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इसमें कोई दो मत हो ही नहीं सकता कि कांग्रेस (Congress) पूरे तरीके से गांधी परिवार (Gandhi Family) के नियंत्रण में है
राकेश दीक्षित |
इसमें कोई दो मत हो ही नहीं सकता कि कांग्रेस (Congress) पूरे तरीके से गांधी परिवार (Gandhi Family) के नियंत्रण में है. उदयपुर के विचार-मंथन सत्र में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने पार्टी पर अपने पूर्ण प्रभाव के लिए पार्टी की तरफ से स्पष्ट अनुमति हासिल की. पार्टी पर उनका निर्विवाद प्रभुत्व यह सुनिश्चित करता है कि उदयपुर घोषणाओं की भावना को अमल में लाते हुए पार्टी को फिर से जीवंत करने के लिए वे महत्वपूर्ण फैसले ले सकती हैं. खास बात यह है कि इस तरह के फैसले लेते समय वे परिवार के वफादारों को नज़रअंदाज कर सकती हैं. दूसरे शब्दों में, सोनिया गांधी जाने-माने दरबारियों को नजरअंदाज करते हुए अपनी मंडली से बाहर के कांग्रेसी नेताओं को नामित कर पार्टी की अपील को व्यापक आधार दे सकती हैं.
इसके बजाय पार्टी अध्यक्षा ने अपनी शाही शैली जारी रखी और यह भी दिखाया कि किसी तरह के प्रभाव को ग्रहण करने की विशेषता उनमें नहीं है. उदयपुर सत्र के बाद कांग्रेस आलाकमान ने दो महत्वपूर्ण फैसले लिए. पहला फैसला है तीन समितियों का गठन और दूसरा फैसला है राज्यसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन. ये दोनों फैसले व्यापक रूप से इस संदेह को पुष्ट करते हैं कि जो गांधी परिवार के प्रति वफादार होगा उसे ही पार्टी में पुरस्कृत किया जाएगा.
उदयपुर अधिवेशन से कोई सबक नहीं लिया गया है
कांग्रेस के दो दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा वफादारी की परीक्षा में बुरी तरह फेल हुए और इसकी कीमत चुका रहे हैं. गौरतलब है कि परिवार के प्रति वफादारी अगर एकमात्र नहीं तो सबसे महत्वपूर्ण मानदंड तो है जिसके सहारे कोई भी कांग्रेसी नेता पार्टी में प्रासंगिक बना रह सकता है. इन दोनों नेताओं को पार्टी की सलाहकार समिति में रखा गया है जो कांग्रेस कार्य समिति की सहायता के लिए बनाई गई थी. उनकी भूमिका केवल सजावटी है क्योंकि समिति की सलाह को मानने के लिए CWC बाध्य नहीं है. G-23 गुट के इन दोनों नेताओं के उदयपुर चिंतन में पर कतर दिए गए थे. इन्होंने राज्यसभा में नामांकन को लेकर अपनी उम्मीदें लगा रखी थी. लेकिन उनकी उम्मीद टूट गई है. एक तरह से देखा जाए तो इन दोनों नेताओं को बीजेपी के मार्ग दर्शक मंडल के कांग्रेस संस्करण में धकेल दिया गया है. उनकी अब कांग्रेस में वही स्थिति है जो बीजेपी में लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी की है.
उदयपुर अधिवेशन में अपने उद्घाटन भाषण में सोनिया गांधी ने लगभग 450 प्रतिनिधियों में जोश भरते हुए कहा था कि कांग्रेस अब "हमेशा की तरह" या चलता है का दृष्टिकोण नहीं जारी रख सकती है. उनके भाषण से काफी उम्मीदें जगी थीं. कुछ आशावादी लोगों ने काफी उम्मीद से कहा था कि अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस अब एक नए युग की ओर कदम बढ़ाने के लिए तैयार है. लेकिन उसके बाद के फैसलों से पता चलता है कि उदयपुर अधिवेशन से कोई सबक नहीं लिया गया है. यहां हमेशा की तरह फिर से वही रवैया जारी है. रविवार को उच्च सदन के लिए उम्मीदवारों की घोषणा के बाद से कांग्रेस में एक बार फिर से ये भावना फैल गई है कि पार्टी में कुछ बदला नहीं है.
राज्यसभा के नामांकन के बाद ऐसा लग रहा है मानो वे उदयपुर चिंतन शिविर के विचार-विमर्श और फैसलों का बार-बार मजाक उड़ा रहे हैं. उदयपुर चिंतन शिविर में फैसला लिया गया था कि एक परिवार से एक को ही टिकट दिया जाएगा, 50 वर्ष से कम उम्र के नेताओं को जवज्जोह दी जाएगी और महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाएगा. जिस तीन समितियों का विचार-मंथन सत्र के फॉलो-अप के रूप में गठन किया गया था वो भी चिंतन शिविर में अपनाए गए प्रस्तावों का घोर उल्लंघन था.
