सम्पादकीय

राजपक्षे, जानसन और शिंजो एबी- सत्ता की चाह और नेताओं का हश्र

Rani Sahu
29 July 2022 9:26 AM GMT
राजपक्षे, जानसन और शिंजो एबी- सत्ता की चाह और नेताओं का हश्र
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पिछला एक महीना दुनिया भर में नेताओं के लिए राजनीतिक जीवन की कमजोरियां उजागर करने वाला रहा

सोर्स- जागरण

हर्ष वी पंत : पिछला एक महीना दुनिया भर में नेताओं के लिए राजनीतिक जीवन की कमजोरियां उजागर करने वाला रहा। श्रीलंका (Srilanka) में राजपक्षे (Rajapaksa) परिवार के साम्राज्य का ऐसा पतन हुआ कि राष्ट्रपति गोटाबाया (Gotabaya Rajapaksa) को देश छोड़कर भागना पड़ा। श्रीलंकाई जनता के आक्रोश का स्तर इतना बुलंद हुआ कि उसने एक ताकतवर राजनीतिक वंश को लगभग गुमनामी के दौर में धकेल दिया। एक समय संपन्न रहे इस देश को बर्बादी से उबरने में कई वर्ष लग जाएंगे। यह स्थिति उन नेताओं के कारण बनी, जो अतीत की उपलब्धियों पर इतराते रहे और जिन्होंने अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश नहीं की। यहां तक कि बड़े करीने से गढ़ी गई राष्ट्रवादी साख भी राजपक्षे परिवार को बचा नहीं पाई।
ब्रिटेन में एक अलग प्रकार का राजनीतिक अवसान देखने को मिला। कई हफ्तों तक अड़े रहने के बाद प्रधानमंत्री बोरिस जानसन (Boris Johnson) ने त्यागपत्र दे दिया। उनके लिए खतरे की घंटी लंबे समय से बज रही थी, लेकिन जानसन इसी गुमान में थे कि उनकी चुटीली प्रतिक्रियाएं जनता को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त होंगी। उनका यह दांव नहीं चला। उनकी सार्वजनिक छवि तार-तार हो रही थी। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच उन्होंने 2019 में जो निर्णायक जनादेश हासिल किया, वह व्यर्थ जाता दिखने लगा।
तीसरा घटनाक्म जापान से जुड़ा है। वहां पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एबी (Shinzo Abe) की हत्या हुई, जिसने पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया। यह समझना मुश्किल है कि जापान में भी ऐसा कुछ हो सकता है, लेकिन कंजरवेटिव नेता रहे एबी इतनी समृद्ध विरासत छोड़ गए कि उसके दूरगामी असर दशकों तक दिखेंगे। घरेलू, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर समकालीन दौर के कुछ ही नेताओं ने रणनीतिक मोर्चे पर एबी सरीखी छाप छोड़ी है। इसी कारण अपने निधन के साथ वह अपनी पार्टी को चुनावों में निर्णायक जीत दिला गए।
राजपक्षे, जानसन और एबी-इन तीनों नेताओं का संबंध दुनिया के अलग-अलग कोनों से है। अपनी प्रतिभा के दम पर वे राजनीतिक सफलता के शीर्ष पर पहुंचे। राजनीतिक वैचारिकी की दृष्टि से उन्हें 'कंजरवेटिव' यानी परंपरावादी माना जा सकता है। इस समानता के बावजूद राजपक्षे और जानसन का पराभव और एबी का निरंतर प्रासंगिक बने रहना यही दर्शाता है कि राजनीति में निजी महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने से अधिक कौन सा पहलू महानता का निमित्त बनता है।
इस समय गोटाबाया राजपक्षे एक से दूसरे देश में आश्रय लेने के लिए प्रयासरत हैं। उनके परिवार का पतन यही बताता है कि सार्वजनिक जीवन कितना अस्थिर है। आर्थिक संकट से निपटने में उनके कुप्रबंधन और इस्तीफा न देने के अड़ियल रुख ने उनकी दुर्गति करा दी। श्रीलंका में लंबे अर्से से भोजन, ईंधन और दवाओं आदि वस्तुओं की किल्लत के चलते इस परिवार के प्रति जनता में महीनों से आक्रोश पनप रहा था। इसी कारण एक समय नायक समझा जाने वाला राजपक्षे परिवार खलनायक बन गया। इस परिवार ने दुर्दांत लिट्टे को खत्म करके राष्ट्रवादी के रूप में अपनी राजनीतिक पहचान बनाई थी। हालांकि भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के साथ ही गलत नीतियों के उनके खतरनाक काकटेल ने श्रीलंका को एक भयावह राजनीतिक एवं आर्थिक संकट में धकेल दिया। इसी ने जनता को आंदोलित कर दिया। अब गोटाबाया भगोड़े के रूप में याद किए जा रहे हैं।
