सम्पादकीय

धरती का महत्व भूलता पंजाब : खेती-किसानी पर छाये सबसे बड़े संकट के पीछे छिपे मूल कारण, समझने होंगे क्या-कैसे

Neha Dani
21 Sep 2022 2:12 AM GMT
धरती का महत्व भूलता पंजाब : खेती-किसानी पर छाये सबसे बड़े संकट के पीछे छिपे मूल कारण, समझने होंगे क्या-कैसे
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भविष्य में पंजाब अपने नाम का असली अर्थ न खो बैठे- आज हमें इसकी चिंता करनी है।

पंजाब की खेती-किसानी का सबसे बड़ा संकट आज यही है कि वह प्रकृति से रिश्ते का लिहाज भूल गई है। पवन, पानी और धरती का तालमेल तोड़ने से ढेरों संकट बढ़े हैं। सारा संतुलन अस्त-व्यस्त हुआ है। पंजाब ने पिछले तीन दशकों में कीटनाशकों का इतना अधिक इस्तेमाल कर लिया कि पूरी धरती को ही तंदूर बना डाला है। पंजाब सदियों से कृषि प्रधान राज्य का गौरव पाता रहा है। कभी सप्त सिंधु, पंचनद तथा कभी पंजाब के नाम से इस क्षेत्र को जाना गया है।




यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक जल स्रोतों, उपजाऊ भूमि और संजीवनी हवाओं के कारण मशहूर रहा है। प्रकृति का यह खजाना ही यहां हुए हमलों का मुख्य कारण रहा है। देश के बंटवारे के बाद ढाई दरिया छीने जाने के बावजूद बचे ढाई दरियाओं वाले प्रदेश ने देश के अन्न भंडार को समृद्ध किया है। खेती-किसानी को किसी भी देश या कौम का मूल काम माना गया है। हमारी परंपराओं में किसान को संसार का संचालन कर्ता माना गया है, क्योंकि किसान उनको भी जीवन देते हैं, जिन्होंने कभी जमीन पर हल नहीं चलाया।


किसानी एक ऐसा काम है, जिसकी निर्भरता किसान के आचरण से जुड़ी है। इसलिए गुरुवाणी में यह भी बेहद स्पष्ट है कि मात्र बीजाई का काम ही यह निश्चित कर देता है कि फल कैसा उगेगा- जैसा बीजोगे, वैसा काटोगे। पंजाब का सारा का सारा आर्थिक और सामाजिक इतिहास खेती-किसानी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। जब-जब यहां की किसानी पर कोई खतरा आया, यहां की अर्थव्यवस्था में भी भारी हलचल, उथल-पुथल पैदा हो जाती है।

आर्थिक मंदी के दौर में यहां की किसानी भी बनती-बिगड़ती रही है। घोर संकटों के दौर में भी पंजाब के किसानों ने अपनी खेती को संभाल कर रखा। ऐसे स्वभाव के पीछे गुरुनानक देवजी की वह चेतना भी थी, जिसमें तमाम यात्राओं के बाद करतारपुर में उन्होंने स्वयं खेती की थी। ऐसे रुहानी एहसास के इतिहास के कारण ही पंजाब का किसान ब्रह्म बेला में खेतों में जाता रहा और उनके परिवारों की महिलाएं दूध दूहते-दुहते नाम सिमरती रहीं।

इसी कारण सदियों तक परमार्थी वातावरण बनता चला गया। किसान, बढ़ई, लोहार तथा मजदूर मिलकर रात को ढोलक-चिमटा बजाते और गा-गाकर सारी थकान गुरु चरणों में अर्पित कर देते। खेती के इर्द-गिर्द ही गांव का भाईचारा घूमता। पिछले तीन दशकों से आर्थिक विकास की एक आंधी चली है। बदले फसल चक्र की आपा-धापी में आए पैसे की हरियाली ने उसे दैवी हरियाली से दूर कर दिया। कृषि विश्वविद्यालय में बैठे बुद्धिजीवियों ने यह भुला ही दिया कि प्रकृति उनसे पहले भी थी और बाद में भी रहेगी।

पंजाब के किसान ने 'हरित क्रांति' के इस मामूली से सट्टे में खेती-किसानी के न केवल सनातन मूल्य गंवाए, बल्कि गुरु बचन भी बिसार दिए। विशेषज्ञों ने बड़ी विदेशी कंपनियों के संग कागजी हरियाली की साठगांठ करके असली हरियाली को दांव पर लगा दिया। लुधियाना कृषि विश्वविद्यालय की जनवरी-2011 में छपी रिपोर्ट अब इन योजनाओं को बेड़ियां मान तो रही है, पर यह वह भूल गई है कि यह तो अपने ही कुकर्मों का सियापा है।

ये योजनाकार अब लिखते हैं कि पंजाब के 40 प्रतिशत छोटे किसान या तो समाप्त हो चुके हैं या अपने ही बिक चुके खेतों में मजदूरी कर रहे हैं। पिछले तीन दशकों के दौरान पंजाब की किसानी विश्व व्यापारियों द्वारा बिछाए जाल में पूरी तरह फंस चुकी है। हरित क्रांति, सिर्फ और सिर्फ शहरीकरण और अब वैश्वीकरण ने पंजाब को काल का ग्रास बनने के कगार पर ला खड़ा किया है। पंजाब शायद संसार का पहला ऐसा राज्य होगा, जहां से 'कैंसर एक्सप्रेस' नामक रेलगाड़ी चलती है।

जिस राजस्थान के साथ पंजाब पानी का एक घड़ा बांटने को तैयार नहीं, उसी पंजाब के सभी कैंसर मरीजों को राजस्थान का बीकानेर मुफ्त इलाज देता है। पंजाब की किसानी का संकट चतुर सुजान कृषि विश्वविद्यालय और मुफ्तखोरी के नारे वाली वोटखोर सरकारों तथा बैंक के कर्जों में नहीं, बल्कि परंपराओं पर जम गई धूल झाड़ने में है। पंजाब प्रदेश के नाम में जुड़े शब्द आब का एक अर्थ पानी तो है ही, लेकिन इसका दूसरा गहरा अर्थ हैः चमक, इज्जत और आबरू। भविष्य में पंजाब अपने नाम का असली अर्थ न खो बैठे- आज हमें इसकी चिंता करनी है।

सोर्स: अमर उजाला

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