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जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ गुफा के निकट बादल फटने से हुआ हादसा एक तरह से उत्तराखंड में आधुनिक विकास के दुष्परिणाम का विस्तार ही है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ गुफा के निकट बादल फटने से हुआ हादसा एक तरह से उत्तराखंड में आधुनिक विकास के दुष्परिणाम का विस्तार ही है। यात्रियों के विश्राम हेतु जो विश्राम स्थल बनाए गए थे, बादल फटने से वहां जो भू-स्खलन हुआ उस मलबे की चपेट में अनेक तंबू आ गए। नतीजतन शिविर क्षेत्र में कीचड़ की मोटी परत के नीचे अनेक जिंदगियां दबी रह गईं। इस हादसे में तेलंगाना के भाजपा विधायक टी राजा सिंह और उनका परिवार बच गया।
सिंह का कहना है कि अचानक मौसम में बदलाव आया और बादल फटने के साथ तेज बारिश होने लगी। इससे जो पहाड़ी मलबे का सैलाब नीचे आया, उसमें अनेक तंबुओं को बहते देखा। यह हादसा उत्तराखंड में आए केदरनाथ और ऋषि-गंगा हादसों जैसा ही है। दरअसल आधुनिक विकास के लिए जिस तरह से पहाड़ों को उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर में निचोड़ा जा रहा है, उसी के परिणामस्वरूप हादसों की यह इबारत प्रकृति का गुस्सा लिख रहा है। किंतु हम हैं कि इन लगातार हो रहे हादसों से कोई सबक नहीं ले रहे हैं।
केदारनाथ में भी बादल फटने से प्रलय का दृश्य देखने में आया था। तब 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उत्तराखंड सरकार ने एक समिति बनाई थी, जिसे हिमालय परिक्षेत्र में निर्माणाधीन 80 विद्युत परियोजनाओं की समीक्षा कर रिपोर्ट देनी थी। इसमें ऋषि गंगा परियोजना भी शामिल थी। इस समिति को इन सभी परियोजनाओं का अध्ययन कर परियोजना को आगे बढ़ाने की अनुमति देनी थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऋषि-गंगा घटना घट गई। यहां बर्फ के एक बड़े शिलाखंड के टूटने से आई बाढ़ के कारण चमोली जिले में ऋषिगंगा और धौलीगंगा जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांध टूट गए थे।
नतीजतन करीब 150 से भी ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए थे। इस घटना ने एक बार फिर आधुनिक विकास बनाम प्रलय की चेतावनी दी थी लेकिन शासन-प्रशासन के कानों में जूं तक नहीं रेंगी और बर्बादी का कथित विकास जारी रहा। ऐसे ही विकास की इबारत घाटी में किशनगंगा नदी पर निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं ने इस अमरनाथ हादसे के साथ लिख दी है। ये सब प्राकृतिक घटनाएं कम और मानव उत्सर्जित आपदा ज्यादा हैं। हालांकि 2019 में नंदा देवी संरक्षित क्षेत्र में बिजली के लिए बन रहे बांधों को रोकने के लिए अदालत में याचिका दायर की गई थी, क्योंकि पहाड़ों पर जो झीलें बनाई जा रही हैं, वे कभी भी बाढ़ का सबब बन सकती हैं।
इस रिपोर्ट की अनदेखी की गई और सात फरवरी 2021 की सुबह ऋषि-गंगा में प्रलय का दृश्य हकीकत में सामने आ गया। हालांकि इस तरह के जल प्रलय का संकेत 44 साल पहले 'उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के निदेशक एवं भूविज्ञानी एमपीएस विष्ट और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान एक शाेध में दे चुके थे। इस शाेध के मुताबिक ऋषि गंगा अधिग्रहण क्षेत्र के आठ से अधिक हिमखंड सामान्य से अधिक रफ्तार से पिघल रहे थे। जाहिर है, इनसे अधिक जल बहेगा तो हिमखंडों के टूटने की घटनाएं होंगी।
बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थितिकी तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों में ढहा दिया गया। नतीजतन नदियों का तल मलबे से भर गया, फलस्वरूप उनकी जलग्रहण क्षमता नष्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। लिहाजा बारिश आती है तो नदियां तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाशलीला में तब्दील होने लगती हैं।
परियोजनाओं के लिए पेड़ भी काटे जाते हैं। इस कारण से पेड़ों की जड़ें जो मिट्टी को बांधे रखने की कुदरती सरंचना रचती हैं, वह टूट गई थीं। उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर जलविद्युत परियोजना लगाकर सरकार इसे विद्युत प्रदेश बनाने की कोशिश में है जिससे बिजली बेचकर यहां की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सके। फिलहाल राज्य में 70 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं आकार ले रही हैं। लेकिन इसके कारण पर्यावरण की जो अनदेखी हो रही है, वह बेहद चिंताजनक है।
Rani Sahu
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