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- बढ़ते अपराध और असंतुलित...
ज्योति सिडाना; यह सच है कि अपराध को समाज से पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि समाज द्वंद्वात्मकताओं से निर्मित एक यथार्थ है, लेकिन कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता को तो स्थापित किया ही जा सकता है, ताकि एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना को संभव बनाया जा सके।
किसी भी समाज में अपराध का बढ़ना समाज में असंतुलन की स्थिति पैदा करता है। इसलिए भारत में बढ़ती अपराध की दर चिंता का कारण बनता जा रहा है। ऐसा नहीं कि हमारे देश में अपराध रोकने के लिए कोई कानून नहीं है या अपराधियों को दंडित करने के प्रावधान नहीं हैं, पर यह कह सकते हैं कि संभवत: लोगों में कानून का भय समाप्त हो चुका है।
वैसे तो हमारे संविधान में लिखा है कि कानून की नजर में सभी समान हैं, लेकिन क्या वास्तव में यह सिद्धांत मूर्त रूप ले पाया है? समाज वैज्ञानिक फ्रैंक पीयर्स का मत है कि कानूनों का लाभ दिखने में ऐसा लगता है कि अधीनस्थ लोगों को मिलता है, जबकि वास्तव में यह शासक वर्ग का उपकरण है और उनके लाभ के लिए ही सक्रिय होता है। संभवत: यह भी एक कारण हो सकता है कि अपराध की दर में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है।
हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2021 में महिलाओं के विरुद्ध प्रति घंटे उनचास अपराध दर्ज किए गए। यानी एक दिन में औसतन छियासी मामले दर्ज किए गए। 2021 में बलात्कार के 31,677 मामले दर्ज हुए, जबकि 2020 में यह संख्या 28,046 थी। इसी तरह अगर राज्यवार महिलाओं के विरुद्ध अपराध की दर देखी जाए तो राजस्थान (6,337) पहले स्थान पर है, फिर मध्य प्रदेश (2,947), महाराष्ट्र (2,496), उत्तर प्रदेश (2,845) और दिल्ली (1,250) हैं।
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में बलात्कार, हत्या के साथ बलात्कार, दहेज, तेजाब हमले, आत्महत्या के लिए उकसाना, अपहरण, जबरन शादी, मानव तस्करी, आनलाइन उत्पीड़न जैसे अपराध शामिल हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें, तो जब समाज में अपराध की दर असामान्य रूप से बढ़ने लगती है तो इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि उस समाज के नागरिकों में सामूहिक भावनाओं के प्रति प्रतिबद्धता बहुत कमजोर है। यह भी तथ्य है कि ऐसे समाज में प्रगति और परिवर्तन की संभावनाएं कम हो जाती हैं। अपराध के कारणों में हम निर्धनता, बेरोजगारी, गैरबराबरी, शोषण, सांप्रदायिकता, दंगे-फसाद आदि की चर्चा कर सकते हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि अश्लील विज्ञापनों और नग्न प्रदर्शनों ने समाज में व्यभिचार को बढ़ावा दिया है। हर व्यक्ति रातोरात अकूत धन कमाना चाहता है, परिणामस्वरूप समाज में अपराध तेजी से बढ़ रहा है। संसाधनों का असमान वितरण, रोजगार के अवसरों की कमी, जाति और भाई भतीजावाद के आधार पर योग्यता की उपेक्षा आदि ऐसे पक्ष हैं, जो युवाओं/ किशोरों को अपराध की ओर धकेलते हैं।
आज के उपभोक्तावादी समाज में व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को नहीं, बल्कि लालसाओं को पूरा करने पर बल देता है। और यह सच है कि आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं, लेकिन लालच कभी समाप्त नहीं होता। अब अपराधियों को समाज या कानून का भय नहीं होता, क्योंकि नई तकनीक आने के बाद साइबर अपराध की घटनाएं भी बढ़ने लगी हैं। अपराधी अनेक छद्म पहचानों से आपराधिक गतिविधियों को आसानी से अंजाम देते हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली पूरे देश में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर है। निर्भया कांड के दस साल बाद भी कोई खास सुधार या बदलाव नहीं हुआ है। दिल्ली में पिछले साल यानी 2021 में हर दिन दो नाबालिग लड़कियों से बलात्कार हुआ। हाल ही में प्रकाशित 'क्राइम इन इंडिया-2021' रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 2021 में बलात्कार, अपहरण और पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता के मामलों में भी भारी वृद्धि देखी गई। दिल्ली के बाद मुंबई, बंगलुरु जैसे विकसित और स्मार्ट महानगरों का स्थान आता है, जहां इस तरह के अपराध अधिक होते हैं। विकसित और प्रगतिशील नगरों और राज्यों में अपराध की घटनाएं अधिक हो रही हैं, तो क्या यह तर्क दिया जा सकता है कि विकास और अपराध के बीच कोई सहसंबंध है। चूंकि आंकड़ों से ज्ञात होता है कि जिन नगरों में विकास अधिक हुआ है वहां अपराध की दर भी बढ़ी है।
