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रामधारी सिंह ‘दिनकर की आज जयंती है
सूरज सबका है, जिसने जैसा देखा, वैसा दिखाई दिया. कभी केसरी तो कभी लाल, कभी उजली रश्मि का रथी. विचारों का कोहरा घिर आया तो उसी से प्रकाश पाया और जब संकीर्णता को अपनाया, तब सत्य की चमक से आंखें भी न मिल पाई. अंतरिक्ष में यदि हमारी पृथ्वी का ऐसा ऊर्जा स्रोत सूर्य है, तो साहित्य में इस सूर्य का पर्याय 'दिनकर' हैं. रामधारी सिंह 'दिनकर' ऐसा हिन्दी सेवी जो विद्रोह का कवि भी है और शांति का अग्रदूत भी. जिसकी रचना में राष्ट्रवाद का गान है तो वामपंथ की चेतना भी. जैसा अनुभव किया वैसा लिखा. यही वजह है कि उनकी रचनाओं में सभी ने अपना हिस्सा पाया है.
रामधारी सिंह 'दिनकर की आज जयंती है. उनका जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के ग्राम सिमरिया में हुआ था. उन्होंने न केवल साहित्य छायावाद, प्रगतिशील युग को देखा और उस दौर में रचनाकर्म किया, बल्कि वे उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने आजादी का संघर्ष किया और नव भारत के निर्माण का स्वप्न जिया. इसलिए, वे स्वतन्त्रता पूर्व 'विद्रोही कवि' थे, तो आज़ादी के बाद 'राष्ट्रकवि' संबोधित किए गए. पिता की मृत्यु उपरांत उनका बचपन संकटों में बिता. उच्च अध्ययन के बाद वे कुछ समय तक एक विद्यालय में अध्यापक हुए. 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया.
'रेणुका' और 'हुंकार' की कुछ रचनाएं प्रकाशित हुई तो वे अंग्रेज शासकों की नजर में आ गए. परेशान करने के इरादे से उनका 4 वर्ष में 22 बार तबादला किया गया. आजादी के बाद देश की प्रथम संसद में उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया. दिनकर 1964 तक राज्यसभा के सदस्य रहे. 24 अप्रैल 1974 को उनका देहावसान हुआ. दिनकर की प्रमुख काव्य रचनाओं में रेणुका, द्वंद्वगीत, हुंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, नीलकुसुम, परशुराम की प्रतीक्षा, धूपछांह आदि शामिल हैं. उजली आग (गद्य- काव्य), संस्कृति के चार अध्याय (संस्कृति इतिहास), अर्ध-नारीश्वर, मिट्टी की ओर, रेती के फूल, पंत प्रसाद और निराला (निबंध व आलोचना) आदि प्रमुख गद्य कृतियां हैं. चित्तौड का साका, सूरज का व्याह, भारत की सांस्कृतिक कहानी, धूप छांह, मिर्च का मजा आदि प्रमुख बाल साहित्य हैं.
संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया. 1959 में ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया. वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिए उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया. मरणोपरान्त 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया.
सत्ता के समीप रह कर भी दिनकर जनता के कवि रहे हैं. वे मंच पर हुंकार भरते थे तब श्रोता दम साधे सुना करते थे. बार बार सुना करते थे. पौराणिक चरित्र हों या समकालीन घटनाएं, दिनकर हर महत्वपूर्ण विषय पर कलम चलाई है और उनकी रचना और चिंता का केंद्र जनता व जनता से बना राष्ट्र ही रहा करता था. यही कारण है कि उनकी रचनाएं आज भी जनगीत के रूप में गाई जाती हैं. जेपी आंदोलन के समय लिखी गईं ये पंक्तियां आज भी विद्रोह का नारा है-
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
दिनकर को किसी एक रचना या संग्रह से नहीं समझा जा सकता है. एक रचना में वे एक खास विचार में पूर्ण व्यक्त होते हैं, मगर समग्रता में वे विरोधाभासी भी प्रतीत होते हैं. जैसे वे कभी गांधी भक्त महसूस होते हैं, तो कभी युद्ध के पैरोकार. कभी पंडित नेहरू के अभिन्न दिखलाई देते हैं, तो कभी उनकी तीखी आलोचना करने का धर्म निभाते हैं. रामधारी सिंह दिनकर ने अपने विचारों के इस विरोधाभास पर ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'संचयिता' के आत्मकथ्य में लिखा है. उन्होंने कहा है कि जिस तरह मैं जवानीभर इक़बाल और रवींद्रनाथ के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झूलता रहा हूं. इसीलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही मेरी कविता का रंग है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा.
