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यह विषय इतना सामयिक हो गया है कि निरंतर विवाद के बावजूद हल होने का नाम ही नहीं लेता। साहित्यकार और असली साहित्यकार का फर्क समझ में तो आता है, परंतु उसकी मान्यता गले नहीं उतर पाती। आदमी जब साहित्यकार हो जाता है तब वह आम आदमी से पर्याप्त रूप से भिन्नताएं ग्रहण करता है और यदि असली साहित्यकार बन जाए तो हद से ज्यादा विशिष्ट बन जाता है। साहित्यकार और असली साहित्यकार के भेद को समझना आज की स्थितियों में नितांत जरूरी है। वरना कई जगह हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। वह इसलिए कि जैसे पत्रकार को साहित्यकार मान लिया जाए या कि साहित्यकार को असली साहित्यकार मान लिया जाए और असली साहित्यकार को घसियारा। आजकल पत्रकार और साहित्यकार में तो ज्यादा फर्क नहीं है, वहां फकत दृष्टि भेद है, क्योंकि पत्रकार साहित्यकार बन रहे हैं और साहित्यकारों का रुझान निरंतर पत्रकारिता की ओर हो रहा है। इसलिए इन दोनों के बीच इतनी घपलेबाजी हो गई है कि पत्रकार और लेखक दोनों को साहित्यकार मानना ही हित में है। पत्रकारों के हाथ में अखबार है।
अत: वे खूब लिखते हैं-लिखने वाला लेखक होता है और लेखक साहित्यकार होता ही होता है, इसमें दो राय कहीं नहीं है। लेखक, पत्रकार-सम्पादक की कृपा पर आजकल बहुत निर्भर हो गया है। अत: उसका साहित्यकार बनना उस पर ही है। चूंकि लेखक भी छपता है। अत: वह भी साहित्य को रचने वाला है, इसी आधार पर उसके भी साहित्यकार होने में शक नहीं है। लेकिन हमें जानना है उस जीव के बारे में जो असली साहित्यकार है। असली साहित्यकार की स्थिति आजकल वैसी ही है-जैसा कि असली घी की। वनस्पति घी के चलन व मिलावटियों की साजिशों के पीछे जैसे देसी घी अपनी मूल पहचान खो बैठा है, उसी तरह यह असली साहित्यकार भी बहुत ही उपेक्षित रह गया है। असली साहित्यकार की अव्वल पहचान यह है कि वह साल में एक-आध बार लिखता है और फिर लम्बी चुप्पी साध जाता है। वह ज्यादा छपने वाले लेखकों की आलोचना करता है तो बचे समय में त्योरियां चढ़ाए जबरन की एक और गंभीर मुद्रा चिंतन प्रधान शिल्प में अपने कमजोर चेहरे पर लगाए रखता है।
असली साहित्यकार लिखता कम और भाषण ज्यादा देता है। यदि उसके मौखिक वचनों को टेप किया जाए तो प्रतिदिन एक पाकेट बुक तैयार की जा सकती है। यह जीव साहित्य को मौखिक रूप से ज्यादा नष्ट करता है। साहित्य का यह भाषण इतना ऊल-जलूल व जटिल होता है कि पत्रकार और साहित्यकार आम तौर पर ऐसे समय में उबासियां लेते हैं तथा उससे पिंड छुड़ाने को छटपटाते हैं। असली साहित्यकार घर में बच्चों तथा बीवी पर भी साहित्य का क्षय करता है। वह बात-बात में साहित्यिक बिम्बों और प्रतीकों के जरिए जीवन शैली उभारता है तथा मुश्किलों से अनजान बनकर साहित्य के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करता है। इस वजह से घर वाले भी इस तेंदुए को ज्यादा नहीं छेड़ते तथा अपने आपको बचाने के प्रयत्नों में लगे रहते हैं। यह जीव आम तौर पर घर में पड़ा ही पाया जाता है तथा कामधाम व नौकरी आदि के प्रति इसकी रुचि कतई नहीं पाई जाती है। आम तौर पर असली साहित्यकार की पत्नी कमाती है और वह फोकट की रोटियां खाकर दिन भर साहित्य की उधेड़बुन में लगा रहकर पान की दुकान तथा चाय-पकौड़ी की थडिय़ों पर साहित्य बघारता है। वह इन स्थानों पर घंटे से लेकर सात-आठ घंटे प्रतिदिन नष्ट करता है और अपने साहित्यकार का जीवन बनाए रखता है।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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