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By: divyahimachal
बात पुरानी नहीं है। इसी साल मार्च में गोवा में भी विधानसभा चुनाव हुए थे। उससे पहले कांग्रेस नेतृत्व अपने सभी उम्मीदवारों को मंदिर, चर्च या दरगाह तक ले गया। निष्ठा और ईमानदारी का संकल्प कराया गया। पार्टी प्रत्याशियों ने प्रतिज्ञा की कि वे चुनाव में जीतें या हारें, लेकिन पार्टी में ही बने रहेंगे। कांग्रेस के ही पूर्व मुख्यमंत्री और सात बार के विधायक दिगंबर कामत ने पालाबदल का एक दैवीय रास्ता निकाल लिया। वह उसी मंदिर में गए और ध्यान लगाकर भगवान से पूछा-'मुझे क्या करना चाहिए?' भगवान ने उनके भीतर बता भी दिया कि उनके लिए जो सर्वश्रेष्ठ है, वह करें। आगे बढ़ें।' और कामत को 'सर्वश्रेष्ठ' भाजपा का साथ लगा, लिहाजा वह भाजपा में चले आए। इसी तरह गोवा कांग्रेस के कुल 11 निर्वाचित विधायकों में से 8 ने 'संकल्प' तोड़ दिया और भाजपा में शामिल हो गए। अब गोवा में कांग्रेस के मात्र 3 विधायक शेष हैं।
पालाबदल करने वाले पूर्व नेता प्रतिपक्ष माइकल लोबो का दावा है कि आगामी 3-4 माह के दौरान कांग्रेस के कुछ और बड़े नेता भी भाजपा में शामिल होंगे। गोवा की राजनीति के लिए दलबदल और निष्ठाओं के साथ बेईमानी कोई नई बात नहीं है। जुलाई, 2019 में भी कांग्रेस के 10 विधायकों ने पार्टी छोड़ कर भाजपा का दामन थामा था। कांग्रेस की राजनीति में निष्ठा, संकल्प, विचारधारा आदि बेमानी हैं, क्योंकि देश की आज़ादी के बाद से बड़े नेता कांग्रेस तोड़ते और छोड़ते रहे हैं। यह सिलसिला इंदिरा गांधी के कालखंड से तेज हुआ और आज सोनिया-राहुल गांधी के दौर तक जारी है। ऐसा लगता है मानो 'कांग्रेस छोड़ो' मुहिम चल रही है। इस दलबदल का कांग्रेस की 'भारत जोड़ो' यात्रा के संदर्भ में आकलन नहीं किया जाना चाहिए। कांग्रेस प्रवक्ता इसे भाजपा की बौखलाहट और यात्रा की लोकप्रियता से डर करार दे रहे हैं। उन्होंने इसे 'ऑपरेशन कीचड़' का नाम भी दिया है। यह कांग्रेस पार्टी का अपना अहंकार और अपनी कुंठा हो सकती है, लेकिन पहला दोष पार्टी का ही है, जो अपने नेताओं और चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को बांध कर रखने में नाकाम रही है। दरअसल हमारी राजनीति अब कांग्रेस-मुक्त नहीं, बल्कि विपक्ष-मुक्त होती जा रही है। कांग्रेस के तौर पर विपक्ष के खंडहर ही शेष हैं। बाकी विपक्ष जितना भी उछलता रहे, वह भाजपा से बहुत पीछे है। भाजपा ने राजनीतिक वर्चस्व के लिए विपक्ष की सरकारें और विधायक तोड़े हैं या विपक्ष के नेताओं को अपने दलों की सियासी संभावनाएं धूमिल लगती हैं अथवा पैसे और पदलोलुपता के खेल भी जारी हैं।
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जो भी हो, विपक्ष में दरारें बेहद गहरी हैं। बेशक कांग्रेस सबसे ज्यादा बार शिकार हुई है। जो बिखरा हुआ विपक्ष 2024 में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को पराजित करने के दिवास्वप्नों में डूबा है, उसके लिए ऐसे दलबदल बेहद गंभीर चुनौती हैं। 2018 में अरुणाचल प्रदेश, 2018-19 में गुजरात और कर्नाटक, 2020 में मध्यप्रदेश, 2019 और '21 में बंगाल और बीते दिनों मणिपुर में दलबदल की घटनाएं सामने आती रही हैं। भाजपा की ताकत और सत्ता के ही विस्तार हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी के आठ साला कालखंड के दौरान ही कांग्रेस के 177 सांसदों, विधायकों और नेताओं ने पालाबदल किया है और कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का हाथ थामा है। इन दिनों आम आदमी पार्टी (आप) भी चिल्ला रही है कि पंजाब में उसके 10 विधायकों को 25-25 करोड़ रुपए की पेशकश की गई है कि वे 'आप' छोड़ कर भाजपा में शामिल हो जाएं। ऐसे ही आरोप दिल्ली के विधायकों के संदर्भ में लगाए गए थे कि उन्हें 20-20 करोड़ रुपए के ऑफर दिए गए। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी ऐसे ही आरोप भाजपा पर चस्पा किए थे और कई विधायकों को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक रिजॉर्ट में भेजा था। यदि ऐसे आरोप ठोस हैं और साक्ष्य जुटाए जा सकते हैं, तो सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी जा सकती है कि विधायकों की खरीद-फरोख्त की जा रही है। हवा में चिल्लाते रहने से दलबदल निरोधक कानून ज्यादा कारगर साबित नहीं हो सकता। दलबदल के संबंध में जो प्रावधान किए गए, वे कारगर नहीं रहे। अब सियासी दल ही कुछ कर सकते हैं।
Rani Sahu
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