यह कथन उनकी रचनाओं से प्रमाणित होता है. उनकी कविताओं में मूल स्वर राष्ट्रवाद से ओतप्रोत होता है तो इस राष्ट्रवाद में जातीय संकीर्णता पर प्रहार करने से भी चूकते नहीं हैं. जैसे वे खुद लिखते हैं :-
अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से,
प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूं आंधी से.
सन्दर्भ बताता है कि 1947 में दिनकर की चार कविताओं का एक कव्य-संग्रह ‛बापू' नाम से प्रकाशित हुआ था. बापू के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं:-
बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे ,
लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे.
बापू ! तू मर्त्य,अमर्त्य ,स्वर्ग,पृथ्वी,भू, नभ का महा सेतु,
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है,
जितना कुछ कहूँ मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है,
लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं,
किस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं,
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट,
वामन की पूजा किस प्रकार, पहुंचे तुम तक मानव,विराट…
संग्रह 'बापू' के प्रकाशन के छह महीने के भीतर ही गांधी हत्या हो गई. हत्या के तत्काल बाद ‛बापू' का दूसरा संस्करण छपा. इसमें दिनकर ने लिखा:-
लिखता हूँ कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर,बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर.
कहने में जीभ सिहरती है/मूर्च्छित हो जाती कलम,
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा.
जबकि आवश्यक होने पर वे गांधी के अहिंसा के विचार से विपरीत युद्ध की पैरवी करते हैं :-
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रही चिनगारियाँ
भंन्न स्वार्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है.
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति को शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को.
अहिंसा के पैरोकार गांधी के प्रति अगाध आस्था रखने वाले दिनकर ने ही लिखा है:-
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो.
यह विरोधभास पंडित नेहरू को लेकर भी दिखलाई देता है. चीन के मोर्चे पर जवाहर लाल नेहरू की नीति विफल होती देख दिनकर ने नीतियों की आलोचना भी की. 1962 में भारत-चीन के बीच दिनकर की कविताओं को 'परशुराम की प्रतीक्षा' संग्रह में प्रकाशित किया गया था. इस संग्रह में कुछ कविताएं सीधे जवाहर लाल नेहरू पर निशाना थी. उन्होंने नेहरू को घातक तक कह दिया था-
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है.
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है.
मगर जब नेहरू के व्यक्तित्व की बारी आई तो दिनकर ने जो लिखा है वह कोई करीबी मित्र ही लिख सकता है. 'लोकदेव नेहरू' में दिनकर ने लिखा है, "…पंडित जी गए तो अपने समय पर ही, जैसे एक दिन हम सभी को जाना है, मगर मेरा खयाल है कि उनकी असली बीमारी का नाम फालिज या रक्तचाप नहीं, बल्कि चीन का विश्वासघात था. चीनी आक्रमण का सदमा उन्हें बहुत जोर से लगा था. मगर एक चतुर पिता के समान वे इस व्यथा को देश से छिपाते रहे.
कहने को तो संसद में यह बात वे काफी जोर से कहते रहे कि चीनी आक्रमण से हमारा तनिक भी अपमान नहीं हुआ है, मगर इस अपमान के कड़वेपन को भीतर ही भीतर उन्होंने जितना महसूस किया, उतना किसी ने नहीं किया.
