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अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति ही नहीं, उससे इतर भी खासा जाने-पहचाने जाते हैं
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति ही नहीं, उससे इतर भी खासा जाने-पहचाने जाते हैं। शायद इसलिए कि उनके राजनीति से जितने गहरे सरोकार थे, उतने ही साहित्य की संवेदना से भी थे। जो बात वह राजनीति में रहते हुए सीधे-सीधे नहीं कह पाते थे, वह उनका कवि मन कह देता था। कविताओं से उनके मन को हम बांच सकते हैं। उनके व्यक्तित्व का यह भी सबसे बड़ा गुण था कि वह अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों को भी साथ लेकर चलने में विश्वास करते थे।
सच को सच कहने का साहस हर किसी में होता नहीं है, पर अटल जी में यह गुण तो था ही, साथ-साथ अच्छा कार्य किसी विरोधी दल के नेता ने किया हो, तो उसकी भी वह खुलकर सराहना करते थे। हालांकि, अतिवादिता का विरोध करने से भी वह कभी चूकते नहीं थे। 1971 में जब बांग्लादेश का निर्माण हुआ, तब विपक्ष में प्रथम पंक्ति के नेता वही थे। पाकिस्तान की करारी हार के साथ बांग्लादेश के निर्माण की खातिर किए गए प्रयासों के लिए उन्होंने सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'अभिनव चंडी दुर्गा' की उपाधि तक दे दी थी। मगर सत्ता को केवल अपने हाथों में केंद्रित करने की मंशा पर उन्होंने अस्सी के दशक में जनसभाओं में श्रीमती गांधी पर कविताएं लिखकर उन पर प्रहार भी कम नहीं किए। उनकी पंक्तियां हैं, इंदिरा गांधी नंबर एक/ नंबर दो है कौन? /नारी नंबर एक/ बाकी सब दस नंबरी। वह ऐसा ही करते थे। मन में कुछ रखते नहीं थे।
उदात्त जीवन मूल्यों में अटल जी का आरंभ से ही विश्वास था। राजनीति हो या इससे इतर जीवन, वह छोटेपन से सदा दूर रहने को कहते थे। मेरे प्रभु!/ मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना/ गैरों को गले लगा न सकूं/ इतनी रुखाई कभी मत देना। अपने आत्म से भी वह सदा अपने को जोड़े रखते थे। कुशल वक्ता, हाजिर जवाब और विनोदप्रिय भी कम कहां थे। 1957 में मात्र 33 वर्ष की आयु में वह पहली बार संसद सदस्य बने। लोकसभा में उनके दिए भाषण आज भी इसलिए याद किए जाते हैं कि वह बहुत गहराई से विषय में प्रवेश कर समय संदर्भों में अपनी बात कहते थे। मुझे आज भी 1959 में सदन में दिया गया उनका वह उद्बोधन याद है, जिसमें उन्होंने चीन द्वारा तिब्बत के लोगों के व्यक्तित्व को पूरी तरह से समाप्त कर नए प्रकार के साम्राज्यवाद फैलाए जाने की बात कही थी। उनका यह भाषण बाद में बहुत अधिक चर्चित हुआ था। हम सभी जानते हैं, जो उनके मन ने उस समय में देखा, वही बाद में हुआ भी।
हिंदू, हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति पर इस समय बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है। अटल जी हिंदुत्व की विचारधारा से जुडे़ ही नहीं थे, उसे बार-बार सार्वजनिक भी किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व के सरोकारों में रंगे मन से कभी एक कविता लिखी थी। इस पर आवाजें भी उठीं, पर वह अपनी व्यंजना पर सदा अटल रहे थे। उनकी वह कविता हिंदुत्व को एक तरह से व्याख्यायित करती है। अर्थ की विरल छटाओं में उन्होंने हिंदुत्व को हिन्दुस्तान में ही रूपायित करके थोडे़ में ही जैसे बहुत कुछ कह दिया है। पंक्तियां देखें, हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय/ मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान/ ...समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान। जो लोग हिंदुत्व की उदात्तता के गहरे अर्थों को नहीं समझते, उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि हिंदू का अर्थ है, पूरा यह राष्ट्र, सहिष्णुता की वह परंपरा, जिसमें सनातन संस्कृति के मूल्य गहरे से समाए हुए हैं।
उनका स्वस्थ संसदीय परंपराओं से गहरा नाता था। संसदीय परंपरा में खुद पर गंभीरता ओढ़े रखने के बजाय वह सीधे, सहज कहने में विश्वास रखते थे। जब संसद में अनावश्यक शोरगुल होता और जरूरी मुद्दों पर बहस नहीं हो पाती, तो वह विचलित हो जाया करते थे। सदन में जोर-जोर से बोलने और इसके जरिये सदस्यों द्वारा मीडिया में स्थान पाने के लिए की जाने वाली जद्दोजहद से वह बहुत बार परेशान हो जाया करते थे। लोकसभा में जब वह नेता प्रतिपक्ष थे, तब बार-बार यह कहते, 'सदन में सदस्यगण शोरगुल मचाने को सुर्खियों में आने का सुगम साधन समझते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। किसी विषय पर गहन अध्ययन करने के लिए तथ्य एकत्र करें, तर्क संजोएं और फिर प्रभावपूर्ण भाषण दें, तो यह आशंका बनी रहती है कि पता नहीं, कितना छपेगा। इसलिए सदस्यों को यह सरल उपाय लगने लगा है कि 11 बजे या 12 बजे शून्यकाल में कुछ ऐसी बात कह दो, जिससे दीर्घा में बैठे पत्रकारों का ध्यान आकर्षित हो जाए।' वह प्राय: हंसी-मजाक में यह भी कहा करते थे कि जैसे मनुष्य को प्यास लगती है, वैसे ही राजनेताओं को 'छपास' लगती है।
सदन में उनकी हाजिर-जवाबी भी सदा चर्चा में रहती थी। वह जनसंघ की सीट पर उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से चुनकर जब संसद में पहुंचे थे, तब नेहरू जी द्वारा योग के अंतर्गत शीर्षासन जैसी कठिन मुद्राएं अखबारों में खूब छपती थीं। एक दिन संसद में बहस के दौरान नेहरू जी ने किसी मुद्दे पर अपनी बात बहुत प्रभावी तरीके से रखी। सबने उनके भाषण को सराहा। नेहरू जी ने विपक्ष में बैठे वाजपेयी की ओर देखते हुए मुस्कराकर पूछा, अब बताइए, आपका क्या कहना है? अटल जी कहां चुप रहने वाले थे। बोले, 'मैं जानता हूं कि पंडित जी शीर्षासन योग करते हैं। करना भी चाहिए, पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह समस्याओं के समाधान को भी उलटे होकर देखें।' इतना कहते ही सदन में ठहाके गूंज उठे थे।
अटल बिहारी वाजपेयी जैसा व्यक्तित्व इस दौर में विरल है। राजनीति में ऐसे व्यक्तित्व अब रह ही कहां गए हैं, जो सबको साथ लेकर चलते हुए भी सदन को अपनी मौजूदगी से सदा रोशन रखें। संसदीय परंपराओं, संस्कृति और साहित्य की संवेदनशीलता से जुड़ी वह ऐसी शख्सियत थे, जिसने राजनीति में रहते हुए भी उसकी दलदल से अपने को दूर रखा। उन्होंने जननायक के रूप में अपनी पहचान बनाई। अटल जी भारतीय राजनीति में अटल थे और सदा रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi
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