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Written by जनसत्ता: वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने भरोसा दिलाया है कि अब महंगाई कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। सरकार का ध्यान अब रोजगार सृजन पर है। उनके अनुसार महंगाई का रुख लगातार नीचे की तरफ बना हुआ है और जल्दी ही यह संतोषजनक स्तर पर पहुंच जाएगी। निस्संदेह वित्तमंत्री की इस बेफिक्री और आत्मविश्वास से जल्दी ही बेहतरी की उम्मीद जगती है। मगर क्या सचमुच यह इतना आसान मामला है! दरअसल, चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर के आंकड़े जारी होने के बाद केंद्र सरकार उत्साहित है।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने भी कहा कि भारत ने विकास दर के मामले में ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ दिया है। वित्तमंत्री ने भी लगभग वही बात दूसरे शब्दों में दोहराई है। हालांकि हमारा रिजर्व बैंक खुद अभी महंगाई के संतोषजनक स्तर पर आने और उम्मीद के मुताबिक विकास दर बढ़ने को लेकर आश्वस्त नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भी भारत की विकास दर को लेकर अपना अनुमान कई बार बदल चुकी हैं। ताजा विकास दर को लेकर विशेषज्ञ और कारोबारी इसलिए उत्साहित नहीं हैं कि आधार वर्ष के पैमाने पर यह चार फीसद से नीचे ही है। इसके बावजूद अगर वित्तमंत्री महंगाई के काबू में आ जाने और विकास दर के एकदम से उछाल ले लेने का भरोसा है, तो निस्संदेह उनका गणित कुछ और होगा।
महंगाई के आंकड़ों से भले वित्तमंत्री उत्साहित और आश्वत हों, पर हकीकत में स्थिति क्या है, शायद इसका अनुमान उन्हें न होगा। आम लोगों को बाजार में वस्तुओं की कीमतें कितनी चुकानी पड़ रही हैं और उनके खर्च की क्षमता कितनी बढ़ी है, इसका आकलन करना चाहिए। अगर सचमुच महंगाई घट गई है और फिर भी लोगों ने खर्च के मामले में अपने हाथ रोक रखे हैं, तो इसका मतलब है कि उनकी क्रयशक्ति काफी कम हो चुकी है। जहां तक नए रोजगार सृजन की बात है, वह उद्योग-धंधों के विकास पर निर्भर करता है।
कोरोना काल के बाद कुछ उद्यमों में विकास दर जरूर कुछ बढ़ी है, पर इसका मतलब यह नहीं कि समग्र रूप से औद्योगिक क्षेत्र में तरक्की हुई है। सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्योगों में सबसे अधिक रोजगार पैदा होते हैं, मगर उनकी दुर्दशा वित्तमंत्री से छिपी नहीं है। निर्यात बढ़ाने और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पा रही, जिसका नतीजा है कि विदेशी मुद्रा भंडार छीज रहा है। इन स्थितियों में नए रोजगार सृजन की कितनी उम्मीद की जा सकती है।
आत्मविश्वास अच्छी बात है, इससे विषम परिस्थितियों से पार पाने का साहस बना रहता है। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि हकीकत से नजरें चुरा ली जाएं। सरकारी खर्च में मामूली कटौती दर्ज हुई है, पर अनेक महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की गति थम गई है। सबसे बड़ी हकीकत है कि रोजगार के अवसर छिन जाने की वजह से हजारों की संख्या में कामगार वर्ग के लोगों ने खुदकुशी कर ली। भारत औसत आय के पैमाने पर दुनिया के देशों में एक सौ पैंतालीसवें स्थान पर है। बेहतरी केवल आंकड़ों में नहीं, जमीन पर भी दिखनी चाहिए।
मगर इसके लिए जरूरी है कि पहले वास्तविकता को स्वीकार किया जाए और फिर उसके कमजोर पक्षों को सुधारने की दिशा में आगे बढ़ा जाए। मगर वित्तमंत्री शायद हकीकत से आंखें मिलाना नहीं चाहतीं या मिलाना नहीं जानतीं, इसलिए जब तब वे कुछ ऐसा बयान दे देती हैं, जिससे अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी गंभीरता पर प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं। उन्हें वास्तविकता से आंखें मिलाना चाहिए।