सम्पादकीय

कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव

Rani Sahu
3 Jan 2022 7:12 PM GMT
कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव
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हिमाचल में नए साल के राजनीतिक संबोधन आगामी चुनाव की पराकाष्ठा सुनाएंगे, तो इस बार विपक्ष में बैठी कांग्रेस के लिए भी यह गला साफ करने का वर्ष है

हिमाचल में नए साल के राजनीतिक संबोधन आगामी चुनाव की पराकाष्ठा सुनाएंगे, तो इस बार विपक्ष में बैठी कांग्रेस के लिए भी यह गला साफ करने का वर्ष है। कांग्रेस के लिए पहली बार मनोवैज्ञानिक लड़ाई का कुरुक्षेत्र हिमाचल में पैदा होगा और इस दृष्टिकोण से भाजपा को महारत हासिल है। भाजपा की मनोवैज्ञानिक पिच पर कांग्रेस के लिए यह केवल उद्गार बदलने का मुकाबला नहीं, बल्कि राजनीति की मार्केटिंग में खुद को अव्वल साबित करने का नया संघर्ष है। बेशक चार उपचुनाव जीत कर कांग्रेस का चुनावी गणित सुधरा है, लेकिन इस हार ने भाजपा में रणनीति को नए अवतार में पेश करने की शिद्दत पैदा की है। भाजपा को एक तरफ डबल इंजन सरकार को पेश करना है, तो दूसरी ओर यह एहसास दिलाना है कि वीरभद्र सिंह के प्रति इनसानी संवेदना का असर वोटर मानसिकता के खेल पर नहीं होगा। सत्तारूढ़ दल आगामी बजट को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण करने की हरसंभव कोशिश करेगा, तो कांग्रेस के भीतरी कक्ष में फसाद खोजने के लिए एड़ी-चोटी लगा देगा। हिमाचल में कांग्रेस के लिए पंजाब-उत्तराखंड के चुनाव अगर मनोवैज्ञानिक प्रभाव रखते हैं, तो उत्तर प्रदेश में चुनावी करवटें बता देंगी कि भाजपा के भीतर जीत के प्रति कितनी आग है। बेशक यही आग कांग्रेस ने उपचुनावी शक्ति में पारंगत की, लेकिन इस जीत के साथ जनाक्रोश भी खड़ा रहा।

भाजपा इसी जनाक्रोश के प्रति चिंतित है और इसे दूर करने के फैसलों में सरकारी कर्मचारियों की आंख में सत्ता का सुरमा डाला जा रहा है। सरकार के अहम फैसलों में सरकारी कर्मचारियों से रिश्ते-नाते सुधरेंगे और ताबड़तोड़ तरीके से प्रदेश का खजाना अर्पित होगा। जाहिर तौर पर भाजपा अपने हर फैसले में ऐसा मनोविज्ञान पैदा करना चाहेगी जिससे जनाक्रोश व सरकार विरोधी लहर टूटे, लेकिन इससे कहीं अधिक विपक्ष के सुर टूटे या उसे विषय ही उठाने नहीं दिए जाएं। मंडी में भाजपा सरकार की चौथी वर्षगांठ में प्रधानमंत्री का शगुन दरअसल ऐसे ही मनोविज्ञान की कार्यशाला थी, जहां यह साबित किया गया कि समर्थकों का सैलाब पड्डल मैदान से निकलकर पूरे प्रदेश में फैलेगा। समर्थकों के मनोविज्ञान में कांग्रेस खुद को कितना सिद्ध कर पाती है, यह कशमकश पार्टी के राज्य नेतृत्व से आलाकमान तक देखी जाएगी। आक्रोश की रैलियों में ही अगर चुनाव हो जाए, तो अलग बात है, लेकिन अब भाजपा अपनी सत्ता के क्षेत्ररक्षण में हमेशा दो कदम आगे चलकर विपक्ष की रणनीति को विचलित करने का हुनर जानती है और इसी के परिप्रेक्ष्य में हिमाचल का 'मिशन रिपीट' खाक छान रहा है। मिशन रिपीट का अपना एक मनोविज्ञान रहा है, जिसके चलते कमोबेश हर पूर्ववर्ती सरकार ने आम जनता को नशा सुंघाने की कोशिश की। अपने पोस्टरों को बड़ा किया और विकास के खाके में हर क्षेत्र का क्षेत्ररक्षण किया। ऐसे में भाजपा का इस बार 'मिशन रिपीट' का मनोविज्ञान, कांग्रेस के आत्मबल को जरूर तोड़ना चाहेगा। ऐसे में देखना यह होगा कि विपक्ष का श्वेतपत्र इस बार बाहर निकलकर कोई गुल खिला पाता है या इससे पहले भाजपा के चक्रव्यूह में कांगे्रस की इस संपत्ति का भी नुकसान हो जाएगा।
आश्चर्य यह है कि भाजपा की सत्ता को पांचवें साल में भी कांग्रेस रक्षात्मक नहीं बना पा रही है और न ही चार उपचुनावों की जीत के बावजूद विपक्ष अपने मुद्दों को तीखा कर पाया है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री बेशक अपने विरोध की लाइन लंबी कर रहे हैं, लेकिन पार्टी के अन्य नेताओं की टेढ़ी लाइनों का मिलन नहीं हो रहा। इस दौरान कुछ आंदोलन और कुछ विरोध प्रदर्शन हुए और कांग्रेस के बाज़ आकाश में उड़े जरूर हैं, लेकिन सामूहिक जिम्मेदारियों में नेताओं के बीच अपनी-अपनी भूमिका के संशय हैं, जबकि भाजपा की चुनावी गिद्ध दृष्टि पीछा कर रही है। सरकार और विपक्ष के बीच कौन किसकी ज्यादा गलतियां चुन पाता है और कौन किसकी फांस में आ जाता है, इस चुनावी मनोविज्ञान में अंतिम वर्ष की परीक्षा बड़ी होती जाएगी। भाजपा के खिलाफ कर्मचारी, व्यापारी, बस मालिक-होटल व्यवसायी और युवा मसले रहे हैं, लेकिन सरकार अपनी दुरुस्ती के आलम में दयालु भुजाओं से ताबड़तोड़ फैसले कर रही है, जबकि कांग्रेस के भीतर वीरभद्र सिंह के प्रभुत्व से विहीन होने का नकारात्मक प्रभाव बड़े नेताओं की नींद हराम कर रहा है। पिछले चुनाव में कुछ नेताओं ने आपसी शिकार में पार्टी वर्चस्व को चोट पहुंचाई थी, तो क्या इस बार नेताओं के बीच सौहार्द की वजह रहेगी।

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