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कइर् बार सोचता हूँ आज परसाई जी जि़न्दा होते तो क्या अपनी व्यंगात्मक कहानी 'भोलाराम का जीव' लिख पाने की हिम्मत कर पाते। अगर किसी तरह हिम्मत कर भी लेते तो इतने भोलारामों की व्यथा कैसे व्यक्त कर पाते? वह भी उन भोलारामों की व्यथा जिनकी कि़स्मत में ओल्ड पेंशन की लकीर है ही नहीं। लेकिन इसमें नीली छतरी वाले का कोई दोष नहीं, क्योंकि पेंशन की लकीरें ऊपर वाला नहीं, सरकारें खींचती हैं और सरकारी खिंचाव का दर्द वही जानता है, जिसे सरकार खींच चुकी हो। अगर यक़ीन न हो तो फादर स्टेन स्वामी, वरवर राव, हनी बाबू, विकास दुबे जैसे लोगों से पूछ कर देख लें। फिर भी यक़ीन न आए तो नई पेंशन योजना के हक़दारों से पूछ कर देख लें कि खिंचने का दर्द क्या होता है। बेचारे अभी से सोच कर परेशान हैं कि अनुबंध की नौकरी से किसी तरह खिंच कर बाहर आने के बाद सारी उम्र महंगाई और इनकम टैक्स जैसी सुरसाओं से खिंचते हुए वानप्रस्थी में शेष जीवन कैसे खींचेंगे। लेकिन शायद परसाई जी को पता था कि भविष्य में सरकार पेंशन बंद कर देगी। इसलिए उन्होंने अच्छी-भली, लगी-लगाई सरकारी नौकरी लतिया कर आजीवन कुंवारे रहने का प्रण कर लिया ताकि वानप्रस्थी होने पर सरकार के सामने ठूठा न फैलाना पड़े।