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- राज्यसभा का गतिरोध...
आदित्य नारायण चोपड़ा: संसद का चालू शीतकालीन सत्र केवल 23 दिसम्बर तक ही है जिसे देखते हुए इसके उच्च सदन राज्यसभा में सरकार व विपक्ष के बीच एक दर्जन सांसदों को पूरे सत्र के लिए निष्कासित किये जाने पर बना गतिरोध समाप्त किये जाने की सख्त जरूरत है। असली सवाल यह है कि इन सांसदों को उनके संसदीय अधिकारों से विमुक्त किया जाना क्या संसदीय लोकतन्त्र में एक स्वस्थ परंपरा कही जा सकती है और वह भी उच्च सदन में ? पूरा देश जानता है कि जब भी वक्त ने मांग की है तो इसी संसद के सदस्यों ने सभी राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर राष्ट्रहित में देश को दिशा देने का काम भी किया है। इसी सदन में चली बहसों का स्तर बहुत ऊंचा भी रहा है और पूरे राष्ट्र में अपनी संसद पर गर्व का आभास भी जगा है परन्तु ऐसे भी क्षण आये हैं जब कुछ सांसदों के रवैये व व्यवहार से लोकतन्त्र को शर्मसार भी होना पड़ा है और लोगों को लगा है कि हम एेसे दौर में पहुंच गये हैं जहां राजनीतिक मर्यादाएं दम तोड़ रही हैं मगर भारत का लोकतन्त्र इतना कमजोर भी नहीं है कि वह पिछली गलतियों को भुलाता हुआ आगे न बढ़ सके। इसी राज्यसभा में ऐसे भी उदाहरण हैं जब विपक्ष और सत्ता पक्ष के लोग राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एक स्वर से बोले हैं लेकिन वर्तमान में जिस मुद्दे पर राज्यसभा में गतिरोध बना हुआ है उसे भी हमें राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे के समकक्ष रख कर देखना होगा क्योंकि यह मामला सदन की उस प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है जिसका सम्मान इस देश के कर्णधार राजनीतिज्ञों ने घनघोर मतभेदों के बीच भी किया है। इस विषय पर केवल विपक्ष को ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष को भी गंभीर चिन्तन करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि अन्ततः संसद को चलाने की जिम्मेदारी इसी के कन्धों पर होती है। संसद के विगत वर्षाकालीन सत्र के अन्तिम दिन राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसके बारे में एक पक्षीय रुख अख्तियार नहीं किया जा सकता। इसकी वजह यह है कि यह रुख मूलरूप से संसदीय संवाद की अवधारणा के विरुद्ध है अतः संसदीय कार्यमन्त्री का यह कर्त्तव्य बनता था कि वह सदन के भीतर 12 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निष्कासित करने हेतु लाये गये प्रस्ताव से पहले विपक्ष के नेता के साथ भी सला–मशविरा करते। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह भारत की संसद का उच्च सदन है और इस सदन में जो भी परंपरा हम स्थापित करेंगे उसका अनुसरण राज्यों की विधानसभा में भी किया जा सकता है हालांकि विधानसभाएं ऐसे काम करती रहती हंै जिनसे सत्ता पर काबिज दलों की हुक्मरानी का रुआब झलकता रहा है। ऐसे कामों में किसी एक दल को चिन्हित नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक में सत्तारूढ़ दल ऐसे काम करते रहे हैं। राज्यसभा में हुए दुखद प्रकरण के सन्दर्भ में विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं कि सत्तारूढ़ पक्ष की तरफ से अपने विधेयक पारित कराने के लिए एेसे तरीके अपनाये गये जिनका संसदीय प्रणाली में कोई औचित्य नहीं हो सकता, मसलन मार्शलों को सदन के भीतर भेज कर विरोध करने वाले सांसदों को चुप कराने की कोशिश। सदन के भीतर किसी भी सांसद का विशेषाधिकार होता है कि वह अपने विरोध करने का क्या तरीका अपनाता है मगर इसका मतलब यह भी नहीं होता कि ऐसा करते हुए वह अमर्यादित होकर व्यवहार करने लगे और सदन की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाये। हालांकि राज्यसभा प्रकरण के मामले में प्रश्न यह है कि क्या विपक्षी सांसदों ने कथित अर्मयादित आचरण मार्शलों के उकसाने पर किया? यह स्वयं में राज्यसभा जैसे उच्च सदन के लिए हैरतंगेज मामला इसलिए है क्योंकि आजादी के बाद से आज तक ऐसी घटना कभी नहीं हुई जब मार्शलों व सांसदों के बीच हाथापाई की नौबत आयी हो। इसी देश ने 2010 में महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर वह नजारा भी देखा है जब इसका विरोध करने वाले सांसदों को मार्शलों ने ही सदन से बाहर उठा कर बाकायदा डंडाडोली करते हुए बाहर किया था मगर तब मार्शलों ने सांसदों की गरिमा रखते हुए ही उनके साथ सख्ती से व्यवहार किया था। संपादकीय :संसद की गरिमाअयोध्या से लौटे बुजुर्ग बोले - मोदी जी और केजरीवाल को आशीर्वादसू की को सजाभारत-रूस की अटूट दोस्तीनागालैंड में सैनिक गफलतऑन लाइन गेमिंग और गैम्बलिंगवर्तमान शीतकालीन सत्र बहुत छोटा है जिसमें केवल 19 बैठकें ही होनी हैं और इसमें से आधा समय अब निकल चुका है अतः उच्च सदन की प्रतिष्ठा और गरिमा यह अपेक्षा करती है कि इस मामले का निपटारा संसदीय परंपराओं और मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए हो जाना चाहिए। खास कर ऐसे माहौल में जब देश में असाधारण हादसे हो रहे हैं और एक हवाई दुर्घटना में तीनों सेनाओं के प्रमुख जनरल विपिन रावत की मृत्यु हो चुकी है। संसद सीधे जनता से ही ताकत लेती है और सांसद जनता के प्रतिनिधि ही होते हैं जिन्हें लेकर संसद का गठन होता है और संसद का काम तभी चलता है जब पक्ष व विपक्ष के सभी सांसद मिल कर जन समस्याओं पर खुल कर विचार-विमर्श या तर्क-वितर्क करते हैं । अतः इस मुद्दे को स्वयं सांसदों द्वारा ही सामूहिक रूप से इस प्रकार सुलझाना चाहिए कि उनके ही सदन की प्रतिष्ठा पर कोई आंच न आ सके। इसका रास्ता संसदीय कार्य मन्त्री को इस प्रकार खोजना चाहिए कि संसदीय परपंराओं की चमक बनी रह सके।