कांग्रेसी नेता अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं
आप इसे कैसे देखते हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. यदि राज्यसभा उम्मीदवारों के चयन को लेकर किसी तरह का मानदंड तय भी किया गया था तो लिस्ट को देखकर लगता है कि चाटुकारिता को ही बढ़ावा दिया गया है. इससे भी बदतर यह हुआ कि क्षेत्रीय नेताओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का जोखिम तो उठा लिया गया और चाटुकारों को पुरस्कृत किया गया. राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे दो चुनावी राज्यों में उम्मीद लगाए हुए कांग्रेसी नेता अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं जब उन्होंने देखा कि राजीव शुक्ला, रंजीत रंजन, और रणदीप सुरजेवाला, मुकुल वासनिक और प्रमोद तिवारी जैसे बाहरी लोगों को उन पर थोप दिया गया है.
शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय उम्मीदवारों को अपनी न्यायोचित आकांक्षाओं को त्याग करने के लिए मजबूर किया है ताकि राज्य विधायकों के बल पर बाहरी लोगों को राज्यसभा में भेजा जा सके. राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने राज्य के उम्मीदवारों को बाहर रखने के आलाकमान के आदेश को भले ही मान लिया हो, लेकिन विधानसभा चुनाव नजदीक आने पर अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को अपने नम्र आत्मसमर्पण के लिए विरोध का सामना करना पड़ सकता है.
दोनों राज्यों के कांग्रेस कार्यकर्ता सोच रहे होंगे कि कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में जीत दिलाने के लिए उन्होंने इसलिए ही खून-पसीना बहाया था कि सत्ता के खेल में चतुर दरबारी उन्हें मात दे दें. पहले से ही संगठन में प्रमुख पदों पर बैठे पदाधिकारियों, नेताओं को एडजस्ट करने की बेताबी ही चयन के पीछे मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतीत होता है. उदयपुर चिंतन शिविर में एक व्यक्ति एक पद पर जोर दिया गया था लेकिन जो फैसले लिए गए वो इसकी घोर अवहेलना ही दिखाते हैं. अजय माकन, रणदीप सिंह सुरजेवाला और मुकुल वासनिक एआईसीसी महासचिव हैं. पी चिदंबरम और प्रमोद तिवारी सीडब्ल्यूसी के सदस्य हैं. तिवारी की बेटी अनुराधा मिश्रा उत्तर प्रदेश के दो कांग्रेस विधायकों में से एक हैं. शुक्ला, रंजीत रंजन और विवेक तन्खा सभी एआईसीसी के पदाधिकारी हैं.
नामांकन सूची को लेकर पार्टी में शुरुआती प्रतिक्रियाएं बेहद नकारात्मक रही हैं
नेतृत्व ने कुछ चुनिंदा लोगों को ही संगठनात्मक जिम्मेदारियां और संसदीय सीटें देकर पुरस्कृत किया है. खास बात यह है कि पिछले हफ्ते घोषित टास्क फोर्स में पी चिदंबरम और मुकुल वासनिक भी शामिल हैं. मुकुल वासनिक लगभग तीन दशक से पार्टी के महासचिव और आलाकमान के अभिन्न सदस्य बने हुए हैं. उन्हें ऐसे समय में राज्यसभा सीट दी गई है जब पार्टी सोच रही है कि पदाधिकारियों के कार्यकाल को पांच साल तक सीमित रखा जाए. जाहिर है कि नामांकन सूची को लेकर पार्टी में शुरुआती प्रतिक्रियाएं बेहद नकारात्मक रही हैं. बहुमत की राय यह है कि पार्टी के अस्तित्व के संकट के बावजूद नेतृत्व ने अपने तरीके नहीं बदले हैं.
निकट भविष्य में कांग्रेस के लिए क्या है? 2024 लोकसभा से पहले गुजरात, हिमाचल, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, तेलंगाना और अन्य सात राज्यों में चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई टास्क फोर्स समूह का गठन नहीं हुआ है. संक्षेप में, कांग्रेस के सभी नेताओं – वफादारों और असंतुष्टों – ने एक साथ तैरने या डूबने का फैसला किया है. यह अवधारणा निश्चित रूप से कुछ ऐसे व्यक्तियों को बाहर रखता है जो राज्यसभा सीट न पाने के बाद कांग्रेस छोड़ सकते हैं.
सोर्स- tv9hindi.com
Rani Sahu
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