सम्पादकीय

दलित गोलबंदी की राजनीति

Rani Sahu
21 Sep 2021 6:30 PM GMT
दलित गोलबंदी की राजनीति
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दलित गोलबंदी की राजनीति का स्वरूप फिर नया मोड़ ले रहा है। 1990 का दशक एक प्रकार से अस्मिताओं के उभार का दौर था

बद्री नारायण। दलित गोलबंदी की राजनीति का स्वरूप फिर नया मोड़ ले रहा है। 1990 का दशक एक प्रकार से अस्मिताओं के उभार का दौर था। इसी दशक में उसमें स्वायत्त दलित राजनीति का नारा देते हुए पंजाब से उभरे रामदसिया सिख समुदाय से जुड़े कांशीराम ने दलितों में दलितों की अपनी राजनीति की आकांक्षा विकसित की थी। उन्होंने तब दलित-बहुजनों की राजनीतिक पार्टी के रूप में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था। उनके और मायावती के नेतृत्व में दलित राजनीति लगभग दो दशकों तक आक्रामक रूप से एक नया मोड़ लेकर न सिर्फ उत्तर प्रदेश में, बल्कि देश की राजनीति में भी प्रभावी बनी रही। उस वक्त दूसरे राजनीतिक दलों में भी दलित नेता तो रहे, पर उन्हें दलित-बहुजन राजनीति में ज्यादा महत्व नहीं मिल सका। पिछले दिनों मायावती के नेतृत्व में बहुजन राजनीति का प्रभाव थोड़ा कमजोर हुआ है। ऐसे में, फिर दलित गोलबंदी की राजनीति उत्तर भारत में बहुजन राजनीति के उभार के पूर्व के ढर्रे पर लौटती दिख रही है। आज फिर विभिन्न राष्ट्रीय दलों में दलित नेताओं को महत्व मिलना, उस महत्व का राष्ट्रीय विमर्श में महत्वपूर्ण होकर उभरना इस बात का सूचक है।

अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने पंजाब में रामदसिया सिख समुदाय, जो प्राय: दलित समाज से जुड़ा समुदाय है, के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है। वहीं भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश के चुनाव के मद्देनजर जो चुनाव संचालन की शीर्ष टीम बनाई है, उसमें अन्य जातियों के साथ-साथ बेबी रानी मौर्य को, जो दलित समुदाय से जुड़ी हैं, महत्वपूर्ण स्थान दिया है। यहां इतिहास अपने को दोहरा रहा है। स्वायत्त दलित राजनीति की जगह 'सबकी राजनीति के बीच दलित राजनीति' का दौर फिर से आता दिख रहा है। जनतंत्र का खेल निराला है। यहां सबको कभी न कभी सबकी जरूरत पड़ती है। दलित को सवर्ण की, सवर्ण को दलित की, पिछड़ों को दलित की, दलित को पिछड़ों की जरूरत पड़ती रहती है। कहने का तात्पर्य है कि यह जनतंत्र की ही शक्ति है कि वह समाज में सबको सबकी जरूरत का एहसास दिलाकर एक-दूसरे से जोडे़ रखता है। एक गांव में पिछले दिनों राजनीति पर बात करते हुए एक वृद्ध ने हमसे ठीक ही कहा था, समाज और राजनीति, दोनों धीमी आंच पर खिचड़ी की तरह पकते रहते हैं, जरूरत होती है बस ठीक मात्रा में चावल-दाल को मिलाने की। जनतंत्र हमारी राजनीति में विभिन्न सामाजिक समूहों के ऐसे ही सामाजिक संयोजन की जरूरत का एहसास कराता रहता है।
प्राय: कहा जाता है कि भारतीय राजनीति में दलित नेताओं के महत्व का बढ़ना मात्र प्रतीकात्मक है। अगर ऐसा है भी, तब भी मेरा मानना है कि हर प्रतीकात्मकता धीरे-धीरे अपनी ठोस जगह खुद ही बना लेती है। प्रतीकात्मक हिस्सेदारी धीरे-धीरे ठोस हिस्सेदारी में बदल जाती है। यह तय है कि कांग्रेस अपने दलित आधार की वापसी चाहती है। भारतीय राजनीति में बसपा के उभार के पूर्व दलित समूह का एक बड़ा भाग कांग्रेस का आधार वोट रहा है। इधर जब बसपा और मायावती का कमजोर होना जारी है, तब कांग्रेस न केवल पंजाब में, बल्कि पूरे देश में ही दलित आधार मत में पैठने की कोशिश कर रही है। भाजपा भी पिछले दिनों लगातार दलित समूहों में प्रभावी होती गई है। ऐसे में, चुनाव के वक्त दलित चेहरों के महत्व का बढ़ना स्वाभाविक है।
पंजाब में कांग्रेस चरणजीत सिंह चन्नी जैसे दलित चेहरे को मुख्यमंत्री बनाकर दो तरह के लाभ की अपेक्षा कर रही है- एक, पंजाब में रामदसिया सिख समुदाय में अपने असर को सशक्त करना; दूसरा, पूरे देश की दलित बिरादरी को राजनीति में उनकी पर्याप्त हिस्सेदारी देने का संदेश देना। हालांकि पंजाब की राजनीति में कांग्रेस के लिए यह शायद ही बहुत लाभ का सौदा हो। पंजाब की दलित राजनीति में दो दलित समूह आस-पास की संख्या बल वाली जातियां हैं और इन दोनों में आगे बढ़ने की राजनीतिक व जनतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता भी चलती रहती है। दोनों की राजनीतिक स्थिति एक-दूसरे से टकराती रहती है। ऐसे में, रामदसिया सिख जो प्राय: एक विशेष सामाजिक समुदाय से जुड़े हैं और पहले से ठीक-ठाक संख्या में कांग्रेस से जुड़े रहे हैं, की प्रतिद्वंद्विता में वाल्मीकि समुदाय कांग्रेस के विपक्ष में खड़े दलों, जैसे अकाली गठबंधन, भाजपा, आम आदमी पार्टी में से किसी की तरफ भी झुक सकते हैं।
पंजाब के बाद उत्तर प्रदेश में भी यह जाटव समुदाय दलितों का प्रभावी समुदाय है। किंतु मायावती जो इसी जाति की अस्मिता से जुड़ी हैं, का अभी तक इस समूह में गहरा आधार है। उनसे इस समूह के जो लोग अलग भी होंगे, वे उत्तर प्रदेश के संदर्भ में न सिर्फ कांग्रेस, वरन भाजपा, समाजवादी पार्टी, चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाली आजाद समाज पार्टी की तरफ भी जा सकते हैं। भाजपा अपनी विकास योजनाओं, सामाजिक कल्याण के कार्यों, राजनीतिक-सांस्कृतिक अस्मिता की पुष्टि जैसे अनेक कार्यों से दलित समूहों, पिछड़ों और वंचितों में अपना आधार मजबूत करने की एक बड़ी योजना पर काम कर रही है। दलित समूह से आए नेताओं की भागीदारी उसी योजना का एक हिस्सा है। इस बार भाजपा गैर-जाटव दलित समूहों के साथ-साथ जाटव समूह में भी अपना असर बढ़ाना चाहती है। इसलिए न केवल बेबी रानी मौर्य, वरन इस समूह के ऐसे अन्य नेता भी आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते दिख सकते हैं।
भारत में दलित राजनीति 'उत्तर बहुजन (बहुजन समाज पार्टी) राजनीति' के दौर में पहुंच गई है, जिसमें दलितों की स्वायत्त राजनीति की संभावना कमजोर होगी और राष्ट्रीय पार्टियों में उनकी भागीदारी की राजनीति मजबूत होती जाएगी। बहुत संभव है, यह भागीदारी अपने दीर्घकालिक परिणाम में मात्र प्रतीकात्मक न रहकर ठोस परिणामों में भी बदले। देखना यह है कि यह प्रक्रिया उनके भीतर न केवल अपने ही समूह से असंपृक्त एक शक्तिवान व कुलीन वर्ग का विकास करने तक सीमित होकर न रह जाए, वरन यह राजनीतिक भागीदारी अंतत: इन सामाजिक समूहों के विकास की परियोजना से गहरे जुड़े। दलित और सीमांत समूहों को शक्तिवान बनाने के लिए यह जरूरी है और ऐसी ही आकांक्षा बाबा साहेब आंबेडकर ने बार-बार की थी।


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