सम्पादकीय

नौकरी छोड़, चुनाव लड़, पेंशन खा

Rani Sahu
16 May 2022 7:18 PM GMT
नौकरी छोड़, चुनाव लड़, पेंशन खा
x
कइर् बार सोचता हूँ आज परसाई जी जि़न्दा होते तो क्या अपनी व्यंगात्मक कहानी ‘भोलाराम का जीव’ लिख पाने की हिम्मत कर पाते

कइर् बार सोचता हूँ आज परसाई जी जि़न्दा होते तो क्या अपनी व्यंगात्मक कहानी 'भोलाराम का जीव' लिख पाने की हिम्मत कर पाते। अगर किसी तरह हिम्मत कर भी लेते तो इतने भोलारामों की व्यथा कैसे व्यक्त कर पाते? वह भी उन भोलारामों की व्यथा जिनकी कि़स्मत में ओल्ड पेंशन की लकीर है ही नहीं। लेकिन इसमें नीली छतरी वाले का कोई दोष नहीं, क्योंकि पेंशन की लकीरें ऊपर वाला नहीं, सरकारें खींचती हैं और सरकारी खिंचाव का दर्द वही जानता है, जिसे सरकार खींच चुकी हो। अगर यक़ीन न हो तो फादर स्टेन स्वामी, वरवर राव, हनी बाबू, विकास दुबे जैसे लोगों से पूछ कर देख लें। फिर भी यक़ीन न आए तो नई पेंशन योजना के हक़दारों से पूछ कर देख लें कि खिंचने का दर्द क्या होता है। बेचारे अभी से सोच कर परेशान हैं कि अनुबंध की नौकरी से किसी तरह खिंच कर बाहर आने के बाद सारी उम्र महंगाई और इनकम टैक्स जैसी सुरसाओं से खिंचते हुए वानप्रस्थी में शेष जीवन कैसे खींचेंगे। लेकिन शायद परसाई जी को पता था कि भविष्य में सरकार पेंशन बंद कर देगी। इसलिए उन्होंने अच्छी-भली, लगी-लगाई सरकारी नौकरी लतिया कर आजीवन कुंवारे रहने का प्रण कर लिया ताकि वानप्रस्थी होने पर सरकार के सामने ठूठा न फैलाना पड़े।

पर मुझे तो ओल्ड पेंशन बंद करवाने में परसाई जी का हाथ ज़्यादा लगता है। अगर वह भोलाराम के जीव के माध्यम से एक सरकारी कर्मचारी को मिलने वाली पेंशन को लगवाने में व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का व्यंगात्मक तरीक़े से पर्दाफाश नहीं करते तो भ्रष्टाचार के मामले में ज़ीरो टॉलरेंस की हिमायती सरकार कभी ओल्ड पेंशन स्कीम बंद न करती। अब जब सरकार ने बाँस ही तोड़ दिया तो बाँसुरी कौन बजाएगा। पेंशन ख़तम तो भ्रष्टाचार और रिश्वतख़ोरी भी ख़तम। अब मुई सरकार भी क्या-क्या करे। सामाजिक सुरक्षा पेंशन, किसान पेंशन वग़रैह तो सीधे खाते में भेज रही है, लेकिन इन बाबुओं से कौन निबटे? वैसे भी हर पाँच साल बाद बदलने वाली सरकार को अगर भूत माना जाए तो बाबू लंगोट हुए। अब कोई जानबूझ कर तो नंगा नहीं होना चाहेगा। वैसे भी सरकार अपने लंगोट की कसावट कायम रखने के लिए विज्ञापनों और विशेष प्रचार अभियानों पर हर रोज़ करोड़ों खर्च करती है।
नई पेंशन स्कीम के हिमायतियों का नारा तो देखिए, 'एक तीर एक कमान, सबको पेंशन एक समान'। भला यह भी कोई बात हुई। तीर और कमान भले ही एक समान हों, लेकिन निशाना तो एक समान हो ही नहीं सकता। मिसाल के लिए निशानेबाज़ी की प्रतियोगिता ही देख लो। सभी को पदक तो मिलते नहीं। जिन्हें मिलते हैं, उन्हें भी एक जैसे नहीं मिलते। ऐसे में निशाना तो वहीं लगेगा, जहां सरकार चाहेगी। अगर सरकार कहती है कि न ख़ुद खाएंगे न किसी को खाने देंगे, तो इसका सीधा सा अर्थ है, केवल वही खा सकता है जिस पर सरकार निशाना लगाए और उतना ही खा सकता है जितना सरकार चाहे। इधर, न्यू पेंशन कर्मचारी महासंघ के आंदोलनकारियों ने देश में लोकतंत्र जान कर, पता नहीं कैसे शरीफ, ईमानदार और सदा सोशल मीडिया में मगन रहने वाले एक मुख्य मंत्री से यह सवाल करने की हिम्मत कर डाली कि जब माननीयों को एक बार जीतने पर पेंशन लग सकती है तो उम्र भर नौकरी करने के बाद उन्हें क्यों नहीं? विशेषज्ञ यूँ तो राजनीति को शरीफों और ईमानदारों का मोहल्ला नहीं मानते, लेकिन कोई कहता है तो हम मान लेते हैं कि हो सकता है देश की धर्म निरपेक्षता की तरह राजनीति में भी शराफत और ईमान निरपेक्ष होता हो। इस पर शरीफ और ईमानदार मुख्य मंत्री ने जिस अंदाज़ में उन्हें चुनाव लड़ कर पेंशन लेने की सलाह दी, लगा मानो मुख्य मंत्री नहीं, कोई मास्साहब पहली के बच्चों को क़ायदा सिखा रहे हों, 'चल नौकरी छोड़, चुनाव लड़, झटपट चुनाव लड़, चुनाव जीत, शपथ ले, देश सेवा कर, पेंशन खा।' पर पता नहीं क्यों मुख्य मंत्री पेंशन की जगह देश कहना भूल गए।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story