जानसन भी भारी बहुमत के साथ 2019 में सत्तारूढ़ हुए। उनके नेतृत्व में कंजरवेटिव पार्टी को 1987 के बाद की सबसे बड़ी जीत हासिल हुई। उन्हें मिले जनादेश ने ब्रेक्जिट समर्थक के रूप में उनकी साख पर मुहर लगाई। हास-परिहास से जुड़ा करिश्मा, तड़क-भड़क वाला राजनीतिक व्यक्तित्व और चुटीली प्रतिक्रियाओं के जरिये उन्होंने ब्रेक्जिट की मुहिम को सिरे चढ़ाया। ब्रेक्जिट को लेकर अंतहीन बहसों से ब्रिटिश उकता गए थे। जानसन ने उन्हें उससे मुक्ति दिलाई, लेकिन ब्रेक्जिट से परे जानसन बमुश्किल ही कोई प्रभाव छोड़ पाए।
जब ब्रेक्जिट से जुड़ी हलचल थम गई तो जानसन खुद कौतुक बनकर रह गए। उन्होंने जो आभामंडल रचा, उसकी चमक फीकी पड़ती गई। पार्टीगेट कांड उनकी छवि के लिए ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। गत दिसंबर में जब यह मामला सामने आया तो जानसन को अपनी भूल स्वीकार करने में हफ्तों लग गए कि उन्होंने कोविड के उस दौर में उन नियमों को तोड़ा, जिन्हें उनकी सरकार ने ही लागू किया था। एक के बाद एक स्कैंडल ने उनकी विश्वसनीयता पर आघात किया। वह अपनी ही दुनिया में सिमटकर रह गए, जहां कोई नियम लागू नहीं होते और शासन संचालन में गंभीरता का अभाव उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
ब्रेक्जिट और कोविड दोनों ने आम ब्रिटिश नागरिकों को प्रभावित किया। उनका क्षोभ आक्रोश में बदलने लगा, जिसका असर मई में हुए मध्यावधि चुनावों में दिखा, जहां कंजरवेटिव पार्टी ने अपने कई मजबूत गढ़ भी गंवा दिए। यह जानसन के अंत की शुरुआत थी, लेकिन वह उससे भी नहीं संभले। यौन दुराचार के मामले में अपने एक सांसद को लेकर उन्होंने जो लापरवाही दिखाई, उसने भी उनकी साख पर धब्बा लगाया। उनकी पार्टी के नेताओं को दीवार पर लिखी इबारत साफ दिखने लगी और वे उनके विरुद्ध लामबंद हुए। उनका पराभव यही दर्शाता है कि अनुशासन के अभाव में बौद्धिकता बेमानी हो जाती हैं।
शिंजो एबी की ऐतिहासिक विरासत इस मामले में बिल्कुल विपरीत है। वह भी एक कंजरवेटिव नेता थे, लेकिन उनकी राजनीति सत्ता की चाह से अधिक उच्च आदर्शों से ओतप्रोत रही। वह घरेलू और बाहरी दोनों स्तरों पर जापान के गौरव की पुनस्र्थापना के प्रति कटिबद्ध थे और उस लक्ष्य की प्राप्ति में कठोर परिश्रम करते रहे। इसके परिणाम भी खासे नाटकीय रहे। आज जापान उस स्थिति से बहुत अलग देश है, जैसा एबी के सत्ता संभालने से पहले था।
दिलचस्प बात यह रही कि कंजरवेटिव नेता होते हुए भी उन्होंने जापान की घरेलू एवं विदेश नीति में यथास्थिति को चुनौती दी। उनके राष्ट्रवादी आदर्शों ने उनके अभियान को गति प्रदान की, लेकिन यह उनकी ईमानदारी और अनुशासन ही था, जिसके दम पर वह न केवल जापान के सर्वकालिक बेहतरीन नेताओं, बल्कि समकालीन दौर के दिग्गज वैश्विक राजनेता के रूप में भी स्थापित हो सके। एबी के विपरीत राजपक्षे और जानसन की कहानी यही स्मरण कराती है कि शासन से संबंधित गंभीर एजेंडे एवं व्यक्तिगत ईमानदारी के अभाव में राजनीतिक सत्ता की चाह कैसे नेताओं को लील जाती है और वक्त की रेत पर भी उनके निशान कहीं नहीं रह जाते। इन दोनों के हश्र से दुनिया भर के नेताओ को सबक सीखने चाहिए।


Rani Sahu

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