सम्पादकीय

चढ़ते शेयर से बढ़ती आशंकाएं

Deepa Sahu
12 Oct 2021 6:31 PM GMT
चढ़ते शेयर से बढ़ती आशंकाएं
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भारतीय शेयर बाजार की हैसियत लगातार बढ़ रही है।

अरुण कुमार, अर्थशास्त्रीभारतीय शेयर बाजार की हैसियत लगातार बढ़ रही है। बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैपिटलाइजेशन) के मामले में यह अब ब्रिटेन से बहुत पीछे नहीं है। इस साल भारतीय शेयर बाजार के मार्केट कैप में 37 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और यह बढ़कर 3.46 लाख करोड़ डॉलर हो गया है। इसके बरक्स, ब्रिटिश शेयर बाजार के मार्केट कैप में नौ फीसदी की वृद्धि देखी गई है और उसकी पूंजीगत हैसियत 3.59 लाख करोड़ डॉलर है। हालांकि, महामारी के बाद भारतीय शेयर बाजार में भी गिरावट आई थी, लेकिन जल्द ही इसने रफ्तार पकड़ ली और पिछले महीने इसने पहली बार फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए बाजार पूंजीकरण के मामले में छठा स्थान हासिल कर लिया। भारतीय शेयर बाजार की यह तेजी आम निवेशकों को आकर्षक लग सकती है। बावजूद इसके, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पिछले एक साल में कई बार कह चुके हैं कि वास्तविक अर्थव्यवस्था और वित्तीय क्षेत्र में कोई तालमेल नहीं दिख रहा है। आखिर क्यों?

