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सयाने कहते हैं जीवन खेल है। शायद इसीलिए व्यक्ति सारा जीवन खेलता रहता है। अब खेलना है तो खेलने के लिए झुनझुने तो चाहिए ही। कुछ झुनझुने व्यक्ति ख़ुद ढूँढ़ लेता है और कुछ समाज मुहैया करवाता है। लेकिन विश्वगुरु जैसे लोकतांत्रिक देश में कल्याणकारी सरकारें सब्सिडी के नाम पर आज़ादी के बाद से जो झुनझुने बाँटती आ रही हैं वे कुत्ते की ऐसी हडिड्याँ हैं, जिन्हें चूसने पर आदमी को स्वाद तो आता है, पर स्वाद होता है अपने ही ख़ून का। जिस तरह घर के काम में व्यस्त माँ बच्चे के रोने पर उसके मुँह में चुसनी डाल देती है, उसी तरह जनता के शोर डालने पर सरकारें उनके मुँह में सब्सिडी का चुग्गा डाल कर उन्हें चुप करवा देती है या चुनाव का जाल बिछाती है। आजकल दो जुमलाबाज़ों में घोर प्रतिस्पर्धा चल रही है। दोनों ही देश की राजधानी में बिराजते हैं। एक शेर है तो दूसरा सवा शेर। एक डाल-डाल है तो दूसरा पात-पात। एक कथित रूप से उस खाली रेलवे स्टेशन पर चाय बेचता था, जहाँ रेलगाडिय़ाँ कभी रुकती नहीं थी और दूसरा सरकारी नौकरी के दौरान आरम्भ रणछोड़ लीला को दिल्ली के रामलीला मैदान में सम्पन्न करने के बाद सुविधा सुलभ देश सेवा में लीन है। एक जुमले बेचने का अभिनय करता है तो दूसरा रेवडिय़ाँ अर्थात् फ्रीबीज़ का।
यह बात अलग है कि न जुमलों के बिना रेवडिय़ाँ बेची जा सकती हैं और रेवडिय़ों के बिना जुमले। लेकिन शेर की खाल में दोनों उस भीड़ में अपना मजमा लगाते हैं जो खाली पेट सब्सिडी के सपने देखती है। ऐसी भीड़ ज़हर भी, मुफ़्त या सब्सिडी मिलने पर यह सोच कर घर में रख लेती है कि कभी तो काम आएगा। अपना समय जाता देख आजकल देश का शेर, दिल्ली के शेर की फ्रीबीज़ से भयभीत नजऱ आ रहा है। यह उसकी अदा है कि अपने पक्ष में दिखने वाली हर चीज़ उसे सोन पापड़ी नजऱ आती है और दूसरे के पक्ष में नजऱ आने वाली रेवड़ी। अधिकतर जुमलों से काम चलाने में माहिर देश का शेर तभी अपने क़दम बढ़ाता है, जब उसे इवेंट मेनेजमैंट या मीडिया के ढोल की थाप मिले। देश हो चाहे विदेश। सत्तर साल से देश में फैले असंतोष से उपजे वैक्यूम से प्रकट हुए अवतार या देश के शेर को अब अपने शासन से उपज रहे वैक्यूम से डर लगने लगा है। हो सकता है कि इस वैक्यूम पर दिल्ली का शेर फ्रीबीज़ का रूमाल बिछा कर देश का शेर बन जाए। सब्सिडीजीवी जनता मेले में देश के मदारी के मजमे की बजाय राजधानी के मदारी के मजमे में खड़ी होकर उसे विश्वगुरू की बागडोर सौंप दे। इसी डर से देश का शेर न्याय के लिए उच्चतम पंचायत की उस चौपाल में पहुँच गया है, जहाँ मुँशी प्रेमचंद का पंच परमेश्वर नहीं, सरकार द्वारा नियुक्त पंच परमेश्वर न्याय करते हैं। न्याय होगा, और ज़रूर होगा। देश के शेर के पक्ष में होगा।
फ्रीबीज़ पर रोक लगेगी क्योंकि यह देश के लिए हानिकारक है। केवल जुमले और सब्सिडी देश के लिए फायदेमंद हैं। पचहत्तर सालों में देश में हुआ विकास चीख-चीख कर यही प्रतिध्वनि उत्पन्न कर रहा है। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। अब जुमलों को हक़ीक़त में बदलने का सही वक्त आ चुका है। भले ही अभूतपूर्व सरकार विदेशी बैंकों में जमा उस काले धन को देश में वापस नहीं ला पाई है, जिसके आधार पर लोगों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए डालने का जुमला हवा में फैंका गया था। लेकिन रोज़मर्रा जीवन से जुड़े उत्पादों दूध, दही, पनीर वग़ैरह के बाद अब सरकार जल्द ही साँसों की गिनती के आधार पर नया जीएसटी लगाएगी। इस तरह अभूतपूर्व युगपुरुष के अभूतपूर्व शासन काल में दस सालों में हुए अभूतपूर्व विकास से एकत्रित अभूतपूर्व जीएसटी से लोगों के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए डालने के अभूतपूर्व जुमले को हक़ीक़त में पूरा किया जा सकेगा।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
By: divyahimachal
Rani Sahu
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