सम्पादकीय

नीति निर्माताओं को करना होगा ऐसा उपाय ताकि सुगम बने आर्थिक सुधारों की राह

Gulabi Jagat
27 March 2022 5:19 PM GMT
नीति निर्माताओं को करना होगा ऐसा उपाय ताकि सुगम बने आर्थिक सुधारों की राह
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यह सही है कि स्वाधीनता के बाद से निरंतर देश का आर्थिक विकास हुआ है
डा. विकास सिंह। यह सही है कि स्वाधीनता के बाद से निरंतर देश का आर्थिक विकास हुआ है। यह अलग बात है कि इसकी गति अपेक्षाकृत कम रही है। वैसे पिछली सदी के अंतिम दशक में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर परिवर्तनकारी सुधार का व्यापक प्रयास किया गया था, जिसके बेहतर नतीजे भी सामने आए। बाद के सुधारों ने अनुकूल परिस्थितियों का फायदा उठाया और वे सभी समान रूप से प्रभावशाली थे। हालांकि इसने देश के एक बड़े हिस्से को उपभोक्ता वर्ग में ला खड़ा किया और अधिकांश को गरीबी के जाल से बाहर निकाल दिया। लेकिन किसी क्षेत्र विशेष को उदार बनाने का अर्थ संबंधित नीतियों के क्रियान्वयन में सुधार करना और व्यवसाय संचालन के कारकों को तैयार करना भी है। कई बार अलग-अलग आर्थिक कारक आगे बढ़ते हैं और बहुत ही विविध परिणामों के साथ असमान गति को भी दर्शाते हैं। एक संबंधित हालिया अध्ययन में समय के महत्व और सुधारों के क्रम पर प्रकाश डाला गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक विकास पर अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभावों के बीच महत्वपूर्ण अंतर है।
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि आज टेलीकाम का मतलब एक काल से कहीं अधिक है। सूचना प्रौद्योगिकी अब पिछली शताब्दी की तरह केवल कोडिंग नहीं कर रही है। ऊर्जा क्षेत्र में सुधारों का अर्थ होगा जीवाश्म ईंधन से आगे जाना तथा सौर, नवीकरणीय ऊर्जा और अन्य हरित ऊर्जा को शामिल करना। शिक्षा और श्रम सुधारों में पहले से कहीं अधिक गतिशीलता हैं। बीमा क्षेत्र में सुधार स्वास्थ्य के आसपास और श्रम, कौशल एवं भूमि में सुधार निर्माण के आसपास केंद्रित है।
ऐसे में नीति निर्माताओं को विशेष रूप से सामाजिक सुधारों के लिए उससे होने वाले अपेक्षित प्रभावों की समीक्षा करने की आवश्यकता है। यह सही है कि अप्रत्यक्ष लेकिन महत्वपूर्ण प्रभावों पर हमेशा अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाता है और प्रत्यक्ष प्रभावों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। प्रशासनिक और न्यायिक सुधारों के बिना आर्थिक सुधार प्रक्रिया एक ऐसे तिपहिया वाहन के समान है, जिसमें तीसरा पहिया डगमगा रहा है।
सुधार प्रक्रिया का रणनीतिक भी होना चाहिए। नीति निर्माता हमेशा विभिन्न उद्योगों, बाजारों और भौगोलिक क्षेत्रों में व्याप्त विविधता की गहन सीमा की उपेक्षा करते हैं। आर्थिक समृद्धि के लिए संवाद सर्वोपरि है, विशेष रूप से एक अत्यधिक प्रतिस्पर्धी संघीय ढांचे के भीतर जहां राजनीतिक रूप से स्थिरता कम हो और विचारों में विविधता हो। इसका एक बड़ा उदाहरण बीते दिनों उस समय सामने आया जब बीते वर्षों केंद्र सरकार द्वारा अच्छे उद्देश्य से बनाए गए परिवर्तनकारी कृषि सुधार कानूनों को केवल इसलिए निरस्त करना पड़ा, क्योंकि वर्तमान केंद्र सरकार इसे उन लोगों के साथ साझा करने में विफल रही, जिनका निर्माण उन्हें ही लाभान्वित करने के लिए किया गया था।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमारे नीति निर्माता कारणों के संबंध को समझते तो हैं, लेकिन तमाम बाधाओं के कारण वे अपेक्षित रूप से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। वे बड़े पैमाने पर संबंधों और सहसंबंधों की उपेक्षा करते हैं। ऐसे में सुधार प्रक्रिया के लिए मैक्रो-टू-माइक्रो की परस्पर निर्भरता की गहरी समझ की आवश्यकता होती है। नीति निर्माता उपकरणों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि क्रियान्वयन पर बहुत कम और प्रारूप के निर्माण में बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं। दोषपूर्ण प्रारूप, कमजोर संकल्प क्रियान्वयन को कमजोर करता है, जिससे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते।
