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पिछड़ी और अनुसूचित जातियों की सूची में आना-जाना, जुड़ना-घटाना वस्तुत
पिछड़ी और अनुसूचित जातियों की सूची में आना-जाना, जुड़ना-घटाना वस्तुत: जनतंत्र में राज्य द्वारा प्रदत्त अवसरों, सुविधाओं एवं सामाजिक समूहों को गतिमान बनाने के लिए चलाई जा रही योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ा है। ऐसे में, राज्यों को ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियों) की सूची बनाने और उसमें जोड़-घटाव करने की शक्ति का मिलना एक सकारात्मक कदम है। राज्य सरकारें तुलनात्मक रूप से राज्य की जनता के अधिक करीब होती हैं, वे उनमें हो रहे बदलावों को पास से देख एवं समझ रही होती हैं। ऐसे में, ओबीसी में किन जातियों को जुड़ना चाहिए या किन्हें अलग करना चाहिए, यह अधिकार केंद्र से राज्यों को स्थानांतरित होना जरूरी ही था। साथ ही, उन्हें इसमें बदलाव करने की वैधानिक शक्ति का दिया जाना भी भारत के प्रशासनिक इतिहास में एक जरूरी और निर्णायक कदम है।
ओबीसी से किसी जाति या समूह का जुड़ना भारतीय जनतंत्र द्वारा प्रदत्त विकास के अवसरों से जुड़ जाना है, इसीलिए कई प्रभावी जातियां जो पहले ऊंचे सामाजिक ओहदे पर बैठी (ऊंची जातियां) मानी जाती रही हैं, वे अब 'अन्य पिछड़ी जातियों' की श्रेणी में आना चाहती हैं। पहले भारतीय समाज में ऊंची जाति होने की होड़ थी, अब ओबीसी एवं अनुसूचित जाति की सूची में आने की प्रतिद्वंद्विता मची है।
ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि जनतंत्र ने शक्ति एवं सम्मान के प्रतीकों में बड़ा बदलाव किया है। पहले की समाज व्यवस्था में ऊंचे पायदान पर खड़ी जातियों को जो सामाजिक अवसर व सम्मान हासिल था, वह क्षरित तो हुआ ही है, साथ ही, जनतंत्र एवं आधुनिकता ने विकास, गतिशीलता व सम्मान के नए अवसर निर्मित किए हैं, जो ओबीसी और अनुसूचित जाति जैसी कोटियों में शामिल होने से ही मिल सकता है। यूं तो ओबीसी की प्रभावी जातियां अंग्रेजों के जमाने में ही अपनी विकसित हो रही राजनीतिक व जनतांत्रिक आकांक्षाओं के कारण ऊंचे पायदान पर बैठी जातियों से प्रतिद्वंद्विता करने लगी थीं, किंतु आजादी के बाद देश के बडे़ नेता राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में संगठित एवं गोलबंद हो, विकास के अवसरों में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग रखी थी। उस वक्त एक नारा पिछड़ा मांगे सौ में साठ देश के गांव-गांव में गूंजने लगा था। मध्यवर्ती जातियों में आगे बढ़ने एवं ऊंची जातियों के सामाजिक-राजनीतिक महत्व को चुनौती देने की चाह बढ़ने लगी थी। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आंचल व अन्य कहानियां अत्यंत सजीव ढंग से आजादी के बाद के इस परिवर्तन को रेखांकित कर रही थीं। इसी चाहत ने आगे चलकर इतनी बड़ी राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली कि इन सामाजिक समूहों के अपने नेता व अपनी पार्टियां बनने लगीं। इन्हीं बढ़ती हुई 'अन्य पिछड़ी जातियों' की राजनीतिक शक्ति व आकांक्षाओं के दबाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं। इसने ओबीसी से जुड़ने को एक बड़े अवसर में बदल दिया। परिणाम यह हुआ कि कई जातियां और सामाजिक समूह ओबीसी श्रेणी से जुड़ने के लिए राजनीतिक दबाव बनाने लगे। महाराष्ट्र में