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गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी को पिछले दिनों जमानत देते समय बारपेटा के न्यायाधीश ने लोकतंत्र और पुलिस को लेकर जिस तरह की टिप्पणियां की हैं
विभूति नारायण राय,
गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी को पिछले दिनों जमानत देते समय बारपेटा के न्यायाधीश ने लोकतंत्र और पुलिस को लेकर जिस तरह की टिप्पणियां की हैं, वे हम सबकी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त हैं। जिग्नेश को सबसे पहले असम के एक जिले की पुलिस ने उनके द्वारा किए गए कुछ ट्वीट्स के आधार पर गिरफ्तार किया, और जब उन्हें उसमें जमानत मिल गई, तो उन्हें हिरासत में रहते हुए ही एक महिला पुलिसकर्मी से दुर्व्यवहार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। सत्र न्यायाधीश ने इस पूरे मामले को फर्जी करार देते हुए असम पुलिस की कार्यप्रणाली पर कठोर टिप्पणियां की हैं। उन्होंने पुलिस की अराजकता पर नियंत्रण करने का अनुरोध किया है। न्यायाधीश की यह टिप्पणी सबसे महत्वपूर्ण है कि मुश्किल से हासिल लोकतंत्र को पुलिस-राज में तब्दील नहीं होने दिया जा सकता। पिछले कुछ वर्षों में असम में पुलिस अभिरक्षा से 'भागने' का प्रयास करते हुए मारे जाने वाले कैदियों की संख्या में जैसी असाधारण वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए यह टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है।
असम पुलिस का यह आचरण पुलिस में दिन-ब-दिन बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और शीर्ष पुलिस नेतृत्व द्वारा मौका मिलते ही पूरी तरह समर्पण करने की प्रवृत्ति का द्योतक है। यदि एक ऐसे विधायक को, जिसकी धाक पूरे देश में है, फर्जी मामले में फंसाया जा सकता है, तो फिर आम नागरिक के साथ क्या हो सकता है, इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। पुलिस का अपने विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की कामना किसी एक राजनीतिक दल की बपौती नहीं है। हाल ही में पंजाब पुलिस ने भी पिलखुआ में कवि कुमार विश्वास के घर पर इसी तरह एक आभासी टिप्पणी पर दबिश दी थी। याद रहे कि असम और पंजाब में भिन्न दलों की सरकारें हैं, पर अपने विरोधियों से पुलिस के जरिये निपटने की भूख दोनों में एक जैसी ही है।
पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल व्यक्तिगत आजादी की सांविधानिक गारंटी को किस तरह बाधित करता है, यह असम जैसी घटनाओं से बखूबी समझा जा सकता है, पर इससे भी ज्यादा चिंताजनक सांप्रदायिक उन्माद की वे घटनाएं हैं, जो पिछले कुछ दिनों में देश के विभिन्न भागों में घटी हैं और जिनसे निपटने में असफलता के पीछे एक जैसा ही राजनीतिक हस्तक्षेप दिखता है। यह हस्तक्षेप अलग-अलग दलों की सरकारों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहा है।
देश की आजादी के 75वें वर्ष में, जिसे हम अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं, किसे उम्मीद थी कि देश के अलग-अलग हिस्सों में नफरत के फफोले फूट पड़ेंगे और पीब के फव्वारे हमारे शरीर को उस आभा से वंचित कर देंगे, जिसके दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हम पात्र थे। यह अनायास नहीं हुआ कि इस वर्ष रामनवमी के अवसर पर देश का एक तिहाई भाग किसी न किसी तरह की हिंसा का शिकार हुआ। इसके लिए हम पिछले काफी दिनों से तैयारी कर रहे थे। इस बीच उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में चुनाव हुए हैं, जिनमें खुलकर हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेला गया। इन्हीं के दौरान जब परस्पर घृणा अपने उरूज पर थी, देश के कई हिस्सों में संत सम्मेलन आयोजित किए गए। इन सम्मेलनों में जैसे वक्तव्य दिए गए या हथियारों का जिस तरह से प्रदर्शन किया गया, उसमें बहुत कुछ ऐसा था, जिनकी किसी संत सम्मेलन में अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। कई धर्म संसदों और माहौल में काफी जहर घुल जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रुड़की में प्रस्तावित धर्म संसद पर रोक लगा दी। जितनी आसानी से स्थानीय प्रशासन ने आयोजकों और भाग लेने वालों को अनुशासित कर दिया, उससे स्पष्ट हो गया कि केवल राज्य की इच्छा शक्ति का अभाव था, जिनके चलते पिछले धर्म संसदों में उत्तेजक भाषण हो सके। न्यायपालिका से भी जैसी सक्रियता की अपेक्षा की जा सकती है, वैसी नहीं दिखाई दी। हरिद्वार के पहले धर्म संसद के दौरान किए गए भाषणों को लेकर कई व्यक्ति और संगठन सर्वोच्च न्यायालय गए, पर किसी प्रभावी कार्यवाही के अभाव में रुड़की के प्रस्तावित कार्यक्रम के पहले कई और कार्यक्रम हुए और उनमें एक से एक बढ़कर भड़काऊ भाषण होते रहे।
जिस तरह के दंगे-फसाद पिछले दिनों हमारे यहां हुए हैं, उनसे पूरी दुनिया में हमारी छवि पर असर पड़ा है। यदि हम विश्व की एक बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं, तो हमें अपना घर सुधारना होगा। कोई राष्ट्र आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता, यदि वहां प्राकृतिक न्याय के सर्वमान्य सिद्धांतों का पालन नहीं होता। दुनिया में सभ्य राष्ट्र वे ही कहलाते हैं, जिनमें कानून का शासन होता है और यह कानून कायदों का पालन करने वाली पुलिस के जरिये ही संभव है। पुलिस द्वारा खुद ही न्यायाधीश की भी भूमिका हथियाने की चाहत से फर्जी एनकाउंटर का जन्म होता है। त्वरित न्याय की यह पद्धति हमारे समाज को बर्बर और असभ्य ही बनाएगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस राज्य का सबसे दृश्यमान अंग होती है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान जब कफ्र्यू लगा हो, तब तो अक्सर सन्नाटा भरी निर्जन सड़कों पर सिर्फ पुलिस भारतीय राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। यदि वह समाज के किसी तबके का विश्वास जीतने में असफल होती है, तो इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि एक बड़े वर्ग का राज्य में विश्वास खत्म हो गया है। भारत एक बहुभाषी और बहुधार्मिक समाज है और इस विविधता की रक्षा में ही इसका कल्याण है। धार्मिक, जातीय या भाषिक तनाव के दौरान पुलिस के निष्पक्ष और पेशेवर आचरण से ही भारतीय राज्य की निष्पक्षता की परख होती है। दुर्भाग्य से हालिया दंगों में पुलिसकर्मी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने का प्रयास करते से दिखते हैं।
पुलिस का अपने संकीर्ण हित में इस्तेमाल करने को व्यग्र राजनीतिज्ञों को समझना होगा कि इसका दुरुपयोग एक दोधारी तलवार की तरह है। पुलिस को गैरकानूनी आचरण के लिए प्रेरित करने वाले भूल जाते हैं कि जिस दिन वे सत्ता में नहीं होंगे, यही पुलिस उनके खिलाफ भी गैरकानूनी आचरण से नहीं झिझकेगी। दिलचस्प यह है कि जिन नेताओं ने विपक्ष में रहते हुए पुलिस की बर्बरता झेली है, वे भी सत्ता हासिल करते ही उसका दुरुपयोग करने के लिए आतुर हो जाते हैं।
Rani Sahu
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