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- सवाल जज्बात की जुंबिश...
सूर्यप्रकाश चतुर्वेदील: सभी बेहतर जिंदगी के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। क्या विद्यार्थी, क्या बेरोजगार और क्या नौकरीपेशा। सभी किसी न किसी उलझन में फंसे हैं। प्रतिस्पर्धा जीवन का विकल्प बन गई है। ऐसी स्थिति में निजी भावनाओं और अनुभवों के लिए किसी के पास समय ही कहां है? लोग अलसुबह काम पर जाते हैं और हारे-थके देर शाम या रात को लौटते हैं और आते ही अगले दिन की फिक्र करने लगते हैं। जीवन की बुनियादी और जरूरत की चीजों की तंगी और रोजमर्रा की महंगाई ने सभी को त्रस्त कर दिया है। जीवन मूल्य और संप्रेषण युक्त जीवन-शैली न जाने कहां खो गई है। कोई प्यार-मोहब्बत की बात ही नहीं करता।
महंगाई बढ़ती जा रही है। पेट्रोल हो, खाने-पीने की चीजें या दवाइयां। जब आप टैक्सी या रिक्शे से जाते हैं तो जो रेट होता है वह लौटते वक्त बढ़ चुका होता है। आदमी करे तो क्या करे। आमदनी सीमित है और खर्च अपार। ये परेशानियां भी किसी उलझन से कम नहीं हैं। यात्रा को ही लीजिए। रेल या हवाई जहाज से यात्रा करना हो तो पहले से आरक्षण करवाना जरूरी है। फिर पहचान-पत्र के लिए आधार कार्ड साथ होना चाहिए। अगर अंतरराष्ट्रीय यात्रा पर जा रहे हों, तो वहां की उलझनें ढेर हैं।
प्रचार-प्रसार, तेज रफ्तार और मार्केटिंग की चकाचौंध में सामान्य व्यक्ति रोजमर्रा से जुड़े छोटे-छोटे फैसले लेने में भी उलझन महसूस करता है। कौन-सा स्कूल, कौन-सा अस्पताल, कौन-सा अभिनेता और कौन-सा व्यक्ति विश्वसनीय है, यह ढूंढ़ पाना दुर्लभ है। महंगाई की मार ने वैसे ही परेशान कर दिया है। ऊपर से ये उलझनें जीना मुश्किल कर रही हैं। ऐसे में न रंज की गुंजाइश है और गम की। क्योंकि आदमी को खुद अपने बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है।
पिछले दिनों एक साहब मिले। बता रहे थे कि लोगों के कहने पर उन्होंने कई डाक्टर बदल लिए, पर आराम नहीं मिला। परेशानी यही है कि हर व्यक्ति अपने डाक्टर की तारीफ करता है। यह भी डाक्टरों की मार्केटिंग और प्रचार का तरीका है। हर व्यक्ति किसी न किसी उधेड़बुन में है। पैसे वाले को और पैसा, मशहूर व्यक्ति को और शोहरत, नेता को और अधिक समर्थक और ताकत तथा आम आदमी को ओहदे की दरकार है। सभी को कुछ न कुछ चाहिए। बल्कि कुछ न कुछ अतिरिक्त चाहिए, क्योंकि संतुष्टि का मतलब है आगे की तरक्की रोकना। कोई इंतजार करने के लिए तैयार नहीं है। सब कुछ त्वरित चाहिए। यह जमाना ही 'इंस्टेंट' यानी तुरत-फुरत प्राप्ति का है।
आधुनिकीकरण, इंटरनेट और स्मार्टफोन के बढ़ते चलन ने साइबर अपराध को भी प्रोत्साहित किया है। लगभग हर व्यक्ति 'कैशलेस' और 'एप्प' के जरिए भुगतान कर रहा है और अनेक लोग धोखा खा रहे हैं। सट््टे और मोबाइल गेमिंग ने कई लोगों को अपने जाल में फंसा लिया है। अफसोस यह है कि खुद मैदान पर खेल रहे बड़े खिलाड़ी औरों को मोबाइल पर अपनी टीम बना कर खेलने के लिए रिझा रहे हैं और जोर देकर कहते हैं कि एप्प डाउनलोड करो। बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने ब्रांड का विज्ञापन मशहूर और लोकप्रिय खिलाड़ियों और अभिनेताओं से करवाती हैं।
आम आदमी भ्रमित होता है कि वह भला किस पर भरोसा करे। इंश्योरेंस कंपनियां भी इन्हीं की मदद लेती हैं। ये सब मिलकर उलझनें ही बढ़ाते हैं। शादी के रिश्ते, इंश्योरेंस तथा अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं, यहां तक कि खाद्य पदार्थ और पानी बेचने वाली कंपनियां भी इन्हीं लोगों से विज्ञापन करवाती हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनकी प्रामाणिकता बढ़ती है। जो भी हो, साधारण व्यक्ति की उलझनें ही बढ़ती हैं। उसे लगता है कि अगर वह इन चीजों का उपयोग नहीं कर रहा है तो भूल कर रहा है। यानी हर व्यक्ति किसी न किसी उलझन का शिकार है। यह बात कोई मानता है तो कोई नहीं मानता। तेज रफ्तार से बदलती जीवन-शैली शायद हमारी नियति है।
नए दौर में नई जानकारी और नया ज्ञान जरूरी है। जो लोग इंटरनेट और कंप्यूटर नहीं जानते थे, उन्हें या तो यह सीखना पड़ा या नौकरी छोड़नी पड़ी। आपके पास इस 'फ्रेमवर्क' यानी खाके में रह कर जद्दोजहद, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और उलझनों से निपटने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसी में रहते हुए आपको अपनी भूमिका तलाशनी है। ऐसी व्यवस्था ही बन गई है, जिसमें रहते हुए आपको काम करना है। यह कितनी कुशलता से करते हैं, यह आप पर निर्भर है। निजी तकलीफ और आराम के लिए इसमें कोई स्थान नहीं है।
दुनिया के रंजो-गम के अलावा भी बहुत से काम हैं। इतिहास में ऐसे अनेक मौके आए हैं जब लोगों ने वृहत्तर हित में निजी सुख सुविधाओं को छोड़ कर जिंदगी के अहम मूल्यों के लिए काम किया है। इसलिए आज के अर्थप्रधान और मौलिक सुख-सुविधावादी युग में इंसान प्यार-मोहब्बत को वरीयता न दे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। सवाल जज्बात की जुंबिश का है।