मराठा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में जाट, कर्नाटक में लिंगायत, गुजरात में पटेल अपने-अपने राज्य में प्रभावी सामाजिक समूह हैं। ये जातियां पिछले दशकों से ओबीसी श्रेणी में आने की लड़ाई लड़ रही हैं। इन राज्यों में किसी की भी सरकार हो, वह इन समूहों को नाराज नहीं करना चाहेगी। फलत: कई बार इन्हें ओबीसी श्रेणी में लाने की चाहत राज्य सरकारों ने जाहिर की, लेकिन सांविधानिक अड़चनों और उनके अपने दायरों के कारण यह संभव न हो सका। अब संसद से पारित इस बिल से ऐसी अड़चनें दूर होंगी और ऐसे कई समूहों का ओबीसी श्रेणी से जुड़ने का मार्ग प्रशस्त होगा।
किंतु राज्यों को यह अधिकार मिलने की कुछ सीमाएं भी हैं और इससे कुछ प्रश्न भी उभरते हैं। पहली समस्या तो यही उभरती है कि अगर प्रभावी जातियां ओबीसी श्रेणी में आती हैं, तो क्या ओबीसी कोटि के प्रभावी सामाजिक समूहों के साथ इनका जनतांत्रिक सुविधाओं व अवसरों पर दावों के लिए टकराव बढे़गा। अगर ऐसा हुआ, तो एक राजनीतिक गोलबंदी तो बन सकती है, पर क्या इससे एक सामाजिक टकराव की स्थिति बनेगी? ऐसा हो सकता है, लेकिन धीरे-धीरे दैनिक जीवन के अपने दबाव समाज में स्वत: एक प्रकार का 'एडजस्टमेंट' या समायोजन पैदा कर देते हैं। फलत: ऐसे टकराव अगर हुए भी, तो शायद ज्यादा दिन नहीं चल पाएंगे। ऐसे तनाव संभव है, भीतर-भीतर तो प्रवाहित होते रहें, पर खुलकर सामने न आ पाएं। दूसरी स्थिति यह बनती है कि राज्यों को ऐसे अधिकार मिलने पर संभव है, राजनीतिक रूप से प्रभावी समूह ही इस कोटि में जुड़ने की लड़ाई जीत पाएं। ऐसे में, राज्य सरकारों को यह ध्यान रखना होगा कि संख्या बल में छोटे व कम प्रभावी सामाजिक समूहों को भी इस स्थिति का लाभ मिले। ऐसे में, राज्य सरकारों का यह नैतिक और वैधानिक दायित्व बनता है कि वे ओबीसी श्रेणी की छोटी-छोटी जातियों एवं सामाजिक समूहों को भी जनतांत्रिक सुविधाओं और अवसरों में उचित हिस्सेदारी सुनिश्चित करें। उन्हें यह देखना होगा कि चंद प्रभावी सामाजिक समूह ही सामाजिक न्याय के अवसरों के अधिकांश पर कब्जा न कर लें।
इस प्रक्रिया में एक और अहम बात यह है कि राज्यों को मिल रहे ओबीसी निर्धारण अधिकार के न्यायपरक उपयोग के लिए जाति आधारित जनगणना अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद जरूरी हो जाएगी। यदि जाति-जनगणना होती है, तो सत्ता और सरकारों को यह देखना होगा कि इससे जो सामाजिक समूह संख्या बल में प्रभावी होकर उभरेंगे, उन्हीं सामाजिक समूहों के हाथों में शक्ति व विकास के अवसर न केंद्रित हो जाएं। ऐसे में, आंकड़े और संख्या को हमें सामाजिक-आर्थिक पिछडे़पन की स्थिति से जोड़कर रखना, समझना व समझाना होगा, ताकि छोटे संख्या बल वाले सामाजिक समूहों के हितों की रक्षा हो सके। भारतीय जनतंत्र में कई बार संख्या बल मुक्तिकारी होता है, तो कई बार वह दमित करता है। हमें जनतंत्र के हर लाभ को नियोजित करते वक्त यह देखना होगा कि किस प्रकार राज्य द्वारा प्रदत्त लाभ समाज के सीमांत पर बैठे आदमी तक पहुंच पाए, जो गांधी व आंबेडकर जैसे महापुरुषों का सपना रहा है। संभव है, ऐसे सुधारों को अगर सम्यक ढंग से लागू किया जाए, तो भारत का जनतंत्र सही मायने में सामाजिक जनतंत्र का रूप ले पाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान
Gulabi
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