इतना ही नहीं, अस्त-व्यस्त, शिथिल और बिखरे हुए सुधार से सुधारकों की विश्वसनीयता प्रभावित होती हैं। असंगठित क्षेत्र पर ध्यान दिए बिना आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। जबकि हमारे देश में यह बेहद उपेक्षित है। यह विकास में प्रमुख योगदानकर्ताओं यानी पूंजी और श्रम को तराशता है। ऐसे में उन्हें सहयोग प्रदान करना चाहिए, प्रतिस्पर्धा नहीं। इसके अलावा अप्रत्यक्ष लागत भी है। आज हम जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था के दौर में हैं, उससे अक्सर कौशल शिक्षा से अलग हो जाता है। हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति कुछ इस तरह की है कि वह समस्याओं को हल करने के लिए छात्रों को तैयार नहीं करती है। जबकि वैश्विक ज्ञान का केंद्र बनने की भारत की महत्वाकांक्षा शैक्षिक सुधारों पर ही टिकी है।
देश की रकम देश में ही रहे : यदि हम चिकित्सा के क्षेत्र में ही देखें तो प्रतिभाएं तेजी से पलायन कर रही हैं। प्रत्येक भारतीय के लिए उपलब्ध भारतीय डाक्टरों की तुलना में प्रत्येक अमेरिकी के लिए उपलब्ध भारतीय डाक्टरों की संख्या अधिक है। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय छात्र विदेशी डिग्री के लिए हर साल लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का 'निवेशÓ करते हैं। इतनी बड़ी रकम का निवेश यदि हमारे देश के भीतर हो तो हम बड़ी संख्या में विश्व स्तरीय संबंधित संस्थानों को खड़ा कर सकते हैं। इसके लिए हमारे पास पूरी क्षमता भी है।
कौशल, भूमि और श्रम सुधारों के बिना भारत दुनिया की उद्योगशाला नहीं बन सकता। जबकि उत्पादकता से जुड़ी प्रोत्साहन (पीआइएल) योजना विनिर्माण ढांचे के अधिकांश संचालकों की व्याख्या करती है, यह अन्य सक्षम संचालकों की अनुपस्थिति में वृद्धिशील विकास को गति प्रदान नहीं कर सकती है।
संघीय राजनीति एक दूसरी बड़ी समस्या है। अधिकांश आर्थिक सुधार राज्यों में लागू किए गए हैं और उनका श्रेय लेने के लिए राजनीतिक दलों में अक्सर होड़ लगी रहती है। हमारे देश में सुधारों को अलग-अलग प्रशासनिक स्थितियों में तैयार किया गया है। हालांकि अधिकांश हस्तक्षेपों के व्यापक निहितार्थ होते हैं, कई आंतरिक को प्रभावित करते हैं और कई बाहरी हितधारकों को प्रभावित करते हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद देश में 'सक्षमÓ संस्थाओं का अभाव है। हालांकि कई संस्थान 'प्रभावशालीÓ अवश्य हैं, लेकिन उनमें विश्वसनीयता और क्षमता दोनों का अभाव है। अधिकांश अतीत में रहते हैं और बाकी एकांत में। इस प्रकार बहुत सोच-समझ कर बनाई गई नीतियों को भी प्रभावी नहीं होने देते या निचले स्तर तक लोग उनके फायदों से वंचित रह जाते हैं।
इस मामले में एक बड़ी विडंबना यह है कि अधिकांश नीति निर्माता सुधार प्रक्रिया में राजनीतिक और अन्य संस्थानों की भूमिका की सराहना नहीं करते हैं। हमारे देश में आर्थिक सुधारों की राह सुगम नहीं होने के ये सब भी कारण हैं जिन्हें समझना होगा और इन्हें दूर करने के व्यावहारिक उपाय तलाशते हुए उन्हें समग्रता में क्रियान्वित करना होगा। ऐसा होने पर ही हम देश की आर्थिक विकास की गति को तेजी से आगे बढ़ाने में सक्षम हो सकते हैं।

( मैनेजमेंट गुरु तथा वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ )
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