कुछ दिनों पहले झारखंड के दुमका की घटना ने फिर महिला सुरक्षा को लेकर सरकारों के दावों के सच को उजागर कर दिया। बताया जा रहा है कि आरोपी लड़का लड़की से एकतरफा प्यार करता था और लंबे समय से युवती को परेशान कर रहा था। जब युवती से सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली तो उसने रात को युवती के कमरे में खिड़की से पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी। अगर यह प्यार है तो फिर नफरत की परिभाषा क्या होगी! आखिर यह कैसा समाज उभर रहा है जहां भावनाएं महत्त्वहीन या कहें कि अर्थहीन हो गई हैं। क्या भावना-रहित मानव की संकल्पना अस्तित्व में आ रही है। शायद हां, तभी मनुष्य मशीनों में भावनाएं ढूंढ़ और मनुष्य को मशीन में बदल रहे हैं।
इसलिए अपराध करने वाला अपरिचित हो, इसकी संभावनाएं तुलनात्मक रूप से कम होती हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों में अधिकांशत: उनका अपना ही कोई नजदीकी या परिवार का सदस्य शामिल होता है (जैसे भाई, पिता, पुत्र, पति, ससुर, मित्र)। प्रत्येक सार्वजनिक मंच से महिला सुरक्षा के दावे तो किए जाते हैं, मगर यथार्थ में उन दावों को यथार्थ में बदलने के लिए कुछ खास नहीं किया जाता।
यही कारण है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों को रोक पाना संभव नहीं हो रहा। कभी साक्ष्यों के अभाव में, कभी ढुलमुल न्यायायिक प्रक्रिया के कारण और कभी आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व के कारण दोषी को सजा मिल ही नहीं पाती। ऐसे में कानून के भय का समाप्त होना स्वाभाविक है। यह भी एक तथ्य है कि वैश्वीकरण के बाद से धन और शक्ति का असमान वितरण तथा प्रौद्योगिकी का तीव्र विकास भी अपराध का महत्त्वपूर्ण कारण बन कर उभरा है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बलात्कार स्त्रीत्व का अपमान तो है ही, एक जघन्य अपराध भी है। इसे एक विरोधाभास ही कहा जा सकता है कि एक तरफ हम विश्व मंच पर महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता तथा विकास कार्यों में महिलाओं की समान सहभागिता जैसे मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं (या दिखावा कर रहे हैं), दूसरी तरफ महिलाओं के विरुद्ध बढती हिंसा और दुर्व्यवहार के मामलों पर मौन संस्कृति के पक्षधर बने हुए हैं।
एक तरफ नवरात्रि में कन्याओं का पूजन किया जाता है, उनकी पूजा करके उनसे सुख समृद्धि की कामना की जाती है और दूसरे ही दिन किसी कन्या के साथ दुर्व्यवहार करके उससे जीने का अधिकार ही छीन लिया जाता है इसे (पुरुष) समाज का दोहरापन ही कहा जा सकता है। महिला, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के संदर्भों में क्यों संविधान की परिभाषा बदल जाती या बदल दी जाती है? अगर कानून, संविधान और न्यायालय जैसी सामाजिक नियंत्रण की संस्थाएं भी पूर्वाग्रहों से निर्देशित होती हैं तो कैसे संभव है कि इन अपराधों को रोका जा सके या फिर महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों का कोई अलग संविधान निर्मित करना होगा?
अपराध किसी भी प्रकार का हो या किसी के प्रति भी हो हर स्थिति में समाज में विघटन और बिखराव ही उत्पन्न करता है। यह सच है कि अपराध को समाज से पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि समाज द्वंद्वात्मकताओं से निर्मित एक यथार्थ है, लेकिन कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता को तो स्थापित किया ही जा सकता है, ताकि एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना को संभव बनाया जा सके। इसके लिए जरूरी है कि राज्य, पुलिस, समाज और न्यायायिक संस्थाएं प्रतिबद्धता के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करें।