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सम्पादकीय
पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता चरमपंथियों को और ताकतवर बनाएगी जिससे यह क्षेत्र और अधिक अस्थिर होगा
Gulabi Jagat
12 April 2022 8:10 AM GMT
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‘अस्थिरता’ और ‘पाकिस्तान’ मानो पर्यायवाची शब्द हो गए हैं
आरज़ू काज़्मी।
संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के पूर्व प्रमुख कोफी अन्नान (Kofi Annan) ने आर्थिक संकट के कारणों और लंबे समय तक सामाजिक अस्थिरता से इसके संबंधों पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा था – गरीबी परिवारों, समुदायों और राष्ट्रों को तबाह कर देती है. यह अस्थिरता और राजनीतिक अशांति का कारण बनती है, जिससे समाज में आंतरिक संघर्ष बढ़ता है. पाकिस्तान (Pakistan) में यह अस्थिरता 1958 से चली आ रही है, जब पड़ोसी देश में पहला तख्तापलट हुआ था. 33 साल के सीधे सैन्य शासन काल को देखने के बाद पाकिस्तानियों के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना बेशक मुश्किल होगा कि उनके देश में किस चीज ने अधिक अस्थिरता पैदा की है – कठोर सैन्य शासन ने या नाजुक लोकतांत्रिक सरकारों ने.
पाकिस्तान में कई लोग ये मानते हैं कि मिलिट्री ने अपने शासन काल में देश में प्रशासनिक कार्यों को दुरुस्त रखा, जबकि राजनीतिक पार्टियां अपने कार्यकाल में भ्रष्ट नीतियों में लिप्त होकर पैसा कमाने में लगी रहीं. हालांकि कुछ बातों पर उनको बर्दाश्त भी किया जा सकता है, फिर भी यह एक सच्चाई है कि पाकिस्तान दशकों से धार्मिक उग्रवाद, जातीय विवादों और नागरिक अशांति का सामना कर रहा है. तो क्या पाकिस्तान की मुश्किलों के लिए एक जर्जर नागरिक व्यवस्था और एक सामंती राजनीतिक संस्कृति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
'अस्थिरता' और 'पाकिस्तान' मानो पर्यायवाची शब्द हो गए हैं
सिविलियन सरकारों के साथ अपने अनुभवों से हम यह कह सकते हैं कि हमने वहां आंतरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने में आंशिक या पूर्ण तौर पर अव्यवस्था देखी है. खासतौर पर मजबूत आर्थिक नीतियों के अभाव में वहां ऐसी अधिकांश सरकारों का रिकॉर्ड खराब ही रहा है. आसमान छूती महंगाई, नीचे जाते जीडीपी के आंकड़े और कर्ज में डूबी अर्थव्यवस्था कुछ ऐसे तथ्य हैं जो स्वाभाविक रूप से हमें ये सोचने पर मजबूर करते हैं कि पाकिस्तान में अस्थिरता का वास्तविक कारण क्या है. क्या पाकिस्तानियों के लिए किसी भी रूप से यह मायने रखता है कि वे सैन्य शासन से बच गए हैं और तथाकथित लोकतांत्रिक ताकतों को सहन करते आए हैं जिन्होंने देश के मूल आधारों को मजबूत करने में शायद ही कोई योगदान दिया है.
पड़ोसी देश में इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के शासनकाल ने वहां के वोटर्स को चुनावों के प्रति और उदासीन ही किया है. ऐसे में कई लोगों के लिए कई लोगों के लिए 'अस्थिरता' और 'पाकिस्तान' मानो पर्यायवाची शब्द हो गए हैं. बीते सात दशकों में पाकिस्तान ने जो भी संबंध हमारे साथ साझा किए हैं, केवल राजनीतिक अस्थिरता शायद ही उस प्रतिमान को तोड़ सकती है. भारत को पाकिस्तान के लिए एक संभावित खतरे के रूप में बताते हुए सैन्य तानाशाहों ने अपने यहां राजनीतिक रोटियां खूब सेंकीं लेकिन केंद्र में लोकतांत्रिक सरकार बनने के बावजूद वहां स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं आया. उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान में जिहाद के बाद बेलगाम आतंकवाद समाज के हर वर्ग में प्रवेश कर गया है और हाल के समय में और बढ़ता ही नजर ही आया है.