नेहरू की विदेश नीति पर एक लेख 'शांति की समस्या' में दिनकर ने लिखा है, 'प्रत्येक देश की वैश्विक नीति, उसके राष्ट्रीय चरित्र की परछाईं होती है. हमारा राष्ट्रीय चरित्र योद्धा नहीं, शांति-सेवक का रहा है…भारत नाम में जो दिव्यता है, उसके प्रतीक यहां अर्जुन नहीं, युधिष्ठिर रहे हैं. चंद्रगुप्त नहीं अशोक रहे हैं…सच तो ये है कि हमारी विदेश नीति कुछ और हो ही नहीं सकती थी. आनेवाला विश्व सिकंदर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गांधी और जवाहर का संसार होगा.'
उस वक्त के देश के शीर्षस्थ व्यक्ति की तीक्ष्ण आलोचना और सम्वेदनाओं से भरी टिप्पणी दिनकर जैसा सत्ता मोह से अछूता साहित्यकार ही कर सकता है. हमारे समय के दो महत्वपूर्ण मुद्दों जातिवाद सुर मुस्लिम विद्वेष पर दिनकर ने खुल कर लिखा है. जातिवाद का विरोध करते हुए वे लिखते हैं:-
जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर
पाते हैं सम्मान तपोबल से धरती पर शूर….
'रश्मि रथी' में दिनकर ने कर्ण के जरिए जाति व्यवस्था से उत्पन्न अनेक विसंगतियों और सामाजिक कुरूतियों पर प्रश्न खड़े किए हैं. वर्ण व्यवस्था को वे अपनी तरह से परिभाषित करते हैं :-
ऊंच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है,
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग.
दिनकर की रचनाओं का केंद्र राष्ट्रवाद है मगर इस विचार के साथ उन्होंने अपनी दृष्टि व्यापक रखी हैं. मुसलमानों को लेकर वे संकीर्ण नहीं हैं. साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में वे लिखते हैं-
'भारत का विभाजन हो जाने के कारण ऐसा दिखता है, मानो, सारे के सारे हिंदू और मुसलमान उन दिनों आपस में बंट गए थे तथा मुसलमानों में राष्ट्रीयता थी ही नहीं. किंतु यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. भारत का विभाजन क्षणस्थाई आवेगों के कारण हुआ और उससे यह सिद्ध नहीं.'
उन्होंने भ्रष्टाचार में डूबे देश को आईना दिखाने में जरा नरमी नहीं दिखाई –
टोपी कहती है, मैं थैली बन सकती हूँ,
कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो,
ईमान बचाकर कहता है, आँखें सबकी,
बिकने को हूँ तैयार खुशी से जो दे दो…
दिनकर आज नहीं हैं. मगर उनकी रचनाएं हैं. किसी भी विचारधारा का अनुयायी उनकी रचनाओं में अपने विचार का प्रतिबिंब पा लेता है. मगर दिनकर इससे आगे जाते हुये निर्णय के विवेक की बात कहते हैं. वे राजनीति के दांवपेचों के ऊपर साहित्य की संवेदनशीलता की बात करते हैं. वे सवाल रखते हैं और जवाब भी देते हैं :-
दो में से क्या तुम्हें चाहिए कलम या कि तलवार,
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार.
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार…
यहां दिल्ली में हुए कवि सम्मेलन का वाकया याद आता है जहां सीढ़ियां चढ़ते हुए पंडित नेहरू के पैर लड़खड़ा गए तो दिनकर ने उन्हें संभाला. नेहरू ने उन्हें धन्यवाद दिया तो दिनकर ने कहा – 'जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो साहित्य ही उसे संभालती है.' देश को असज भी साहित्य से ऐसी ही आस है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पंकज शुक्ला, पत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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