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सम्पादकीय
रतिभान त्रिपाठी। हमारे देश में शिक्षा-दान की परंपरा रही है। प्राचीन काल में गुरुकुलों की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। ऐसी व्यवस्था की गई थी कि वहां अध्ययन के लिए जाने वाले छात्रों में सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने के संस्कारों का बीजारोपण हो। मानव जीवन के सभी जरूरी क्षेत्रों-विषयों की युगानुकूल शिक्षा-व्यवस्था रही है। मगर आधुनिक युग में शिक्षा व्यवसाय बन गई। बेहतर शिक्षा के नाम पर अभिभावकों से ऊंची फीस मांगी जाने लगी। इस तरह शिक्षा खरीदने जैसी वस्तु बन गई। जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ तो इसके विभिन्न पहलुओं पर गौर करते हुए आवश्यक व्यवस्थाएं की गर्इं। नकारात्मक पहलुओं को दूर करने के उपाय किए गए। शासन से किसी न किसी तरह की सुविधा लेने वाले शैक्षणिक संस्थानों पर भी नजर डाली गई, जो समाज सेवा के नाम पर व्यवसाय ही कर रहे हैं।
पूंजी का स्वभाव होता है कि वह आखिरी समय तक अपनी ताकत दिखाती है। निजी स्कूल यही कर रहे हैं। वे सूचनाएं देने से बचने के लिए पूरी ताकत झोंके हुए हैं। पर सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआइ एक्ट) के तहत उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त के एक फैसले से निजी स्कूलों का पूंजी से उपजा गुरूर टूटता हुआ नजर आ रहा है। इस फैसले के मुताबिक उत्तर प्रदेश के सभी निजी स्कूल सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में माने जाएंगे। वे मांगी गई सूचना देने को बाध्य होंगे। राज्य के सूचना आयुक्त ने मुख्य सचिव से कहा है कि निजी स्कूल प्रबंधनों में भी जन-सूचना अधिकारी नियुक्त करने की व्यवस्था करें। यह फैसला आरटीआइ एक्ट और शिक्षा का अधिकार अधिनियम दोनों के लिए मील का पत्थर साबित होने वाला है।
निजी स्कूलों के विषय में आरटीआइ एक्ट के तहत राज्य सूचना आयोग लखनऊ में अपील की गई थी कि अगर निजी स्कूलों को रियायती दरों पर विकास प्राधिकरण द्वारा भूमि उपलब्ध कराई गई है, तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि के अनुसार ऐसे स्कूल राज्य द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित समझे जाएंगे। निजी स्कूल सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के तहत सूचना नहीं देते कि वे राज्य द्वारा वित्तपोषित हैं। इस आधार पर वे खुद को अधिनियम की परिधि से बाहर बताते हैं। ऐसे ही मिशनरी स्कूलों का मामला है, जिन्होंने अपने स्कूलों के लिए करोड़ों की जमीन सस्ते में ले रखी है। उन्हें भी इस दायरे में आना ही चाहिए।
उत्तर प्रदेश सूचना आयोग ने यह भी कहा कि ऐसे सभी स्कूलों के लिए, जो उपरोक्त अधिनियम के दायरे में हैं, उनसे अधिनियम और उत्तर प्रदेश मुफ्त और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार नियमावली-2011 के प्रपत्र-एक और दो में वर्णित कतिपय सूचनाएं जिला शिक्षाधिकारी को देना अपेक्षित है। ऐसी स्थिति में जिला शिक्षाधिकारी उक्त प्रपत्रों में उल्लिखित सूचनाओं को धारित करते और उनमें वर्णित सभी सूचनाएं आरटीआइ एक्ट की धारा-6(1) के तहत मांगे जाने पर याची को देने को बाध्य हैं।
इसी कड़ी में यह बात भी गौरतलब है। आप किसी भी शहर या कस्बे में देखें तो ईसाई मिशनरियों के स्कूल उस शहर, कस्बे के महत्त्वपूर्ण इलाके में होते हैं और वह बेशकीमती जमीन उन्होंने सरकार से कौड़ियों के भाव पर ले रखी है। यह ठीक है कि वे आज के दौर और जरूरत के हिसाब से बेहतर शिक्षा देने का प्रयास करते हैं, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे अल्पसंख्यक अधिनियम का लबादा ओढ़ कर करोड़ों का वारा-न्यारा भी करते हैं। पर सरकार के आदेश-निर्देश का पालन करने में उन्हें कठिनाई होती है। इस तरह के अपारदर्शी कारोबार पर रोक लगनी ही चाहिए। जब शिक्षा समता-समानता का बोध कराती है, तो फिर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के नाम पर यह भेदभाव क्यों?
