- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- एक उधड़े कोट की
x
प्रिय मित्रो, हमें लगता है अब इस नये जमाने में आपको अपनी पुरानी सोच का परित्याग करना पड़ेगा। जो कल अच्छा था वह अब समय बीतने के साथ बोसीदा हो गया है। अब इसे सुधारने का प्रयास करोगे, तो ऐसे लगेगा कि जैसे आप अपने उधड़े हुए कोट के बखिये मरम्मत करने की कोशिश कर रहे हैं। अब इस मरम्मत को क्या कहें? एक ओर से बखिया सीते हैं तो दूसरी ओर से उधड़ जाता है। क्यों न जो कोट इन सदियों जैसे बरसों से हम पर लदा है और हमें फटीचर हो जाने का एहसास करवा रहा है, जी हां, क्यों न इसे उठा कर एक ओर फेंक दिया जाए और इसकी जगह एक बिल्कुल नया कोट पहन लिया जाए। माशा अल्लाह। बात देश के अस्सी प्रतिशत लोगों की गरीबी या उनकी बढ़ती महंगाई की मार या उन पर लदे बेकारी के बढ़ते बोझ को घटाने की हो रही थी, और आप फटे पुराने कोट की उधडऩ सीने की जगह नये कोट की तलाश में चल दिये। अजी हम कहां चले हैं? यह बेनूर आंखें और बेसहारा कदम ही नई जिंदगी की तलाश में भटक कर हमें बताते हैं कि अरे, पुराने फटे कोटों की उधडऩ को रो रहे हो, अपनी मैली कमीज और फटी बनियान की फिक्र करो। कहीं वह भी नदारद न हो जाये। क्योंकि इसकी मौजूदा हालत में तो इसे कोई गिरवी रख कर भी आपको एक जून पेट भरने का वसीला देने से रहा। बहुत बरस पहले जब इस देश में आजादी के चिराग जले थे, तब देश के मसीहाओं ने फैसला किया था कि सरकारी उद्यम और निवेश, और लाला लोगों का निजी व्यापार-धंधा आपस में गलबहियां डाल कर चलेगा।
जीवन की भीख मांगते पिछड़े लोगों का खाली ओसारा सरकारी क्षेत्र अपने लाभ की परवाह किये बगैर जनकल्याण से भरेगा। ऊंची अटारियों वाला निजी क्षेत्र बढ़ते लाभ की पताका फहराने की धुन में देश को प्रगति की ऐसी दौड़ देगा कि ये अटारियां चाहे और कितनी ऊंची हो जाएं, इनकी खिड़कियों से गिरता दाव सौगात बन वंचितों के नंगे कंधों पर नया कोट बन कर लद सकेगा। जनाब फिर साल दर साल पंचवर्षीय योजना बन कर गुजरते गये। निजी क्षेत्र की अटारियां रूप बदल कर बहुमंजिले मॉल-प्लाजा बन गये। गरीब के कन्धों का वह एहसास भी खत्म हो गया कि उसके कन्धों पर कोई फटा हुआ कोट कभी रहा है। रफूगर किस उधड़ी हुई सीन को सिये? वहां तो कोई कोट ही नहीं रहा। हां, बाबूडम की रियासत जरूर बन गई। सरकारी उद्यम की कारगुजारी और उसके द्वारा फहरायी जाने वाली कल्याण पताका एक ऐसी कटी पतंग बनी, जो उनकी बस्तियों के ऊपर से गुजरती हुई डिजिटल तरंगों में उलझ कर रह गई।
क्या करें इस बीच जमाना कयामत की चाल चल गया। आनलाइन हो गया। लेकिन उसका परिसर लकदक बस्तियों की सीमायें न लांघ पाया। शेष देश इतने बरसों रोटी, कपड़ा और मकान वाले अच्छे दिनों का इंतजार कर रहा था, वह आनलाइन हो सकने की चाहत के साथ स्मार्ट फोन बंटने की खैराती कतार में लग गया। लीजिये, ऐसी प्रगति न घर की रही न घाट की। ‘आनलाइन’ होकर डिजिटल हो जाने का नया कंगूरा क्या छूते? यहां तो ‘ऑफ लाइन’ की पटरी से भी उतर गये। अभी बड़े लोगों के नये चिन्तन ने एक पैगाम दे दिया। आक्सफैम के सर्वेक्षण आंकड़ों पर मत जाओ कि महामारी के सैलाब में दस प्रतिशत अरबपति तो खरबपति हो गए, और नब्बे प्रतिशत अपने पुराने तार-तार हो गए कोटों के लिए रफूगर तलाश रहे हैं। लेकिन इनको मंदी लग गयी है। जब उनके लिए नये कपड़े ही नहीं बिकेंगे, तो रफूगर चौराहों पर जमा भिखारी ब्रिगेड में शामिल होकर अपने लिए रोटी तलाशने का नया धंधा न अपना लें तो क्या करें?
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
Next Story