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अपनी मातृभूमि से जमीनी स्तर व जज्बाती तौर पर जुडऩे का माध्यम कृषि व्यवसाय है। कृषि के पुश्तैनी व्यवसाय के सबसे बड़े प्रतिनिधि किसान हैं। बेशक कृषि क्षेत्र व कृषक समाज की जरूरतों को समझने के लिए केन्द्र व राज्यों में कृषि मंत्रालय स्थापित हैं। देश में कृषि व बागवानी से जुड़े विभागों में हजारों सरकारी अहलकार कई पदों पर विराजमान हैं मगर कृषि क्षेत्र का जमीनी अनुभव देश की करोड़ों आबादी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले मेहनतकश अन्नदाताओं के पास ही है। हिमाचल प्रदेश अपने शक्तिपीठों व पर्यटन स्थलों के साथ पारंपरिक अनाजों के लिए भी विख्यात है। राज्य में पैदा होने वाले औषधीय गुणों से भरपूर कई पारंपरिक गुणवत्तायुक्त उत्पाद राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हैं। काला जीरा, चुली तेल व कांगड़ा चाय सहित प्रदेश के कई अन्य उत्पादों को ‘ज्योग्राफिकल इंडिकेशन’ मिल चुका है।
पारंपरिक फसल पद्धति को पुनर्जीवित रखने के सराहनीय प्रयासों के लिए इसी वर्ष देश के गणतंत्र दिवस के अवसर पर राज्य के अनुभवी कृषक नेक राम को भारत सरकार ने ‘पद्म श्री’ नागरिक सम्मान से नवाजा है। आज भी देश में करोड़ों किसान परिवारों की आजीविका खेती से जुड़े पुश्तैनी व्यवसाय पर मुन्नसर करती है।
नि:संदेह कृषि क्षेत्र में रासायनिक खादों के उपयोग से खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज हुई, मगर रसायनों के अंधाधुंध प्रलचन से कृषि भूमि की सेहत दुष्प्रभावित हुई। नतीजतन खेती की उपजाऊ क्षमता व लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ा। यदि मौजूदा दौर में किसानों का खेत-खलिहान के प्रति बेररुखी का नजरिया पैदा हुआ है। खेत खरपतवार की चपेट में आकर वीरानगी की जद में जा रहे हैं। बेसहारा पशुओं के कहर से काश्तकारी जटिल व घाटे का सौदा साबित हो रही है तो इसका मुख्य कारण महंगी रासायनिक खादें, महंगे कीटनाशक, महंगे कृषि उपकरण व महंगे हाईब्रिड बीज तथा डिपुओं में मिलने वाला सरकारी राशन है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि सैकड़ों बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां अपने महंगे बीजों के साथ देश के बाजारों में मजबूत पकड़ से काबिज हो चुकी हैं। यह प्रचलन सुनहरे अतीत वाले पारंपरिक बीजों व पारंपरिक खाद्यान्नों तथा स्वस्थ जीवनशैली पर संकट साबित हो रहा है। देश के बाजारों में बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के दस्तक देने के बाद कृषि अर्थव्यवस्था को गुलजार करने वाले कृषि क्षेत्र के परोधा किसानों की आर्थिकी कमजोर हुई। कई कृषि विशेषज्ञ जीएम बीजों पर एक मुद्दत से मुखालफत का इजहार करके पारंपरिक कृषि बीजों के वजूद को बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं। कृषि क्षेत्र में दरपेश आ रही इन समस्याओं पर एक रायशुमारी की जरूरत है।