जब दुनिया एक विश्वग्राम बन चुकी है, दुनिया के किसी भी कोने की कोई भी जानकारी आप चुटकी बजाते हासिल कर सकते हैं, तब शिक्षा देने जैसा पुनीत काम करने वाले निजी स्कूल अपने यहां की कौन-सी बात छिपाना चाहते हैं। जब वे काबिल शिक्षक रखते हैं, शानदार और स्मार्ट क्लासरूम बनाते हैं, नौनिहालों को विश्वस्तरीय शिक्षा देने का दावा करते हैं, बच्चों को बेहतरीन शैक्षिक और स्वास्थ्यकर माहौल देने की बात कहते हैं, जहां उनकी प्रतिभा पुष्पित-पल्लवित हो सके, तो इन सब बातों की सूचनाएं आखिर सार्वजनिक क्यों नहीं करना चाहते हैं। निजी स्कूलों का प्रबंधन अपने स्कूलों की सुख-सुविधाओं का विज्ञापन अखबारों में छपवा और टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित करवा सकता है, लेकिन अगर सरकार या जन सामान्य उससे लिखित रूप में कोई जानकारी चाहे तो उसे घोर आपत्ति होती है। शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में ऐसी गोपनीयता उचित नहीं कही जा सकती।
कोरोना काल में अभिभावकों का संकट और गहरा गया, क्योंकि बहुतों की कमाई या तो कम या फिर ठप हो गई, लेकिन स्कूलों ने फीस छोड़ने या घटाने का बड़प्पन नहीं दिखाया। उनका कहना है कि वे तो अपने शिक्षकों को वेतन दे ही रहे हैं। इस कालखंड में लंबे समय तक बंदी के चलते देश भर के बहुतेरे निजी स्कूलों के राजस्व में बीस से पचास प्रतिशत की गिरावट का दावा किया गया है, लेकिन इनमें से कुछ स्कूलों ने अपने शिक्षकों के वेतन में न केवल कटौती की, बल्कि बहुतों को सेवा से बाहर भी कर दिया।
भारत में गुणवत्ता पूर्ण स्कूली शिक्षा पर काम कर रहे सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन (सीएसएफ) नामक गैर-सरकारी संगठन ने एक अध्ययन में बीस राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के ग्यारह सौ अभिभावकों, स्कूल प्रबंधकों और शिक्षकों को शामिल किया। अध्ययन की रिपोर्ट के मुताबिक निजी स्कूलों ने अपने शिक्षकों के वेतन में कम से कम पचपन प्रतिशत की कटौती की है। कम फीस वाले स्कूलों ने पैंसठ प्रतिशत और अधिक फीस वाले सैंतीस प्रतिशत शिक्षकों का वेतन रोक रखा है।
इनमें चौवन प्रतिशत शिक्षकों की आमदनी का कोई दूसरा जरिया नहीं है। तीस प्रतिशत शिक्षक ट्यूशन पढ़ा कर अपना काम चला रहे हैं। अध्ययन रिपोर्ट कहती है कि सत्तर प्रतिशत अभिभावकों ने साफ तौर पर बताय
जनसत्ता
Gulabi
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