पाकिस्तान में शासन और प्रशासन को लेकर छाई निराशा का नतीजा न सिर्फ इसके बंटवारे में हो सकता है, बल्कि स्थिर और अधिक समृद्ध पड़ोसी भारत के लिए भी यह हानिकारक साबित हो सकता है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मीनार-ए-पाकिस्तान की आगंतुक पुस्तिका में लिखा है – एक स्थिर, सुरक्षित और समृद्ध पाकिस्तान ही भारत के हित में है. मुझे लगता है कि सीमा के दोनों ओर के कई राजनेता या तो वाजपेयी के विचारों के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं या फिर अपनी तुच्छ राजनीति में वे इतने तल्लीन हैं कि उनको एक अस्थिर पड़ोसी होने के खतरे नजर ही नहीं आ रहे हैं.
लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छा समर्थन अन्य लोकतंत्रों से आता है
भारत को यह समझने की जरूरत है कि पाकिस्तान में पूर्ण अस्थिरता की स्थिति होने पर एक बात निश्चित रूप से नई दिल्ली के खिलाफ जाएगी कि तब अधिकांश पावर सेंटर उग्रवादियों के सीधे नियंत्रण में होंगे जिनके लिए भारत विरोधी नीति और शत्रुतापूर्ण माहौल अपने स्वयं के निर्वाह के लिए आवश्यक है. इसलिए, यदि अस्थिरता पाकिस्तान का भविष्य बन जाती है, तो भारत को स्वाभाविक रूप से एक ऐसे पड़ोसी से लंबे समय तक युद्ध जैसी स्थिति से निपटना होगा जिसके स्थापित होने का आधार ही नफरत और आक्रोश है. ऐसा विरोधी पड़ोसी कल को देश के पहले से अस्थिर राज्यों मसलन कश्मीर, पंजाब आदि में आतंकवाद को और बढ़ावा देगा. 'तालिबानीकरण' का खतरा और इस्लामाबाद में इसकी जकड़ तब एक वास्तविकता होगी. भारत ने अब तक कई बार आरोप लगाया है कि पाकिस्तानी सरकारों, चाहे वह सिविलियन हो या मिलिट्री – दोनों ने ही सशस्त्र आतंकवाद को बढ़ावा दिया है.
हालांकि, टीटीपी जैसी फ्रैंचाइजी के बढ़ते प्रभाव के साथ, पाकिस्तान को भारत विरोधी चरमपंथियों को नियंत्रित करने के लिए कोई दंडात्मक कार्रवाई करने के लिए मजबूर करना मुश्किल ही होगा. एक अस्थिर पाकिस्तान अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की अनदेखी कर सकता है. वहीं एक अस्थिर और गृहयुद्ध झेल रहे पाकिस्तान के नागरिकों को सीरिया, इराक, पूर्व पूर्वी पाकिस्तान और म्यांमार (रखिन राज्य) के नागरिकों जैसे संकट में डाल सकता है. तब बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत और अन्य देशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में जुटने लगेंगे. पाकिस्तान को लेकर एक और मुद्दा है जिस पर भारतीयों को सावधान रहने की जरूरत है और वो है एक अस्थिरता से ग्रसित देश परमाणु शक्ति का दुरुपयोग करना. इससे बड़े पैमाने पर 'परमाणु प्रसार' का जोखिम भी हो सकता है. ये बहुत यथार्थवादी खतरे हैं जिनकी कल्पना कोई भी कर सकता है.
पाकिस्तान की दिवंगत प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने एक बार अपने भाषण में उल्लेख किया था: लोकतंत्र को समर्थन की आवश्यकता है और लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छा समर्थन अन्य लोकतंत्रों से आता है. लोकतांत्रिक राष्ट्रों को एक संघ बनाकर उसके जरिए एक दूसरे की मदद करने की आवश्कता है ताकि सार्वभौमिक मूल्य – लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जा सके. मैं इसे आसपास मंडराते गंभीर खतरों के बीच आशा की एक किरण के रूप में देखती हूं. एक जिम्मेदार पड़ोसी और सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते भारत को उपमहाद्वीप में लोकतांत्रिक मूल्यों को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.
(लेखिका पाकिस्तान स्थित पत्रकार और यूट्यूबर हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
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