जिन पारंपरिक खाद्यान्नों की लज्जत से पहाड़ महक उठते थे वो पारंपरिक फसलें पहाड़ के खेतों से रुखसत होने की कगार पर हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में उगाए जाने वाले ‘चिन्नौर’ प्रजाति के चावल को ‘जीआई’ टैग मिला है। मगर हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला का ‘बायला ब्राउन बासमती’ चावल तथा रोहडू क्षेत्र के द्दोहारटू घाटी का ‘लाल चावल’ अपने अनूठे स्वाद व पौष्टिक गुणों के लिए प्रसिद्ध है। लाल चावल की खेती के संरक्षण के लिए रोहडू उपमंडल के किसानों को सन् 2021 में राष्ट्रपति ने सम्मानित किया था। चंबा के भांदल कस्बे के किसानों को सदियों पुरानी दुर्लभ सफेद मक्का के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने सन् 2019 में राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा था। सूबे की सियासी कयादत को हिमाचल के इन पारंपरिक फसल उत्पादों को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने के लिए ‘जीआई’ टैग प्रदान करने की कवायद तेज करनी होगी। कृषि व कृषकों के विकास के लिए सरकारों ने कई योजनाएं चलाई हैं। कृषि व्यवसाय पर युवाओं को किताबी ज्ञान देने के लिए कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना भी हो चुकी है। मगर बेरोजगारी के सैलाब के आगे कृषि विश्वविद्यालयों से निकलने वाले उच्च शिक्षित युवा धरातल पर खेती के व्यवसाय से जुडऩे में असमर्थ हैं।
लेकिन यहां देश की पारंपरिक कृषि प्रणाली के सदंर्भ में एक दिलचस्प किस्सा शेयर करना चाहेंगे। भारतीय किसानों को रासायनिक खेती के तौर तरीके सिखाने के लिए बर्तानिया बादशाही ने सन् 1905 में ब्रिटिश कृषि वैज्ञानिक ‘अल्बर्ट हावर्ड’ को भारत भेजा था, मगर भारत की पारंपरिक कृषि पद्धति व देशी खाद्यान्नों के जायके ने ब्रिटिश कृषि वैज्ञानिक के इरादे इस कदर तब्दील कर दिए थे कि अल्बर्ट भारतीय किसानों को खुद का मुर्शिद मान बैठे। अल्बर्ट हावर्ड ने करीब डेढ़ दशक तक भारत की पारंपरिक खेती का ज्ञान हासिल करके उस पर वैज्ञानिक शोध किया। रासायनिक खेती का शौक त्याग कर अल्बर्ट भारत की पारंपरिक खेती के प्रबल समर्थक बन गए थे। सन् 1931 में ब्रिटेन वापिस जाने के बाद अल्बर्ट भारत की पुरातन कृषि पद्धति के तर्जुमान बन गए तथा अपने लेखों के जरिए दुनिया को भारत की पारंपरिक खेती, देशी खाद्यान्नों व पारंपरिक बीजों की अहमियत का मशविरा देते रहे। अल्बर्ट हावर्ड ने सन् 1940 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘एन एग्रीकल्चर टेस्टामेंट’ के माध्यम से भारतीय युवाओं को आगाह किया था कि पारंपरिक खेती एक वसीयत है जो मैं तुम्हें सौंप रहा हूं।
जाहिर है विश्व को पारंपरिक खेती का फलसफा प्रदान करने में भी भारत का अहम किरदार रहा है। कृषि भूमि में रसायनों के पक्षधरों तथा कृषि अदारों के उच्च पदों पर आसीन अहलकारों को अल्बर्ट हावर्ड की पुस्तक से सीख लेनी चाहिए। बहरहाल खेती को किफायती बनाने तथा किसानों व कृषि भूमि की हालत दुरुस्त करने के लिए पारंपरिक बीजों को तरजीह देकर पशुधन आधारित पारंपरिक कृषि मॉडल को प्रोत्साहन देना होगा। ‘वोकल फॉर लोकल’ का संकल्प साकार करने के लिए पहाड़ की धरोहर पारंपरिक बीजों को कृषि बीज केंद्रों व बाजारों में उतारने की योजना को अमल में लाना होगा, ताकि दूसरे राज्यों से आयात होने वाले महंगे बीजों पर किसानों की निर्भरता कम हो। पहाड़ की खेती के बुनियादी दस्तूर को समेटे पुरखों की विरासत पारंपरिक कृषि पद्धति का अस्तित्व बचाने के लिए पारंपरिक बीजों का वजूद बचाना होगा।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
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Rani Sahu
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