इस सवाल का जवाब शेयर बाजार की मूल अवधारणा में छिपा है। किसी भी देश का शेयर बाजार इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उस देश की अर्थव्यवस्था से कितनी उम्मीद पाली जाए? आने वाले दिनों के भरोसेमंद दिखने पर ही शेयर बाजार की सूचीबद्ध कंपनियों में निवेश किया जाता है। अपने यहां ऐसी सूचीबद्ध कंपनियों की संख्या लगभग 6,000 है। हालांकि, इनमें से भी मूलत: 2,000 के करीब कंपनियों पर ज्यादातर निवेशक विश्वास करते हैं। अनुमान है कि इन छह हजार कंपनियों पर बमुश्किल 10-20 लाख लोग मालिकाना हक रखते होंगे। इसका अर्थ है कि 1.35 अरब की आबादी वाले इस देश में शेयर बाजार पर लगभग 0.1 फीसदी लोगों का ही नियंत्रण है। तो, शेयर बाजार में होने वाली तेजी मूलत: इनके लिए ही फायदेमंद है। बाकी, तीन-चार करोड़ आम निवेशकों को बहुत फायदा नहीं मिलता, क्योंकि वे सभी छोटे निवेशक हैं।
भारत के साथ दिक्कत यह है कि यहां की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का योगदान काफी ज्यादा है, लेकिन महिमामंडन संगठित क्षेत्र का किया जाता है। शेयर बाजार में न तो असंगठित क्षेत्र की कोई हिस्सेदारी है और न ही लघु व मध्यम उद्योगों की। यानी, भारतीय अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा शेयर बाजार से दूर है। जबकि, पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं क्षेत्रों को हुआ है। वास्तव में, शेयर बाजार में आ रही इस तेजी की एक वजह असगंठित क्षेत्र को हो रहा नुकसान भी है। विशेषकर नोटबंदी के बाद से असंगठित क्षेत्र के हिस्से की मांग संगठित क्षेत्र के खाते में चली गई है। रही-सही कसर जीएसटी और महामारी ने पूरी कर दी। असंगठित क्षेत्र को बेशक जीएसटी से बाहर रखा गया है, लेकिन संगठित क्षेत्र का इनपुट क्रेडिट इसको नुकसान पहुंचा रहा है। इसी तरह, कोरोना के बाद स्थानीय दुकानदार के बजाय लोग ऑनलाइन खरीदारी पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। नतीजतन, कंपनियों का लाभ बढ़ गया है और निवेशक यह उम्मीद करने लगे हैं कि आने वाले दिनों में ये कंपनियां कहीं अच्छा रिटर्न देंगी। इसीलिए, उन्होंने निवेश बढ़ा दिया है।
भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशक भी खूब आ रहे हैं। दुनिया के कई देशों में महामारी के दरम्यान राहत पैकेज जारी किए गए, जिससे बाजार में नकदी (तरलता) बढ़ी है। पहले के दिनों में बैंक या बचत योजनाओं जैसी निवेश के अन्य साधन थे, जिनमें अच्छा-खासा रिटर्न मिलता था। मगर कोरोना ने निवेशकों को यहां से निराश किया है। कई देशों में तो ब्याज निगेटिव हो गया है, जिसका अर्थ है कि वहां पैसों का निवेश करने पर निवेशक को ही ब्याज दर चुकानी पड़ रही है। भारत इस मामले में अभी अच्छी स्थिति में है। चूंकि यहां की टेक्नोलॉजी, ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग जैसी कंपनियों में स्थानीय निवेशकों का भी भरोसा है, इसलिए विदेशी निवेशक भी इनमें अपने लिए उम्मीद खोज रहे हैं। निवेश करने वालों में वे कंपनियां भी शामिल हैं, जो इसलिए भारतीय शेयर बाजार में निवेश कर रही हैं, ताकि वे स्थानीय कंपनियों पर अपना नियंत्रण बना सकें। यही कारण है कि डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने और तमाम जोखिम को देखने के बावजूद विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार पर भरोसा कर रहे हैं। हालांकि, इस आपाधापी में उन कंपनियों को भी फायदा हो रहा है, जो तुलनात्मक रूप से कमजोर हैं। इन सब कारकों ने यहां मूल्य-आय अनुपात (कंपनी के शेयर की कीमत और शेयर से मिले लाभ का अनुपात) काफी ज्यादा बढ़ा दिया है। लाभांश और पूंजीगत लाभ (निवेश का बिक्री मूल्य उसकी खरीद से ज्यादा हो) मिलाकर निवेशक को काफी अच्छा फायदा मिल रहा है। लेकिन यदि यह दस फीसदी के करीब गिर गया, तो बैंक की ब्याज दर से कम रिटर्न मिल सकता है। लिहाजा, बाजार पूंजीकरण जब तक बढ़ता रहेगा, निवेशकों की चांदी बनी रहेगी, पर जैसे ही यह स्थिर हो जाएगा या बढ़ना बंद होगा, निवेशकों के हाथ खींचने से शेयर बाजार धड़ाम से गिर सकता है। इसका नुकसान बड़े निवेशकों को तो शायद ही होगा।
यहां 1992 का हर्षद मेहता घोटाला हमारे लिए सबक हो सकता है, जिसमें छोटे निवेशकों की पूरी की पूरी जमा-पूंजी तक डूब गई थी। इसका एक बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि हमारे शेयर बाजार को लेकर जो सकारात्मक माहौल विश्व अर्थव्यवस्था में बना है, वह भी झटके से बदल जाए। मूल्य-आय अनुपात में काफी तेजी से इस आशंका को बल मिलता है। साफ है, इस बुलबुले को थामने के लिए विशेष प्रयास की जरूरत है। संभव हो, तो सरकार शेयर बाजार में रोजाना होने वाली खरीद-बिकवाली पर कुछ 'ट्रांजेक्शन चार्ज' लगाए। इससे न सिर्फ शेयर बाजार की अस्थिरता घटेगी, बल्कि सामाजिक क्षेत्र को भी पैसा मिल सकेगा। फिलहाल, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में काफी निवेश की दरकार है। इससे नए रोजगार का भी सृजन हो सकेगा। फिर, स्पेक्युलेशन, यानी अनुमान-आधारित शेयर बाजार की यह ऊंचाई वास्तविक निवेश की तरफ से लोगों का मुंह मोड़ रही है, क्योंकि अगर अनुमान लगाने मात्र से ही एक साल में हमें अच्छा-खासा रिटर्न मिल रहा हो, तो नई इंडस्ट्री में, जिसमें पांच साल के बाद रिर्टन आएगा, निवेशक क्यों पैसे लगाएंगे? इसका हमारी अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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