सम्पादकीय

हार के मंथन पर रार

Rani Sahu
16 Nov 2021 6:54 PM GMT
हार के मंथन पर रार
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हार की उफनती नदी में नहाते ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला क्यों चिल्ला रहे हैं

हार की उफनती नदी में नहाते ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला क्यों चिल्ला रहे हैं, बचाओ-बचाओ। हार पर मंथन की रार और आपसी विश्वास के घोटाले पर मौन स्वीकृतियों का आलम यह कि अचानक चंडीगढ़ में भाजपा कोर गु्रप की बैठक टाल दी जाती है। कारण हार के और मसले विचार के, अगर टटोले नहीं जाएंगे तो धवाला को अपने ही राजनीतिक छप्पड़ में नहाते देख लें कि वह अपने आसपास के पानी से कितनी गंदी मछलियां निकाल पाते हैं। संगठन और सरकार के बीच तालमेल की कमी को वह उपचुनावों की हार के लिए दोषी मानते हैं। वह वरिष्ठता के सवाल पर अंगुली उठाते हुए कहते हैं कि संगठन में पुराने लोगों को खुड्डे लाइन लगाकर आंतरिक शक्ति को कमजोर किया गया है। धवाला अपने प्रश्नों का उत्तर उपचुनाव की हार के मंथन से पाना चाहते हैं और यह हकीकत भी है कि पार्टी के पदाधिकारी इन उपचुनावों में बेनकाब हुए हैं। संगठन की मिलकीयत में सरकारें दोयम हो जाएं या सरकारी लाभ के पदों पर सियासत की पपड़ी जम जाए, तो कान खोलकर सुनना ही पड़ेगा। क्या रमेश धवाला सरीखे वरिष्ठ नेता, पूर्व मंत्री एवं वर्तमान विधायक यह हैसियत रखते हैं कि वह अपनी ही पार्टी के कान खोल पाएंगे। जाहिर है पार्टी को उपचुनावों की हार पर शीघ्रातिशीघ्र सुनने की बाध्यता नहीं है और न ही ऐसे संकेत मिल रहे हैं।

रमेश धवाला बनाम पवन राणा विवाद में आज तक विधायक को ही हारना पड़ा, वरना ओबीसी के इस बड़े नेता को सरकार के ओहदों में महत्त्वपूर्ण स्थान मिल चुका होता। धवाला के अग्निबाण अब और तीव्रता से गर्माहट लाने का सबब बन सकते हैं, क्योंकि कठघरे पर पवन राणा का वजूद खड़ा है और तमाम पदाधिकारी भी अपनी जवाबदेही से मुकर नहीं सकते। आश्चर्य यह कि इतनी बड़ी हार की चीरफाड़ से आलाकमान कतरा क्यों रहा है, जबकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान संभाले जगत प्रकाश नड्डा के गृह राज्य में पार्टी ने उपचुनावों की हार में अंगुलियां जला ली हैं। जो भी हो, यह मानना पड़ेगा कि कहीं न कहीं हार के मंथन पर भी रार है। किसी तरह की छुपाछुपाई चल जरूर रही है। खास बात यह है कि जिस पार्टी ने अपनी ही सत्ता की पूछताछ करनी है, उसी के कर्ताधर्ता हार की नागफनी में फंसे हुए दिखाई दे रहे हैं। यहां राजनीतिक अमानत में खयानत का मुकदमा तो है, लेकिन तफतीश करने वाले भी कठघरे से बाहर नहीं निकल पा रहे। यह हार इतनी सरल है भी नहीं कि जलेबी पकाकर कुछ स्पष्ट होगा, दूसरी ओर कारणों की फेहरिस्त ने आगामी विधानसभा चुनावों में कुंडली मार ली है।
यानी उपचुनावों की हार के बाद छवि सुधारने के लिए जो तंदरुस्ती चाहिए, उसकी दिशा में आत्ममंथन और उसके साथ शैली में परिवर्तन की जरूरत है। इन चारों उपचुनावों में कांग्रेस के पक्ष में बेहतर परिस्थितियां कैसे बनीं, यह चिंतन का विषय इसलिए भी है कि भाजपा के गणित में रणनीतिकार और मंत्री हारे हैं। वहां वादे-दावे और सत्ता के प्रति जनता का मोह हारा है। नीतियां, कार्यक्रम और क्षेत्रीय राजनीति का संतुलन हारा है तो कहीं असंतोष का मानचित्र भी उभरा है। क्या इसे सरकार विरोधी माना जाएगा या नहीं, वैसे महंगाई के परिदृश्य में मतदान की लाठी महसूस जरूर की गई और इसीलिए पेट्रोलियम उत्पादों के दामों पर कुछ हद तक छूट भी देनी पड़ी है। देखना यह होगा कि भाजपा हार के कारणों पर मंथन करते हुए भविष्य के प्रति कौनसी नीति अख्तियार करती है। क्या धवाला सरीखे नेता वाकई पीछे किए गए और नए सेनानी पार्टी की तोपों को शर्मिंदा कर गए। मंथन से रणनीति तक भाजपा को अपने पांव में आई उपचुनावी मोच तथा सोच में सकारात्मक बदलाव की जरूरत है, तो आगे जीत के विचार और आत्मबल के प्रचार के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को पन्नों पर गिनने के बजाय सरकार के काम का इश्तिहार बनना पड़ेगा। अपने बचे हुए कार्यकाल में सरकार और पार्टी के चेहरों की सौम्यता व सफलता के लिए जरूरी है कि हर कद और पद का प्रदर्शन कामयाब दिखाई दे।

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