिए। जबकि अमेरिका कूटनीतिक तौर पर नाटो के बहाने तमाम देशों में फैली अलगाववादी गतिविधियों को रोकने के लिए शांति सैनिक भेजकर अपना वर्चस्व बनाए रखने की रणनीति पर चलता रहा है।
अब रूस के इन दोनों प्रांतो पर कब्जा कर लेने के बाद वहां जश्न भी मनाए जा रहे हैं और इन प्रांतों के लोग भी इस बात से खुश नजर आ रहे हैं कि अब यहां अलगाववादी गुटों और यूक्रेन की सेना के बीच पिछले आठ साल से चल रही गोलाबारी और हमले बंद हो जाएंगे, इलाके में शांति रहेगी और रूस की सेना होने की वजह से वे सुरक्षित रहेंगे।
रूस जानता है कि इस कदम के बाद यूरोपीय देश और पश्चिम के तमाम देश उसपर आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे, कई तरह की बंदिशें लगेंगी, उसपर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के आरोप भी लगेंगे, लेकिन इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस तरह उसने 2014 में क्रीमिया को कब्जे में लिया था, उसी तरह इस बार भी उसने इन दोनों प्रांतों को स्वायत्त घोषित कर और वहां के अलगाववादी गुटों से समझौता कर अपना मकसद हासिल कर लिया है और अमेरिका के मंसूबों को फिलहाल नाकाम कर दिया है।
दो महाशक्तियों के युद्ध में भारत का क्या रुख?
हालांकि अमेरिका जिस तरह लगातार ये चेतावनी दे रहा है कि रूस यूक्रेन पर कभी भी हमला कर सकता है, उससे दहशत और असमंजस की स्थितियां बनी हुई है और भारत समेत तमाम देश अपने अपने नागरिकों को वहां से वापस बुलाने की शुरुआत कर चुके हैं। यूक्रेन में रहने वाले 20 हजार भारतीय भी वापस आ रहे हैं। भारत ने साफ कह दिया है कि सबसे पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा उसके लिए अहम है।
सुरक्षा परिषद में भी भारत लगातार अपना रुख साफ करता रहा है कि तमाम मसलों का हल मिल बैठकर शांति से होना चाहिए। यूक्रेन के मसले पर भी यही होना चाहिए। भारत के रूस और अमेरिका दोनों से ही करीबी व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्ते हैं और जाहिर है भारत अपने रिश्तों से कोई समझौता नहीं कर सकता।
पिछले करीब दो महीनों से बनी इस स्थिति का यह निर्णायक दौर है और यूक्रेन लगातार खबरों में है। वैसे भी युद्ध और अशांति के साथ साथ दो महाशक्तियों के टकराव की खबरों में हमेशा लोगों की दिलचस्पी रही है और वह भी तब जब मामला दो महाशक्तियों के बीच चल रही वर्चस्व की जंग का हो और गरजते हथियारों का। यूक्रेन अभी कुछ समय तक सुर्खियों में बना रहेगा और भारत में चुनावी गहमा गहमी के बीच भी यह खबर लोगों में दिलचस्पी पैदा करती रहेगी।
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